गोपीभाव
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न ख़ुशी न गम
तटस्थ सा हो गया मन
न मिलने की चाह रही
न बिछड़ने की परवाह रही
उमंगों के घोड़े रुक गए
जाने कहाँ तुम छुप गए
जब से किया किनारा है
मेरा न कोई दूजा सहारा है
अब बिरहा की मारी जाएँ कहाँ
तुम्हारी वो अलौकिक छवि पायें कहाँ
यूं सोच सोच बेजार हुईं
हम तो खुद को तुम पर हार गयीं
न वो सांझ सकारे रहे
न वो मधुबन के द्वारे रहे
न वो रास रंग की बतियाँ रहीं
न वो तुम संग बीतीं रतियाँ रहीं
न वो हास - विलास रहा
न वो पहला सा उल्लास रहा
जब से गए हो परदेस मोहन
अपना पता भी भूल गया
तभी तो कहता है ह्रदय हमारा
न ख़ुशी न गम
तटस्थ सा हो गया मन.......... मोहन !!!
मेरा हर ख़ुशी हर गम
सिर्फ मोहन से रति
यही है मेरे प्रेम की परिणति
3 टिप्पणियां:
सुन्दर
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (30-08-2015) को "ये राखी के धागे" (चर्चा अंक-2083) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
भाई-बहन के पवित्र प्रेम के प्रतीक
रक्षाबन्धन के पावन पर्व की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कृष्ण प्रेम में ही गति है...
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