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शनिवार, 3 अक्तूबर 2009

अमर प्रेम --------भाग १२

गतांक से आगे ................................

महीनो बीत गए , कोई प्रतिक्रिया नही दोनों ओर से । मगर अर्चना --------------उसके तो जीवन की धुरी शायद उसी एक पल पर रुक गई थी । उसके अंतस में हलचल मच गई थी जिसके बारे में वो किसी से कह भी नही सकती थी। अजय के शब्द एक घुन की तरह उसके ह्रदय को कचोटते थे। उसके सारे आदर्श , सारी मर्यादाएं अजय के कुछ ही शब्दों ने चकनाचूर कर के रख दिए थे। शायद अब उसे अहसास हुआ था प्रेम के वास्तविक स्वरुप का। बिना चाह के भी किसी को चाहा जा सकता है। किसी को चाहने के लिए शरीर की नही आत्मा की जरूरत होती है । शरीर तो वहां नगण्य होते हैं । सिर्फ़ आत्माओं का ही मिलन होता है ।ये अहसास अर्चना को बहुत देर से हुआ इसलिए अब अर्चना अन्दर ही अन्दर घुटने लगी ।ये घुटन उसके पूरे वजूद पर हावी होने लगी । उसे लगने लगा कि उसने अजय के प्रेम को स्वीकार न कर जैसे कोई बहुत बड़ा अपराध किया हो । और ये अहसास उसे अन्दर ही अन्दर खाने लगा । अब जीवन का हर रंग उसे फीका लगने लगा। धीरे धीरे अर्चना का जीवन से मोहभंग होने लगा। वो अपनी दिनचर्या एक मशीन की भांति पूरी करती । अब उसमें पहले जैसी उमंगें ख़त्म होने लगीं । अपराधबोध से ग्रस्त अर्चना को जीवन नीरस दिखाई देने लगा। अब उसकी कविताओं में प्रेम के भव्य स्वरुप का दर्शन होता था मगर अजय की कोई प्रतिक्रिया अब नही मिलती थी । इससे अर्चना और आह़त हो जाती और मायूस रहने लगी । अर्चना का जीवन , उसका हर रंग सब बदरंग हो चुके थे ।
उधर अजय अपने वादे पर अटल था ------------दोबारा कभी न मिलने का वादा। अब उसने अर्चना को पुकारना छोड़ दिया था शायद अर्चना से मिलकर उससे अपना हाल-ए-दिल कहकर अजय को वक़्ती सुकून मिल गया था मगर फिर भी एक उदासी हर पल उसके जेहन पर छाई रहती ।अर्चना की यादों के साये हर पल उसके मानस- पटल पर छाये रहते । अब तो उसने खामोशी को अपना हमसफ़र बना लिया था और गुमनाम अंधेरों में जीवन गुजारने लगा था सिर्फ़ अर्चना की कवितायेँ पढता और उन्हें अपनी चित्रकारी से सजाता। अब वो जो भी चित्र बनाता सिर्फ़ अपने लिए बनाता । कहीं किसी को छापने के लिए नही भेजता । एक अलग ही ख्यालों की दुनिया में गुम हो गया था अजय।

क्रमशः ........................................

4 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

"....उधर अजय अपने वादे पर अटल था ------------दोबारा कभी न मिलने का वादा। अब उसने अर्चना को पुकारना छोड़ दिया था शायद अर्चना से मिलकर उससे अपना हाल-ए-दिल कहकर अजय को वक़्ती सुकून मिल गया था मगर फिर भी एक उदासी हर पल उसके जेहन पर छाई रहती ।"

कहानी का ये मोड़ ......
देखकर उत्सुकता बढ़ गई है।
अगली कड़ी का इन्तजार है।

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

kahani achci lagi hai...utsukta bani hui hai...... ab aage ka intezaar.....

निर्मला कपिला ने कहा…

त्याग बहुत मुश्किल और तकलीफ देह भी होता है । अच्छी चल रही है कहानी अगली कडी का इन्तज़ार रहेगा पिछ्ली कडी भी फिर पढी आभार

मनोज कुमार ने कहा…

कहानी अनुभव के दायरे में क्रमशः आगे बढ़ रही है।