सुना है
प्रेम पहला द्वार है
जीवन का
सृष्टि का
रचयिता का
रचना का
सृजन का
मोक्ष का
मगर उसका क्या
जो इनमे से
कुछ ना चाहता हो
ना जीवन
ना सृजन
ना मोक्ष
और फिर भी
पहुँच गया हो
दूसरे द्वार पर
या कहो
अंतिम छोर पर
आखिरी द्वार पर
मगर ये ना पता हो
अब इसके बाद
क्या बचा
कहाँ जाना है
क्या करना है
कौन है उस पार
जिसकी सदायें
आवाज़ देती हैं
जिसे ढूँढने
हर निगाह चल देती है
जिसे चाहने की
हर दिल को शिद्दत होती है
जिसे पाना
हर रूह की चाहत होती है
ये अंतिम द्वार के उस पार
कौन सा शून्य है
कौन सा अक्स है
कौन सा शख्स है
कौन सा तिलिस्म है
कौन सी उपमा है
कौन सी अदृश्य तरंग है
जो चेतनाशून्य कर देती है
जो ना दिखती है
ना मिलती है
फिर भी अपनी
अनुभूति दे जाती है
सब खुद में समाहित करती है
क्या वो प्रेम का लोप है
क्या अंतिम द्वार पर
या फिर प्रेम
सिर्फ पहले द्वार पर ही रुक जाता है
अंतिम द्वार पर तो
प्रेम का भी प्रेम में ही विलुप्तिकरण हो जाता है
और सिर्फ
अदृश्य तरंगों में ही प्रवाहित होता है
और वहाँ
प्रीत ,प्रेम और प्रेमी तत्वतः एक हो जाते हैं ..........निराकार में परिभाषित हो जाते हैं
कौन है उस पार ...........एक आवाज़ तो दो
बताओ तो सही ...........अपने होने का बोध तो कराओ
यूँ ही नहीं पहेलियाँ बुझाओ .........ओ अंतिम छोर के वासी !!!
12 टिप्पणियां:
उस पार से बस निराकार प्रेम ही लौट कर आएगा - और कुछ नहीं कोई आवाज नहीं ।
प्रेम का भाव तो आपको अपने किनारे का बता सकता है, उस पार क्या हो रहा है, कौन जाने।
उसपार तो है ब्रह्म नाद जो अपने होने का एह्सास कभी नहीं देता . बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति
latest post क्या अर्पण करूँ !
कितने विलक्षण विचार और भाव हैँ ये -- मन चिन्तन करने को विवश हो जाता है । बधाई । सस्नेह
प्रेम के महीन अहसास की सुखद और
बहुत सुंदर अनुभूति
उत्कृष्ट प्रस्तुति
बधाई
आग्रह है
केक्ट्स में तभी तो खिलेंगे--------
adhyamik racna....behtreen...
अंतिम छोर तक सशरीर कौन पहुंचा है .... बहुत दार्शनिक अंदाज़ में लिखी सुंदर रचना ।
बेहतरीन अभिव्यक्ति..
बेहतरीन अभिव्यक्ति..
बहुत ही सुंदर दार्शनिक प्रस्तुति...
बहुत ही सुन्दर रचना...
प्रेम को आपने बिलकुल ही अलग और बहुत ही अच्छी तरह से परिभाषित किया है.
एक टिप्पणी भेजें