लोक लाज त्याग
मेरे हठी
प्रेम ने प्रेम के गले में
प्रेम की वरमाला डाल
प्रेम को साक्षी मान
प्रेम की भाँवरें डाल
प्रेम को परिपूर्ण किया
अब विदा होकर
प्रेम के आँगन में
पदार्पण कर
प्रथम मिलन के इंतज़ार में
सोचती हूँ
क्या दूँ तुम्हें ?
प्रेम तो कब का
तुम्हारा हो चुका
अब तो सिर्फ जाँ बची है
क्या मुँह दिखाई की रस्म जाँ लेकर ही निभाओगे ...................ओ मोहन !
8 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर रचना.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (21-12-2013) "हर टुकड़े में चांद" : चर्चा मंच : चर्चा अंक : 1468 पर होगी.
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है.
सादर...!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (21-12-2013) "हर टुकड़े में चांद" : चर्चा मंच : चर्चा अंक : 1468 पर होगी.
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है.
सादर...!
सुन्दर...
बहुत ही प्यारी सुन्दर रचना। .
कभी-कभी शब्दों का अकाल पड जाता है....निःशब्द
बहुत सुंदर प्रस्तुति
बहुत ही मोहक रचना..
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