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शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

कृष्ण लीला रास पंचाध्यायी……भाग 67



इधर गोपियाँ विलाप करतीं
चरण चिन्हों को देखतीं
वन वन भटक रही थीं
उधर कृष्ण जिस गोपी को
साथ लेकर गए थे
उसने समझा "मैं" सब गोपियों में श्रेष्ठ हूँ
इसलिए तो प्यारे सबको छोड़
मेरा मान रखते हैं
और मुझे इतना चाहते हैं
तभी अपने साथ लाये हैं
गोपियों को अभिमान हुआ था
और राधा रानी को मान
सौभाग्य  के मद में  मतवाली हो
कृष्ण से कहने लगीं
मुझसे अब चला जाता नहीं
तुम मुझे कहाँ लिए जाते हो
कान्हा बोले जहाँ मैं चलता हूँ
तुम मेरे साथ चलो
मैं तो थक गयी हूँ राधा ने इज़हार किया
सुन प्रभु ने उपाय बताया
मेरे कंधे पर चढ़ जाओ
और जैसे ही प्रभु झुके
और राधा रानी बैठने को उद्यत हुईं
वैसे ही प्रभु नीचे से अंतर्धान हुए
इस लीला का भी बड़ा विलक्षण भाव है
राधा रानी ने सोचा
अगर मैं प्रभु के साथ चली गयी तो
गोपियों को प्रभु कभी ना मिलेंगे
और वो विरह वेदना में दग्ध हो जाएँगी
ये सोच राधा रानी ने
थके होने का स्वांग रचा
और सब गोपियों पर
अपनी विलक्षण कृपा का आह्वान किया
यूँ ही थोड़े राधा को
प्रेम माधुरी कहा जाता है
प्रेम का महासागर है वो
किसी भी प्रेमी की पुकार पर
दौड़ी चली आती हैं
खुद दुःख उठाती हैं
पर कृष्ण से जरूर मिलवाती हैं
गर कान्हा का पता पाना हो
तो राधा को बुलाना होगा
अपना दुखड़ा सुनाना होगा
तभी प्रियतम का दरस पाना होगा
जैसे ही प्रभु अंतर्धान हुए
राधा प्यारी विकल हो पुकारने लगीं
हा नाथ ! हा प्राण प्यारे
तुम कहाँ गए
मुझे अकेला किसके सहारे छोड़ गए
श्याम तुम कहाँ गए?
जैसे मणि खोने पर सर्प
विकल हो जाता है
वैसा ही हाल आज राधा का होता है
अपनी दासी समझ मेरी
सुध ले लो श्याम
मुझे अपनी शरण में ले लो श्याम
राधा विरह में व्याकुल हो पुकारती हैं
रुदन देख वन के पशु पक्षी और वृक्ष भी रोने लगते हैं
राधा की प्रीत में खोने लगते हैं
तभी चरण चिन्हों का
अवलोकन करतीं
गोपियाँ वहाँ पहुँच गयीं
और राधे को रोती देख
उसके समीप गयीं
क्या तुम्हें भी श्यामसुंदर
छोड़ गए राधा ?
हाँ गोपियों ,मैंने थोडा मान किया
तुमने थोडा अभिमान किया
ये मोहन को नागवार गुज़रा
और तुम संग मुझे भी अकेला छोड़ गए
कह विलाप करने लगीं
अब तो गोपियों का बुरा हाल हुआ
मधुसूदन बिना जीना बेहाल हुआ
उनका तो कान्हा को
याद करते करते
सारा शरीर कृष्णमय हुआ
तन मन वचन से
कृष्णमय हो गयीं
वाणी कृष्ण गान करने लगी
मन चितचोर को ढूँढने लगा
तन का ना कोई होश रहा
सुध बुध  भूल गोपियाँ
वन वन भटकने लगीं
कृष्ण नाम की माला जपने लगीं
जरा कहीं पीत वर्ण दिखता
पीताम्बरी का आभास कर
उस ओर दौड़ पड़तीं
और कुछ ना मिलने पर
अचेत हो गिर पड़तीं
होश आने पर फिर
कान्हा नाम जपने लगतीं
कुञ्ज लताओं में
मोहन को खोजने लगतीं
कहीं कोई मधुर ध्वनि सुनाई पड़ती
गोपियों को बंसी की तान ही लगती
और गोपियाँ चित्रलिखि सी
खडी रह जातीं
घंटों यूँ ही खडी रहतीं
तन की ना कोई सुधि रहती
ये प्रेम के ढाई अक्षर का कमाल था
प्रीतम के बिना प्यारी का ये हाल था
अपना पता चलता  ना था
उनका पता मिलता ना था
प्रीत का कैसा हाल हुआ था
रोम रोम कृष्ण नाम जपता था
जब विरह वेदना में गोपियाँ बेहाल हुयें
तब राधा रानी ने उन्हें समझाया
देखो यूँ वन वन भटकने से
कुछ नहीं होने वाला
जो चीज जहाँ पर खोती है
वो वहीँ पर वापिस मिलती है
गोपियों  चलो  यमुना की रेती में
वहीं हम आराधना करती हैं
और मोहन को खोजती हैं
मानो राधा कह रही हों
यमुना है भक्ति
और जब तक भक्ति नहीं करोगे
शक्ति कहाँ से आएगी
और शक्ति बिना कैसे
शक्तिमान को पाओगी
तब सभी गोपियाँ यमुना किनारे पहुँच गयीं
सबने अपनी अपनी चूनर उतारकर
सिंहासन बना दिया
और गहन भक्तिभाव में डूब गयीं


 क्रमश:…………

10 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बड़ा ही मनोहारी वर्णन..

दिगम्बर नासवा ने कहा…

कृष्ण मय पोस्ट ... सुन्दर वर्णन ...

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

कथा के यह अध्याय अंजान थे ... आभार

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

हिन्दीदिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
आपका इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (15-09-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!

kshama ने कहा…

Bahut saaree baaten aaj tak nahee pata theen!

ASHOK BAJAJ ने कहा…

जय श्री कृष्ण !

ASHOK BAJAJ ने कहा…

जय श्री कृष्ण !

Asha Lata Saxena ने कहा…

अच्छा वर्णन करती रचना |
आशा

डा श्याम गुप्त ने कहा…

बहुत ही सुन्दर व तर्क-भक्तिरस पूर्ण वर्णन है....राधा को इसीलिये ...रा...धा ...संसार की धारक शक्ति....कहा जाता है... ...रसेश्वरी..भुवनेश्वरी ..परमेश्वरी ...इसीलये राधा ..कृष्ण के साथ नहीं गयी.....ब्रज में कृष्ण के शेष कार्य के निष्पादन हेतु....

Rakesh Kumar ने कहा…

क्या कहें,कुछ कहा नही जाता
बिन कहे भी तो रहा नही जाता
भक्ति की शक्ति का पता नही चल पाता
६७ कड़ियाँ कोई यूँ ही नही लिख पाता

कुछ तो बात है वन्दना जी आपमें
आप कहेंगी 'सब प्रभु कृपा है'
मैं तो कहूँगा
यूँ ही बरसाइये, बरसाइये खूब प्रभु कृपा जी.