मैं रहूँ न रहूँ क्या फ़र्क पडता है
दुनिया न रुकी है न रुकेगी
फिर पहचान चिन्हित करने भर से क्या होगा
क्या मिलेगी मुझे आत्मसंतुष्टि
क्या देख पाऊँगी मैं अक्स आईने में
सुना है
मिट जाने के बाद आईने टूट जाया करते हैं
फिर किस प्रतिबिंब की तलाश में भटकन जारी है
फिर पगडंडियाँ जो छुट गयीं पीछे
कितनी ही पुरजोर कोशिश करूँ
क्या संभव होगा पहचानना उन्हें
क्या संभव होगा पहचानना अपने ही पदचिन्हों को
स्वप्न में जो दिखे तो कम से कम याद तो रहता है
मगर
अस्तित्व के मिटने पर कैसे संभव है
खंगालना चेतना के अंश को
इसलिए लगता है
आत्मसंतुष्टि महज कोरा लफ्ज़ भर है
जिस के हर ओर छोर पर भी
एक व्याकुलता का विचलन जारी रहता है
जब तक न प्रमाणिकता मिले स्वयं के होने की
तब तक
अवधारणाएं बदलती ही रहती हैं और जारी रहता है ………… विचलन !
फिर आत्मसंतुष्टि हो या विचलन
अमूर्त अवधारणायें हैं दोनों
और मैं हूँ मूर्त
फिर कैसे संभव है
अमूर्त और मूर्त का सम्बन्ध
ब्रह्म और जीव जैसे
जब तक न खोज को व्यापक दिशा मिले
और निराकार साकार हो जाए
तब तक
पहचान चिन्हित करना महज दिशाभ्रम भर ही तो है !
वक्त के तराजू में
खुद को तोलती मैं
पलड़ों का अनुपात देख रही हूँ
शायद मिल जाए कहीं कोई संतुलन का काँटा भृकुटि के मध्य में ..........
3 टिप्पणियां:
ब्रह्म और जीव जैसे
जब तक न खोज को व्यापक दिशा मिले
और निराकार साकार हो जाए
तब तक
पहचान चिन्हित करना महज दिशाभ्रम भर ही तो है !
सटीक कथन !
new post ग्रीष्म ऋतू !
भृकुटि के मध्य में ही मिलेगा ये संतुलन बिंदु और ईश्वर भी।
संतुलन का काँटा भृकुटि के मध्य ही मिलेगा...खूबसूरत अभिव्यक्ति...
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