तुम थे
तो जहान में सबसे धनवान थी मैं
अब तुम नहीं
तुम्हारी याद नहीं
तुम्हारा ख्याल तक नहीं
तो मुझ सा कंगाल भी कोई नहीं
वो मोहब्बत की इन्तेहा थी
ये तेरे वजूद को नकारने की इन्तेहा है
जानते हो न
इसका कारण भी तुम ही हो
फिर निवारण की गली मैं अकेली कैसे जाऊँ?
मुझे जो निभाना था , निभा चुकी
सच और झूठ के पलड़ों में
तुम्हारे होने और न होने के पलड़ों में
अब तुम्हारी बारी है ... यदि हो तो ?
आस्था विश्वास और अविश्वास के मध्य
महीन सी लकीर
तुम्हारा कथ्य तोल रही है
जानते हो न
बदले बेशक जाएँ
टूटे तार फिर जुड़ा नहीं करते ...
1 टिप्पणी:
गहन रचना ... मन को सोचने पे विवश करती ...
एक टिप्पणी भेजें