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शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

श्रीमद्भागवद्गीता से .......................

श्रीमद्भागवद्गीता के सातवें अध्याय के २२ वें श्लोक में भगवान् देवताओं की उपासना के बारे में समझाते हैं और इसका बहुत ही सुंदर वर्णन स्वामी रामसुखदास जी ने इस प्रकार किया है ----------

श्लोक

उस (मेरे द्वारा दृढ़ की हुई ) श्रद्धा से युक्त होकर वह मनुष्य (सकामभावपूर्वक )उस देवता की उपासना करता है और उसकी वह कामना पूरी भी होती है ;परन्तु वह कामना -पूर्ति मेरे द्वारा विहित की हुई होती है ।

व्याख्या

मेरे द्वारा दृढ़ की हुई श्रद्धा से संपन्न हुआ वह मनुष्य उस देवता की आराधना की चेष्टा करता है और उस देवता से जिस कामना पूर्ति की आशा रखता है, उस कामना की पूर्ति होती है । यद्यपि वास्तव में उस कामना की पूर्ति मेरे द्वारा की हुई होती है ;परन्तु वह उसको देवता से ही पूरी की हुई मानता है । वास्तव में देवताओं में मेरी ही शक्ति है और मेरे ही विधान से वे उनकी कामनापूर्ति करते हैं।

जैसे सरकारी अफसरों को एक सीमित अधिकार दिया जाता है कि तुम लोग अमुक विभाग में अमुक अवसर पर इतना खर्च कर सकते हो , इतना इनाम दे सकते हो। ऐसे ही देवताओं में एक सीमा तक ही देने की शक्ति होती ;अतः वे उतना ही दे सकते हैं , अधिक नही । देवताओं में अधिक से अधिक इतनी शक्ति होती है कि वे अपने-अपने उपासकों को अपने -अपने लोक में ले जा सकते हैं । परन्तु अपनी उपासना का फल भोगने पर उनको वहां से लौटकर पुनः संसार में आना पड़ता है ।

संसार में स्वतः जो कुछ सञ्चालन हो रहा है वह सब मेरा ही किया हुआ है । अतः जिस किसी को जो कुछ मिलता है , वह सब मेरे द्वारा विधान किया हुआ ही मिलता है । कारण कि मेरे सिवाय विधान करने वाला कोई दूसरा नही है । अगर कोई मनुष्य इस रहस्य को समझ ले । तो फिर वह केवल मेरी तरफ़ ही खींचेगा।

कहने का तात्पर्य ये हुआ कि सर्व शक्ति मान तो एक ही है बस उसी को इंसान नही समझ पाता और इधर उधर भागता -फिरता है । एक का दामन पकड़ ले तो उसका कल्याण निश्चित है। बस वो श्रद्धा और विश्वास अटल होना चाहिए।

8 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Udan Tashtari ने कहा…

बेहतरीन कार्य!!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

भक्ति के रंग में रंगी यह पोस्ट बढ़िया रही।
भक्ति-रस का तो आनन्द ही निराला है।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

गहरी व्याख्या है ......... गीता का भण्डार बहूत ही गहरा है ........

दिगम्बर नासवा ने कहा…

गहरी व्याख्या है ......... गीता का भण्डार बहूत ही गहरा है ........

दर्पण साह ने कहा…

wah Vandan ji !!
Ek blog mil gaya mere taste ka...

Pata hai sabse badhiya baat?

ki aap bhi meri tarah 'Gita' ko ek pustak ki tarah padhti hain lagta hai...
aur mana karti hain...

"जैसे सरकारी अफसरों को एक सीमित अधिकार दिया जाता है कि तुम लोग अमुक विभाग में अमुक अवसर पर इतना खर्च कर सकते हो , इतना इनाम दे सकते हो। ऐसे ही देवताओं में एक सीमा तक ही देने की शक्ति होती ;अतः वे उतना ही दे सकते हैं , अधिक नही । "

devtaaon ki bhi seema hoti hai wakai !!

Science Bloggers Association ने कहा…

बहुत ही सुंदर प्रयास है, आपकी जितनी प्रशंसा की जाएकम है।
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हाजिर है एक आसान सी पक्षी पहेली।
भारतीय न्यूक्लिय प्रोग्राम के जनक डा0 भाभा।

Rakesh Kumar ने कहा…

जी हाँ,ईश्वर का विधान ही सर्वोपरि है.देवता सकाम भक्तों को सीमित फल ही दे सकते हैं.लेकिन यदि उनसे ईश्वर की भक्ति मांगें तो वे उस राह पर हमें लगा सकतें हैं.क्यूंकि अफसर भी तो टॉप मैन यानि ईश्वर से ही जुड़े रहते हैं.
जैसे गणेशजी,हनुमानजी शिवजी ,देवीजी ये सभी परमात्मा के ही विभिन्न रूप है और परमात्मा की प्राप्ति कराने में समर्थ हैं