इन्सान भीड़ में भी खुद को अकेला महसूस करता है सर्वविदित सत्य है ये लेकिन क्यों ? प्रश्न ये उठता है .
शायद अपनी आकांक्षाओं चाहतों इच्छाओं पर सबको खरा नहीं पाता . दुनिया में सब एक जैसे नहीं होते सबके अपनी सोच अपने विचार होते हैं ऐसे में कैसे संभव है सबका सबके आकलन पर खरा उतरना . शायद यही है मुख्य कारण क्योंकि कहने को वो सामाजिक प्राणी है मगर सिर्फ कहने को ही वास्तव में सामाजिकता थोपी गयी है उन पर वास्तव में तो वो जन्मतः अकेला ही है और जो चीजें थोपी जाती हैं वो एक न एक दिन चिंतन को विवश कर देती हैं और उस पल उसे लगता है ..... नहीं , ये भी ठीक नहीं और वो भी ठीक नहीं , अपनी कसौटियों पर कसता है , परखता है और निष्कर्ष निकालता है तब लगता है वो तो ठगा गया यहाँ तो कोई अपना नहीं या फिर कहने को होता है सारा जहान हमारा ,वास्तव में तो जिस दिन इस सत्य से रु-ब-रु होता है तब जान पाता है एकला चलो का वास्तविक अर्थ . और मिल जाता है उसे उत्तर ........ भीड़ में भी अकेले होने का .
इंसान क्या खुद के साथ भी चल सकता है ? खुद से भी आजिज तो नहीं हो जाता ? प्रश्नों के रेले उसे घेरने लगते हैं जब तक कि यात्रा जारी रहती है क्योंकि कहीं न कहीं उसकी सामाजिकता उसे अकेले होने पर कचोटती है , फिर समूह उसे आकर्षित करता है , फिर सम्बन्ध उसे आवाज़ देते हैं तब एक बार फिर उसके मन का द्वन्द प्रगट हो जाता है और वो फिर एक बार अपने ही बनाए चक्रव्यूह में घिर जाता है कि आखिर वो चाहता क्या है ?
न भीड़ पसंद है उसे और न ही एकांत फिर कहाँ है उसका ठहराव , उसकी खोज , उसकी अंतिम परिणति ? तय तो उसे ही करना है कहाँ वो खुश रह सकता है समझौते की डगर पकड़ सामाजिक होकर या फिर अपने एकांत में खुद के भीतर उतर कर ........आखिरी निर्णय उसे खुद लेना होता है शायद यही है इन्सान के सबसे मुश्किल प्रश्न का उत्तर या फिर जीवन दर्शन .
शायद अपनी आकांक्षाओं चाहतों इच्छाओं पर सबको खरा नहीं पाता . दुनिया में सब एक जैसे नहीं होते सबके अपनी सोच अपने विचार होते हैं ऐसे में कैसे संभव है सबका सबके आकलन पर खरा उतरना . शायद यही है मुख्य कारण क्योंकि कहने को वो सामाजिक प्राणी है मगर सिर्फ कहने को ही वास्तव में सामाजिकता थोपी गयी है उन पर वास्तव में तो वो जन्मतः अकेला ही है और जो चीजें थोपी जाती हैं वो एक न एक दिन चिंतन को विवश कर देती हैं और उस पल उसे लगता है ..... नहीं , ये भी ठीक नहीं और वो भी ठीक नहीं , अपनी कसौटियों पर कसता है , परखता है और निष्कर्ष निकालता है तब लगता है वो तो ठगा गया यहाँ तो कोई अपना नहीं या फिर कहने को होता है सारा जहान हमारा ,वास्तव में तो जिस दिन इस सत्य से रु-ब-रु होता है तब जान पाता है एकला चलो का वास्तविक अर्थ . और मिल जाता है उसे उत्तर ........ भीड़ में भी अकेले होने का .
इंसान क्या खुद के साथ भी चल सकता है ? खुद से भी आजिज तो नहीं हो जाता ? प्रश्नों के रेले उसे घेरने लगते हैं जब तक कि यात्रा जारी रहती है क्योंकि कहीं न कहीं उसकी सामाजिकता उसे अकेले होने पर कचोटती है , फिर समूह उसे आकर्षित करता है , फिर सम्बन्ध उसे आवाज़ देते हैं तब एक बार फिर उसके मन का द्वन्द प्रगट हो जाता है और वो फिर एक बार अपने ही बनाए चक्रव्यूह में घिर जाता है कि आखिर वो चाहता क्या है ?
न भीड़ पसंद है उसे और न ही एकांत फिर कहाँ है उसका ठहराव , उसकी खोज , उसकी अंतिम परिणति ? तय तो उसे ही करना है कहाँ वो खुश रह सकता है समझौते की डगर पकड़ सामाजिक होकर या फिर अपने एकांत में खुद के भीतर उतर कर ........आखिरी निर्णय उसे खुद लेना होता है शायद यही है इन्सान के सबसे मुश्किल प्रश्न का उत्तर या फिर जीवन दर्शन .
6 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (15-03-2015) को "ख्वाबों में आया राम-राज्य" (चर्चा अंक - 1918) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सारगर्भित पोस्ट बधाई
एकान्त में भी अन्तर्द्वन्द!!!!!!!
यही तो है जिंदगी न जाने कब मिटटी भाये कब महल विचारणीय पोस्ट सत्य दर्शाती रचना
भ्रमर ५
यही तो है जिंदगी न जाने कब मिटटी भाये कब महल विचारणीय पोस्ट सत्य दर्शाती रचना
भ्रमर ५
सुन्दर लेख !
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है
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