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शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

सोचती हूँ क्या दूँ तुम्हें ?

लोक लाज त्याग 
मेरे हठी 
प्रेम ने प्रेम के गले में 
प्रेम की वरमाला डाल 
प्रेम को साक्षी मान 
प्रेम की भाँवरें डाल 
प्रेम को परिपूर्ण किया 
अब विदा होकर 
प्रेम के आँगन में 
पदार्पण कर 
प्रथम मिलन के इंतज़ार में 
सोचती हूँ 
क्या दूँ तुम्हें ?
प्रेम तो कब का 
तुम्हारा हो चुका 
अब तो सिर्फ जाँ बची है 
क्या मुँह दिखाई की रस्म जाँ लेकर ही निभाओगे ...................ओ मोहन !

4 टिप्‍पणियां:

मेरा मन पंछी सा ने कहा…

बहुत ही प्यारी सुन्दर रचना। .

अभिषेक शुक्ल ने कहा…

कभी-कभी शब्दों का अकाल पड जाता है....निःशब्द

रश्मि शर्मा ने कहा…

बहुत सुंदर प्रस्‍तुति

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बहुत ही मोहक रचना..