पेज

मेरी अनुमति के बिना मेरे ब्लॉग से कोई भी पोस्ट कहीं ना लगाई जाये और ना ही मेरे नाम और चित्र का प्रयोग किया जायेये

my free copyright

MyFreeCopyright.com Registered & Protected

बुधवार, 11 सितंबर 2024

ईश्वर एक बिजूका है

 1

सुनो 
इश्क नाकामियों का दूजा नाम है 
और 
कुछ इश्क होते ही असबाब की तरह हैं 
जो एक बार चिपटे तो छूटते ही नहीं 
फिर चाहे तुमने एकतरफा ही क्यों न की हो मोहब्बत 

और कुछ इश्क महज वहम होते हैं तुम्हारा 
तुम सुनते हो और हो जाते हो दीवाने 
खुदाई इश्क की नस्लें हैं 
जिन्हें काठ की घोड़ी पर भी चढ़ाओ 
तो भी चाबुक मार पहुँच ही जाती हैं 
सुनहरे ख्वाबगाह में 
जहाँ नहीं होता कोई खुदा 
बस हुंकारे लगाते तुम 
करते हो उद्घोष उसके होने का 
कि कहीं हो न जाओ निष्कासित 
कि हो न जाये छवि ध्वस्त तुम्हारी 

सच के पैरहन खोलने के लिए जरूरी है ख्वाब से हकीकत तक का सफ़र 

2
खुदा/इश्वर  
एक अलहदा मसले की तरह 
फेंका जाता रहता है अलग अलग पाले में 

जीत किसी तरफ सुनिश्चित नहीं 
और हार किसी की होती नहीं 
खेल के नियम एकतरफा जो ठहरे 
ऐसे में कैसे संभव है कोई न्याय?

उनके बस्ते में खुदा उस किताब की तरह है 
जिसे कभी पढ़ा जाता ही नहीं 
लेकिन बस्ता है 
तो स्कूल है 
स्कूल है तो पढ़ाई है 
पढ़ाई है तो मुमकिन है एकछत्र राज 

इस पढ़ाई के कायदे थोड़े दूजे किस्म के होते हैं 
जहाँ योग्यता के लिए जरूरी है 
सिर्फ एक ही सूरत 
तुम कितना रख सकते हो खुदा रुपी गेंद को अपने पाले में 

अब खुदा कहो या ईश्वर 
फर्क नहीं पड़ेगा 
वो जानते हैं ईश्वर हो या खुदा गवाही नहीं दिया करते 
क्योंकि 
यहाँ रिवाज़ नहीं है इनके स्वयं प्रगट होने का 
यहाँ ईश्वर हो या खुदा 
होते नहीं ....बनाए जाते हैं 
ये समझ आये उससे पहले जरूरी है 
ईश्वर का होना सुनिश्चित करना 
फिर उससे मुकम्मल इश्क के अफ़साने गढ़ने में माहिर है पूरी कौम ......


३ 
जब स्थापित कर दी जाती हैं मान्यताएं 
झुठलाने को चाहिए होते हैं पुख्ता सबूत 
फिर ईश्वर इस ब्रह्माण्ड का वो सबसे बड़ा झूठ है 
जिसे आदिकाल से गाया जा रहा है 
तो ऐसे में कैसे संभव है उसके खिलाफ मोर्चाबंदी ?

जरूरी होता है ऐसे में 
स्वयं के विवेक का परिक्षण 
आँख कान खुला रख 
वक्त की कसौटी पर कसना 
यूँ ही नहीं किया जा सकता उसे ख़ारिज 

सत्य के आलोक में सत्य को खोजने का सफ़र आसान नहीं होता 
जीवन दर्शन कहना और पढना बेहद आसान है 
मगर 
जीवन की कसौटियों पर खुद को कसते हुए 
अपने आप को गिरवीं रखते हुए 
जाने कितनी बार होते हो दिग्भ्रमित 
जाने कितनी बार गिरोगे 
फिर फिर कर उसी दलदल में 
जहाँ ईश्वर एक ऐसी मान्यता है 
एक ऐसी कसौटी है 
जिसके पैरोकार तुम्हें खदेड़कर ही दम लेंगे 
ऐसे में जरूरी है आत्मनियंत्रण 
ऐसे में जरूरी है खुद में विश्वास 

किसी भी प्रयोग को यूँ ही नहीं स्वीकारा जाता 
यहाँ बोध प्राप्त होने पर 
बेशक तुम  चाहे न गढ़ो नया ईश्वर 
लेकिन 
चलन है यहाँ तुम्हें ही ईश्वर बना देने का 
तुम्हारे बताये मार्ग पर चलने का कोई चलन नहीं 
मगर ईश्वर बनाने का चलन यहाँ बदस्तूर जारी है 
इसलिए सावधान 
जान लो जब इस सत्य को 
नहीं कहीं इस धरती का कोई ईश्वर 
नहीं कोई ब्रह्मांड बनाने वाला 
नहीं बताना किसी को 
बुद्ध स्वयं के लिए बनना ......जहान के लिए नहीं 

