प्रेम प्रतिकार
नहीं मांगता
तुझसे तेरे
होने का हिसाब
नहीं मांगता
प्रेम तो
प्रेमी का
दीदार भी
नहीं मांगता
जो रूह
बन गया हो
जो साँसों में
समा गया हो
जो जिस्म के
रोएँ- रोएँ में
बस गया हो
फिर दीदार
किसका करे
और कौन करे
जब दो हों
तो दीदार हो
जब दो हों तो
प्रतिकार हो
जहाँ एकाकार
हो गया हो
प्रेम और प्रेमी का
वहाँ
कोई बँधन नहीं
कोई चाहत नहीं
वहाँ
पूर्णता में लिप्त
आनंद की
स्वरलहरियाँ
गुंजारित होती हैं
रोम- रोम
उल्लसित
पुलकित
प्रफुल्लित
कुसुम सा
महकता है
शरीर नगण्य
हो जहाँ
बस दिव्य प्रेम पनपता है वहाँ
24 टिप्पणियां:
Prem kee sampuuraNataa ko chitrit karaatee aapakee kavitaa dil ko beetar tak chhuu gayee.
sachmuch vah prem prem hee nahee jo pratidaan athvaa deedaar kee apekshaa rakhataa ho, vaasvik prem to kisee pushp par sharad ritu me paDee os kee ek bund kee tarah hoti hai jis par paDane vaalee bhor kee pratahm kiran usame ek motee see divyataa kaa aabhaas karaa detee hai.
vaastavik prem kee parikalpanaa ko aap sadaiv apanee lekhanee se naye aayaam detee rahee hai, ek bar punah ise sundar dhang se chitri karane ke liye aapakaa koTisha: shukriyaa.
नैसर्गिक उस प्रेम का चित्र यहाँ साकार।
सुमन को सचमुच आ गया इस रचना पर प्यार।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
रूहानी प्रेम की सुन्दर कविता
Kitna sundar hai,divy prem ka yah bayaan!
prem ki divyta dikhane ke liye shukriya...bahut sundar rachna
जो रूह
बन गया हो
जो साँसों में
समा गया हो
जो जिस्म के
रोएँ- रोएँ में
बस गया हो
फिर दीदार
किसका करे
वाह ! रूहानी प्रेम का सुन्दर एहसास
बहुत सुन्दर
bahut sundar rachna vandana ji!
दिवय प्रेम की सुन्दर व्याख्या बधाई
बहुत सुंदर....कितना सुंदर लिखा है....
वाह शिव-पार्वती का मिलन? बढिया।
fir se khoob likha..
शरीर नगण्य हो जहाँ ...दिव्या प्रेम बसता है वहां ...
बिलकुल ...देह पर जो अटके वहां सिर्फ वासना है ....
प्रेम कुछ भी नहीं मांगता ...दीदार भी नहीं ...
मेरे भावनाओ को ही शब्द दे दिए हैं आपने
आभार ...!!
आध्यात्म की ओर ले जाता ये दिव्य प्रेम....बहुत खूबसूरत रचना
सुन्दर रचना!
प्रेम के स्वरुप की अलौकिक और स्वाभिविक अभिव्यक्ति को बहुत ही सुन्दर पंक्तियों में पिरो कर सुखद अनुभूति करवाई आपने ! बहुत बहुत आभार आदरणीया वन्दना जी !
दिव्य प्रेम के स्वरुप को इस रचना में आपने साकार किया है.
"prem gali ati sankri ta me do n samaayen "
prem ttv soodho bahuri kathin khadg ki dhar
main tha tb hri nhi jb hri hain main nahi
prem ttv anirvchniy hai
badhai
dr. ved vyathit
prem rang main dubi abhivyakti.
..शरीर नगण्य
हो जहाँ
बस दिव्य प्रेम पनपता है वहाँ.
..सुंदर कविता.
दिव्य प्रेम की परिभाषा आपने सुंदर शब्दो में की है!
सच्चा प्रेम।
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क्या आप बता सकते हैं कि इंसान और साँप में कौन ज़्यादा ज़हरीला होता है?
अगर हाँ, तो फिर चले आइए रहस्य और रोमाँच से भरी एक नवीन दुनिया में आपका स्वागत है।
प्रेम की दिव्यता को प्रकट करती हुई रचना...!!
ari wah, prem per itna kuch. badhai
aise prem ko toh "Platonic love hi kahenge" . Vaise shayad prem ki parakashtha bhi yahi hai...
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