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मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

मैं शून्यकाल का अगीत …………



मैं शून्यकाल का अगीत
तुम हो मोहन मेरे मीत


नृत्य करूँ या झांझर बजाऊँ
कहो तो मोहन कैसे रिझाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


बन मीरा गली गली अलख जगाऊँ
या राधा सी बावरिया बन जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


देहपुंज को कैसे बिसराऊँ
तुम पर कैसे वारी जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


कौन सी कहो महावर रचाऊँ

जो तुम्हारे साधिकार दर्शन पाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………

कैसे आँख का अंजन बन जाऊं

जो तेरे नैनों की शोभा बढ़ाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …

कौन सा वो हार बन जाऊँ

जो तेरे गले से मैं लिपट जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …

कौन सा वो बांस बन जाऊँ

जो मुरली बन अधरों से लिपट जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …

कहो तो चरणों की रज बन जाऊँ

पायलिया बन उनसे लिपट जाऊँ
अब तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


अंधेरी राह का दीप बन जाऊँ
निराकार को साकार बनाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


ह्रदय वेदना कैसे बुझाऊँ
कहो मोहन कौन सी गंगा नहाऊँ
जो तेरे दर्शन मैं पाऊँ
अब तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


मोहिनी मूरत पर वारी जाऊँ

श्याम तुम पर बलिहारी जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


कैसे माया का पर्दा गिराऊँ
जो तुझे साकार मैं पाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


कैसे अपना आप मिटाऊँ
जो तुझमे खुद को समाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


कह निर्झर बहता दरिया बन जाऊँ
बस ह्रदय कुंज मे तुम्हें बसाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


सुधि ना तेरी कभी बिसराऊँ
बस श्याम नाम के ही गुण मैं गाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


रसना को नाम का चस्का लगाऊँ
बस सांसों की सरगम पर रटना लगाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


जब भी तेरी गली का फ़ेरा लगाऊँ
बस सलोने मुखडे के दर्शन पाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


एक शून्य मे तुम मिल जाओ
तुम्हें पाकर एक शून्य मै बन जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


दृष्टि सृष्टि विलीन हो जाये
एक तेरा ही अक्स रह जाये
जिसमे मै एकाकार हो जाऊँ
अब तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


आकुलता व्याकुलता का चरम हो
वो क्षण जीव का परम हो
जब तेरे दिव्य दर्शन पाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


कालगति भी वहीं ठहर जाये
जब परमसत्य मे मैं मिल जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


कैसे घट को घट में समाऊँ

घटाकाश को व्यापक बनाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …

5 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

श्याम रंग में रंगी सुंदर रचना ...

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

जग में चलता साथ हमारा,
था अनादि वह,
है अनन्त वह।

kavita verma ने कहा…

sundar bhav..

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

कृष्णा प्रेम ओतप्रोत सुन्दर रचना ,सुन्दर अभिव्यक्ति .
मेरी नई पोस्ट में आपका स्वगत है

विभूति" ने कहा…

कोमल भावो की अभिवयक्ति......