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रविवार, 14 अप्रैल 2013

कृष्ण ! तुम्हारा चरित्र भी संदिग्ध की श्रेणी में आ गया है


कृष्ण !
तुम्हारा चरित्र भी संदिग्ध की श्रेणी में आ गया है
जानते हो क्यों
तुम्हारे ही कार्यों के कारण
पाठ तो तुमने अच्छे पढाये
उपदेश भी अच्छे दिये
मगर उनमें तुम्हारा दोगलापन ही नज़र आया
एक तरफ़ ये कहना
सब कुछ छोड मेरी शरण आ जा
मैं तेरा योगक्षेम वहन करूँगा
और जब जीव ऐसा करता है
तो भी कहाँ तुम्हें चैन पडता है
कहाँ उसे चैन से रहने देते हो
डाल ही देते हो उस पर
उसकी बुद्धि पर अपनी माया का परदा
और भटका देते हो जीवन की भूलभुलैया में
एक तरफ़ कहते हो
ये जीवन दे रहा हूँ
अपने कर्तव्य पथ पर चलते रहो
और मन मुझे अर्पण कर दो
ज़रा बतलाना कैसे संभव है
दो बातों का एक साथ होना
कैसे संभव है मन कहीं और रखना और तन कहीं और
जबकि कार्य कोई भी हो
जब तक पूरे मनोयोग से  ना किया जाये
सफ़लता कहाँ मिलती है
और जब मन तुम्हें दे दे कोई
तो केवल तन से किये कार्य का क्या कोई औचित्य रह सकता हैं
कहना , उपदेश देना आसान है
क्योंकि
तुमने जीव की सारी डोरियाँ
अपने हाथों में रखी हैं
और उसे अपने माया के फ़न्दे में उलझा रखा है

वैसे सुनो 
चाहते तो तुम भी हो 
कि तुम्हें जीव सबकुछ बिसरा कर चाहे
सिर्फ़ तुम्हें और किसी को नहीं
मगर कभी सोचा तुमने 
जब तुम अदृश्य हो , आभासी हो 
तो कैसे सच्चा प्रेम चाह सकते हो 
कोई कैसे सच्चा प्रेम कर सकता है 
चाहत सच्चे प्रेम की
और रहना आभासी बनकर
कैसे संभव है? 
जब तक ना दोनों तरफ़ वास्तविकता हो
एक सच और एक आभास 
और उनका मिलन ……संभव ही नहीं 
और यदि होगा भी तो स्थायी नहीं
स्थायित्व देने के लिये किसी भी संबंध को
दोनों तरफ़ से बराबरी पर पहल की जरूरत होती है 
तुम खेल ही गलत खेल रहे हो
चाल ही गलत चल रहे हो 
और शह और मात दोनों अपने हाथ में रख रहे हो  
बस खेलना जानते हो तुम
जीव से , उसकी भावनाओं से
क्योंकि तुम्हारे लि्ये खेल है ये सब
क्योंकि होता वही है जो तुम चाहते हो
तुम कहाँ किसी को खुशी देकर खुश होते हो

जहाँ भी ज़रा सी किसी की खुशी का इल्म होता है 
उसे नेस्तनाबूद करना तुम्हारा परम लक्ष्य होता है
पहले इंसान का सब छीनते हो
उसकी हर खुशी, हर चाहत यहाँ तक कि उसका प्रेम भी

पता नहीं कौन सी गांठ है तुम्हारे भी दिल में
पता नहीं कौन सी कसक है
जिसका बदला सारे जहान से लेते हो
इसलिये तो यदि कभी कुछ देते भी हो
तो उसमें दर्द की थोडी सी
खटास भी डाल देते हो
ये देना भी कोई देना होता है