४ 
कितना आसान है 
ईश्वर बना लेना 
उसे पूज लेना 
उसके नाम पर घरबार छोड़ देना 
उसे ही धंधा बना लेना 
बैठे बैठाए मिल जाता है सारे जहान का सुख 
बैठे बिठाए बन जाते हो तुम परम भक्त 
और मुफ्त में बन जाती हैं तुम्हारी और तुम्हारे चमत्कारों की अनगिनत कहानियां 

तुम नहीं खड़े कर सकते प्रश्न उसके होने पर 
कर दिए जाओगे ख़ारिज 
फिर चाहे उसके नाम पर तुम्हारा ही दोहन क्यों न हो 
फिर चाहे  अबलाओं और बच्चियों को 
उसके मंदिर में ही क्यों न बलात्कृत किया जाए 
अब नहीं प्रगट होता वो 
जो द्रौपदी का चीर बढ़ा देता है 
जो नरसी भगत की हुंडी भर देता है 
जो प्रहलाद को हर मुश्किल से बचा लेता है 
जब भी उठाओगे तुम ये प्रश्न 
ईशनिंदा के जुर्म में हो जाओगे गुनहगार 
संभव है हो जाओ क़त्ल 
ओशो या सुकरात की तरह 

धंधेबाज नहीं चाहते आँख पर बंधी पट्टियों को खोलना 
यदि खोल देंगे तो कैसे संभव है 
उनकी बिछाई शतरंज पर मोहरों का विद्रोह 
तुम मोहरे हो जान जाओगे जिस दिन 
उसी दिन हो जायेगी बगावत ......जानते हैं वो 
इसलिए 
जानते हैं वो 
कैसे खेला जाता है इस शतरंज के खेल को 
जहाँ धर्म वो अफीम है 
जिसके नाम पर किये गए हर गुनाह को माफ़ कर दिया जाता है 


५ 
ईश्वर है या नहीं 
आज के दौर में प्रश्न ही नहीं बचा 
वो है 
सिद्ध किया जा चुका है इस तरह 
कि नकार के लिए 
तुम्हें बनाने पड़ेंगे नए ग्रन्थ 
सिद्ध करना पड़ेगा वैज्ञानिक पद्धति से 

मगर विज्ञान और धर्म में छत्तीस का आंकड़ा है 
जानते हो न ........

हम वो लोग हैं 
जो जिसे ईश्वर मान लेते हैं न 
उसके सौ गुनाह भी माफ़ कर देते हैं 
उसकी कमियों को नहीं 
उसके गुणों को ही देखा करते हैं 
फिर चाहे वो अपनी गर्भवती पत्नी को ही बिना किसी गुनाह के त्याग दे 
फिर चाहे वो प्रेम किसी से करे 
और जीवन अनगिनत पत्नियों संग गुजारे 
फिर चाहे वो खुद को सर्वेसर्वा सिद्ध करने के लिए 
महाभारत क्यों न करवा दे 
फिर चाहे उसका विश्वास इतना ही खंडित क्यों न हो 
कि अगर पत्नी ने दूजी का वेश भी धारण कर लिया तो उसका त्याग कर दे 
फिर चाहे अपनी जीत के लिए किसी की पत्नी की अस्मत ही क्यों न लूट ले 
फिर चाहे वो किसी को आगे बढ़ता न देख सके 
और बामन रूप धर उसका सब लूट ले 
हम सबको दरकिनार कर सकते हैं 
क्योंकि मान चुके हैं उसे अपना खुदा 
जहाँ उसके दोष भी उसके गुणों में परिवर्तित कर दिए जाते हैं 
अगले पिछले जन्मों का वास्ता देकर 
नयी कहानियां गढ़कर ....

