प्रेम
जीवन का आधार
जीने के लिए आवश्यक विषय
मगर मानव इसी से अंजान
कभी मुश्किल सवाल सा
तो कभी इससे आसान कुछ नहीं
कभी कश्मकश सा
तो कभी तरंगित करता
फिर भी जाने क्यूँ रहता अधूरा
जिसने भी पढ़ा
कहीं न कहीं कुछ न कुछ छूट ही गया
चाहे वो इस विषय का
एक अध्याय हो या एक प्रश्न
एक अध्याय हो या एक प्रश्न
या एक पंक्ति
कहीं शोध का विषय बना
कहीं कोई पूरा ही डूब गया
और कोई तो
न पूरा डूबा और न पूरा तरा
बस गोते ही खाता रहा
कभी असमंजस की नाव पर
तो कभी पूर्ण विराम पर
एक तर्कसंगत विषय बना
कभी सभी तर्कों से परे
सिर्फ अनुभूति की कसौटी पर ही परखा गया
मगर मैंने तो सिर्फ सुना ही सुना सब
मैंने तो सिर्फ पढ़ा ही पढ़ा सब
कभी अनुभूति की प्रक्रिया से गुजरी ही नहीं
कभी शोध के लिए आवश्यक
सामग्री मिली ही नहीं
और एक अजब सी असमंजस में डूब गयी
आखिर कैसे होता है देह से परे
अनुभूति की तरंगों पर आत्मिक प्रेम
आखिर कैसे कोई कृष्ण किसी राधा के प्रेम में
हिचकियाँ लेता है
कैसे कोई कृष्ण प्रेम में इतना डूब जाता है
कि श्वास श्वास पर सिर्फ राधा राधा ही गुनता है
आखिर कैसे साज श्रृंगार कर राधा बन जाता है
आखिर कैसे स्वयं को किसी के लिए
विस्मृत कर देता है
आखिर कैसे भाव तरंगों पर
तादात्म्य हो जाता है
जो एक पर गुजरती है
वो दूसरे की अनुभूति बन जाती है
कैसे कोई एक इतना प्यारा लगने लगता है
कि उसके अलावा संसार है
या इस संसार में कोई और भी है
वो भूल जाता है
और प्रेम की आंच पर ही
खाली देग सा धधकता है
नहीं जान पायी आज तक
क्यूंकि
गुजरी ही नहीं ऐसी किसी अनुभूति से
क्यूंकि
मिला ही नहीं कोई कृष्ण
जो प्रेम में बावरा बन घूम सकता
यहाँ तो सिर्फ
स्वार्थमयी ही दिखा सारा संसार
यहाँ तो सिर्फ
देह तक ही दिखा हर व्यवहार
फिर कैसे सम्भव है
तारों की ओढ़नी ओढ़ अपने चाँद की परिक्रमा करना
जहाँ सारा आकाश सिर्फ
देह की कँटीली झाड़ियों में ही उलझा हो
या फिर स्वार्थ की वेदी पर
सिर्फ स्व की आहुति दी जाती हो अर्थ के लिए
वहाँ कैसे सम्भव है
प्रेम के खगोलशास्त्र का भूगोल दर्शन
पीर फ़क़ीर दरवेश
मीरा राधा रुक्मणी
बस अलंकार से लगते हैं
जिन्हें सजा दूं किसी पंक्ति में
और बढ़ा दूं उसका सौंदर्य
लगता है जैसे
किंवदंतियाँ हैं जिन्हें
समयानुसार प्रयोग भर किया जा सकता है
मगर
मुझे मुझमें नहीं मिलता
एक अंश , एक कण , एक क्षण भी प्रेम का
फिर कैसे मानूँ प्रेम के स्वरुप को
कैसे स्वीकारूँ प्रेम के रूप को
कैसे साकार करूँ निराकार को
जो ना मेरे मन के अरण्य में विचरता है
ना मेरी अनुभूतियों से गुजरा है
फिर कैसे जान सकती हूँ कि
कैसे कोई इकतरफा प्रेम में
बावरा बन गली गली नृत्य करता है
और मगन रहता है
सुख का अनुभव करता है
प्रियतम न उससे दूर होता है
मेरे हाथों में तो सूखी रेत है
और दूर दूर तक कोई सागर नहीं
जो भिगो सके और करा सके अहसास
नमी का , भीगने का , डूबने का
शायद तभी
अधूरा ही रहता है प्रेमग्रंथ
शायद तभी
अधूरे ही रहते हैं प्रेमीयुगल
क्यूंकि
खारे पानी से कब किसी की प्यास बुझी है
क्यूंकि
कहाँ अनुभूति की प्रक्रिया से हर रूह गुजरी है
क्यूंकि
कहाँ कोई निराकार प्रेम की उद्दीप्त तरंगों पर साकार हुआ है
और जब तक गुजरुँगी नहीं इस प्रक्रिया से
कैसे मानूँ , कैसे जानूँ , कैसे स्वीकारूँ
प्रेम के अस्तित्व को
पागलपन का सुना है दूजा नाम प्रेम ही होता है
और मुझे लग चुका है ये छूत का रोग
अब मेरे पागलपन की दवा सिर्फ इतनी भर है
प्रेम की अनुभूति से गुजरने के लिए एक अदद प्रेमी का होना
और तभी है जीना सार्थक
और प्रेम का होना सार्थक जब
तुम जवाब दो मेरे इस प्रश्न का
क्या बन सकोगे वैसे ही मेरे भी प्रेमी जैसे तुम बने थे राज राजेश्वरी के लिए …………ए कृष्ण !!!
अनुभूति की चाहत के अरण्य में धू धू कर जल रही है चिता मेरी
और परिक्रमा को मेरी सुलगती रूह के सिवा कुछ भी नहीं ……………
8 टिप्पणियां:
अति सुन्दर कृति..
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (14-12-2013) "नीड़ का पंथ दिखाएँ" : चर्चा मंच : चर्चा अंक : 1461 पर होगी.
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है.
सादर...!
पीर फ़क़ीर दरवेश
मीरा राधा रुक्मणी
बस अलंकार से लगते हैं
जिन्हें सजा दूं किसी पंक्ति में
न चाहते हुए भी कहीं न कहीं प्रेम में अहं आ ही जाता है..जहां अहं न हो वहां ही प्रेम रह सकता है..दिक्कत है कि इंसानी प्रेम ऐसा ही होता है....न तो हर जगह कृष्ण मिल सकते हैं न ही राधा, रुक्मणी और मीरा....यहां तो जो आज मीरा होती है वो अचानक रंग बदल लेती है जिसे कृष्ण समझा जाता है वो कंस निकल जाता है।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शनिवार (14-12-13) को "वो एक नाम" (चर्चा मंच : अंक-1461) पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
prem ki utkrisht abhiwayakti ...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
इन्हीं अलंकारों में आकार पाता प्रेम का अतृप्त जीवन।
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