और थक हार कर संसार को नि:सार जानकर
जब वो तुम्हारी तरफ़ आता है और यदि वो तुम्हारी तरफ़ मुड जाता है
और तुम्हें चाहता है, अपना सर्वस्व मानने लगता है
अपना सर्वस्व तुम्हें समर्पित कर देता है
तब अनगिनत परीक्षायें लेने के बाद
उसे मालामाल करते हो हर तरह की चीजों से
जिसका उस वक्त तक आते - आते
उसके लिये कोई मोल नहीं रह गया होता
जिसके लिये उसके दिल में कोई चाहत नहीं रह गयी होती
उस वक्त तुम सब देते हो
ज़रा सोचना उस देने का क्या फ़ायदा जब चाहतें ही मर चुकी हों
"क्या वर्षा जब कृषि सुखानी "
इस तरह देकर तो तुम सिर्फ़ खुद को संतुष्ट करते हो
ये सोचकर कि
इसे इतना दुख दिया तब भी इसने मुझे नहीं छोडा
अब इसे थोडा आराम देना चाहिये
इसके प्रेम का थोडा मोल देना चाहिये
और उस उधार को चुकाने के लिये ही
तुम ये प्रपंच रचते हो और खुद को महान सिद्ध करते हो
ज़रा सोचना
पहले किसी से सब छीनना
उसके हर स्पंदन को मिटा देना
हर नमी के स्रोत को खत्म कर देना
उसके बाद जब उसमें कुछ बचे नहीं
तब देना और उसे अपनी कृपा सिद्ध करना
तुम्हारे दोगले चरित्र को तो नहीं परिभाषित कर रही
क्यों नहीं रची ऐसी सृष्टि जिसमें
सब तुम्हें ही चाहते
क्योंकि
चाहत की प्यास तो तुम्हें भी है ना
तभी तो ये सारा खेल रचते हो
और सारी डोरियाँ अपने हाथ रखते हो
जिसे जैसा चाहे जहाँ चाहे घुमाते हो
और फिर दोष जीव के सिर मढते हो
नहीं ………नहीं पसन्द आया तुम्हारा ये दोगलापन
नहीं पसन्द आयी तुम्हारी ये टेढी चाल
नहीं लगा ये तुम्हारी परम कृपा का कोई रूप
ये तो तुम्हारा सिर्फ़ खुद को सिद्ध करने का प्रपंच भर लगा
क्योंकि
होगा तो वो ही जो तुम चाहते हो
ऐसे में क्यों जीव को बुद्धि और मन देते हो
और भ्रम की स्थिति में डाल देते हो
ना देते …………कम से कम दो घडी चैन से हम जी तो लेते
अब ना जी पाते हैं ना मर पाते हैं
बस जाल में फ़ँसे पंछी से फ़डफ़डाते हैं
अब इसे दोषारोपण समझो या शिकायत
मर्ज़ी तुम्हारी
हमने भी आज अपनी बात कह ही दी
जैसे तुमने गीता में कही या अन्य पुराणों में
उसी तरह आज जब तुम्हें जानने लगे हैं
तुम्हारे दोहरे चरित्र को पह्चानने लगे हैं
तब पता चला ………
सब कुछ लूट कर, बर्बाद करके , तडपने को छोड देते हो…………कितने बडे ठग हो तुम!!!
कभी विचारना इन बातों पर भी
क्यों दुनिया बनाई
क्यों दिल बनाया
क्यों धडकन बनायी
और फिर उसमें प्रीत की पींग बढायी
जब जीव को कर्ता बनाना ही नहीं था
क्योंकि
कारण , कार्य और कर्ता सब तुम ही तो हो …………
और ऐसे मे यदि जीव सिर पटक कर भी यदि मर जाये
तुम पर कोई असर नहीं होता
क्योंकि
तुमने तो खुद को निर्लेप सिद्ध किया हुआ है
तुमने तो खुद को निर्विकार सिद्ध किया हुआ है
तुमने तो खुद को कर्तुम अकर्तुम अन्यथा कर्तुम सिद्ध किया हुआ है
देखा दोनो तरफ़ से खुद को बचा गये
और जीव को फ़ँसा गये
फिर चाहे जीव के हाथ में कुछ नहीं दिया है
मगर उसकी बुद्धि पर अपनी माया का ऐसा परदा किया है
जितना अन्दर घुसता है उतना ही धँसता जाता है
कितनी गहरी दलदल है तुम्हारे चरित्र की
सिर्फ़ अपने "मै" को सिद्ध करने के लिये ………आह !
बहुत कह दिया ………अब और क्या कहूँ
समझ सको तो समझ लेना मेरे भावों को
और सोचना बैठकर ………क्या गलत कहा मैने?



