अद्भुत आननदमयी बेला सखि री
अद्भुत निराली छटा
ना नाम ना धाम ना काम कोई
भूल गयी मै कौन भयी
कैसी निराली थी वो घटा
सखि री अदभुत आनन्दमयी बेला
इक क्षण में थी घटना घटी
न आवाज़ हुयी न बिजली चमकी
वो तो ज्योतिपुंज बन प्रकट हुयी
और कर गयी मुझे निहाल सखी री
अदभुत आनन्दमयी बेला
अब आनंद सिंधु बन गयी
अपनी सुध बुध भूल गयी
ऐसी थी वो श्यामल छटा
कर गयी आत्मविभोर सखी री
अदभुत आनन्दमयी बेला
3 टिप्पणियां:
गहन अभिव्यक्ति...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (20-01-2014) को चर्चा कथा में चर्चाकथा "अद्भुत आनन्दमयी बेला" (चर्चा मंच अंक-1498) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
भाव विभोर करने वाली
बहुत सुंदर कबिता--।
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