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रविवार, 13 अक्तूबर 2019

सिसकना नियति है


अपने तराजुओं के पलड़ों में
वक्त के बेतरतीब कैनवस पर
हम ही राम हम ही रावण बनाते हैं
जो चल दें इक कदम वो अपनी मर्ज़ी से
झट से पदच्युतता का आईना दिखा सर कलम कर दिए जाते हैं

ये जानते हुए कि
साम्प्रदायिकता का अट्टहास दमघोंटू ही होता है
नहीं रख पाते हम
अभिव्यक्ति के खिड़की दरवाज़े खुले

आओ चलो
कि पतंग उड़ायें अपनी अपनी बिना कन्नों वाली
कि नए ज़माने के नए चलन अनुसार
जरूरी है प्रतिरोध के दांत दिखाना भर
क्योंकि
आगे के गणित की परिकल्पनाओं पर नहीं है हक़ किसी का

सिसकना नियति है
फिर लोकतंत्र हो या अभिव्यक्ति .........