सुनो 
कर सको तो इतना करना 
मत देना मानव जन्म फिर से 
भले हैं हम बिना बुद्धि और मन के 
जड जीव या जन्तु बनकर ………
कम से कम तुम्हारी दोगली चालों से तो मुक्त रहेंगे 
कम से कम दर्द के हिंडोलों में तो ना झूलेंगे 
नहीं चाहिये तुम्हारी ऐसी कृपा जो अकृपा सिद्ध होने लगे
नहीं बनना जिसमे 
"दुनिया हमें पागल कहे तो हम पागल ही अच्छे हैं "
की किंवंदंती 
क्योंकि
कहते हैं 
देखा सुना भी झूठ होता है
मगर जिससे व्यवहार किया हो
जिसे जाना हो वो झूठ नहीं होता 
और अब हम जान चुके हैं जब से तुमको 
और जानने की चाहत ही नहीं बची………

ए ……मत देना इसे परीक्षा का नाम
और मत चढाना हमें इस नाम पर वक्त की सूली पर 
अब इन चक्करों में नहीं फ़ंसने वाले हम 
समझ चुके हैं तुम्हें भी और तुम्हारे "मैं" को भी 
सिर्फ़ अपने होने को सिद्ध करने के लिये
अपने "मैं" के पोषण के लिये
संसार का निर्माण करना
उसका पालन करना
और फिर विध्वंस करना शगल है तुम्हारा 
जीव हूँ ………इसलिये मूक हूँ
ईश्वर हो तुम ………इसलिये मुखर हो 
मजबूर हैं हम क्योंकि परतंत्र हैं
ईश्वर हो तुम, कर्ता हो तुम ……इसलिये स्वतंत्र हो 
कभी परतंत्रता की बेडियों मे जकडे होते तो जाना होता हमारा दर्द ……आसान है ईश्वर होना और मुश्किल है जीव होना 
कभी विचारना इस पर भी
और हो कोई उत्तर तो देने की कोशिश करना …इंतज़ार रहेगा!!!

11 टिप्‍पणियां:

Dinesh pareek ने कहा…

नवरात्रों की बहुत बहुत शुभकामनाये
आपके ब्लाग पर बहुत दिनों के बाद आने के लिए माफ़ी चाहता हूँ
बहुत खूब
आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
मेरी मांग

Khushdeep Sehgal ने कहा…

युग कोई भी रहा हो अग्निपरीक्षा नारी को ही देनी पड़ी है...

जय हिंद...

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

अरे वाह! बहुत ख़ूब

और

यह भी!

केतना हमे सतइबू हमार सजनी!

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

अरे वाह! बहुत ख़ूब

और

यह भी!

केतना हमे सतइबू हमार सजनी!

अज़ीज़ जौनपुरी ने कहा…

krishn pr ungli utha kar dil ki bat likh diya shringar me saundar ka madhumas pura bhar diya ,gazb bandniya

Jyoti khare ने कहा…

विचारपूर्ण
सुंदर रचना
उत्कृष्ट प्रस्तुति

jaisingh ने कहा…

सब कुछ लूट कर, बर्बाद करके , तडपने को छोड देते हो…………कितने बडे ठग हो तुम!!!
सुन्दर प्रस्तुति कोई याद पुरानी!....वाह: बहुत सुन्दर

jaisingh ने कहा…

और ऐसे मे यदि जीव सिर पटक कर भी यदि मर जाये तुम पर कोई असर नहीं होता
सुन्दर प्रस्तुति कोई याद पुरानी!....वाह: बहुत सुन्दर...............

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

आत्मीयों से आत्मीय संवाद

डॉ. जेन्नी शबनम ने कहा…

श्री कृष्ण ईश भी और सखा भी... तभी तो अपनी पीड़ा का जिक्र किया और आरोपों से तर किया. कौन जाने यह सब? किसकी माया, किसका बैर, विधि का विधान, कृष्ण का दोहरा चरित्र या कुछ और... संसार के समस्त प्राणियों की शिकायत और श्री कृष्ण कटघरे में...बहुत खूब. बधाई.

M. Jha ने कहा…

I am not very sure how to write in hindi. But congrats. You do write well. Get your things published!