कहानियां गढ़ 
बना देते हैं हम एक नया धर्म 
अपना धर्म 
और शुरू हो जाता है एक नया कारोबार 
बन जाता है एक नया ईश्वर 

यदि उठाओगे सवाल उसके अस्तित्व पर 
तो प्रतिप्रश्न किया जाएगा 
तुम्हें ही ठोक दिया जाएगा 

वो था है वो है और वो रहेगा का ढोल कितना ही जोर से बजाया जाए 
जानते हैं वो 
इस ढोल की चमड़ी कितनी मोटी है 
फाड़ना तो छोडो 
किसी औजार से काटना भी चाहोगे तो नहीं काट पाओगे 
ये खून में पैबस्त वो चरस है 
जिसकी गिरफ्त में हैं सम्पूर्ण मानवता 

तुम खींच सकते हो सिर्फ अपने लिए अपनी बनायीं अपनी एक लकीर 
दुनिया बदलने का ख्वाब देखना छोड़ दो 
ये दुनिया डर के शिकारे पर ही चला करती है 
और ईश्वर/धर्म से बड़ा इस दुनिया में दूसरा कोई  डर नहीं......मृत्यु भी नहीं 

६ 
ईश्वर एक बिजूका है 
जिसके डर से उड़ जाते हैं 
तुम्हारी आशंकाओं के पंछी 
जिसके होने मात्र की सम्भावना से 
हो जाते हो तुम सहज 
जिसे तुमने देखा नहीं उसे सहज स्वीकार लेते हो 
जिसे तुम आँखों से देख रहे हो 
उसे नकारते हो 
क्योंकि 
तुम जानते ही नहीं सच और झूठ के पलड़ों में संतुलन का काँटा कहाँ है 

तुम मानने वाली प्रजाति हो 
तुम मान लोगे उसके अस्तित्व को 
तुम मान लोगे अपने कर्मों का फल 
अगले पिछले जन्मों का 
यदि कितना भी तकलीफ में हों तुम 
लेकिन नहीं मानोगे उसकी सत्ता का न होना 
फिर चाहे कोई प्यासा तड़प तड़प कर दम ही क्यों न तोड़ दे 
फिर चाहे किसी की सारी दुनिया ही क्यों न उजड़ जाए 
और वो  तुम्हारे ईश्वर से   गुहार लगाते लगाते मर ही क्यों न जाए 
मगर उसे दया नहीं आएगी 
होगा तो आएगी न .....कहोगे जब भी, नकारे जाओगे 
उनके लिए कहना आसान होगा 
उसका न्याय है ये 
या कर्मों का फल 
और तुम जो उम्र भर उसके नाम की माला जपते रहे 
उसके लिए तुमने अपनों से भी मुंह मोड़ लिया हो 
उसके लिए तुमने जग से भी नाता तोड़ लिया हो 
तब भी तुम सताए जाते रहे हों 
तब भी चाहे तुम बीमारियों का घर क्यों न बन गए हों 
तब भी तुम्हारा पग पग पर अपमान होता रहा हो 
वो नहीं आएगा ......होगा तो आता कितना ही कहो 
वो नहीं स्वीकारेंगे तुम्हारी दलील 
क्योंकि 
यहाँ आंखन देखी पर यकीन नहीं 
यहाँ कानों सुनी और पढ़ी पर ही यकीन किया जाता है 
यहाँ पोथियों से ही खुदा को स्थापित किया गया है 
आँखों देखा सत्य हलक से नीचे नहीं उतरा करता है 
ऐसे में कैसे अपने ज्ञान की गंगा पहाड़ चढाओगे?
ये वो अंधे हैं 
जिनके आगे यदि इनका खुदा भी आ जाए तो उसका विश्वास नहीं करेंगे 
फिर सोचो तुम क्या हो ?
तुम्हारी सोच क्या है?
तुम्हारी हस्ती क्या है?

७ 
यहाँ कहानियां बनाने की खुली छूट है 
और राधा कृष्ण एक आसान टारगेट 
अब कोई उनमें प्रेम देखे या वासना 
सबका अपना दृष्टिकोण 

मगर 
धर्माचार्यों और भक्तों की मण्डली 
दे देती है उसे भी भक्ति का नाम 
जब राधा के अंग प्रत्यंगों का वर्णन 
खूब चाव के साथ वर्णित किया जाता है 
जिसे गोपनीय विषय कह सबके आगे न बखान किया जाता है 
जहाँ दोनों के मध्य रति प्रसंग भी बयां किये जाते हैं 
लेकिन उन्हें भी भक्ति और प्रेम का दिव्य रूप बताया जाता है 
आप प्रश्न नहीं उठा सकते 
यदि उठाएंगे 
तो आपमें आपके समर्पण भाव में कमी है कह, कर दिया जायेगा निष्कासित 

प्रश्न उठता है 
आखिर ये कैसा धर्म है 
जहाँ प्रिया प्रीतम कह 
उनमें वासना का खेल दर्शाया जाता है 
उस पर जवाब उनका आपको लाजवाब कर जाएगा 
जब ये कहा जायेगा 
उन्हें फलाने भक्त ने प्रगट किया है 
उनकी गोद में खेले हैं 
या उन्होंने भावों में साक्षात् दर्शन किये हैं 
या उन्होंने जो देखा वही लिखा है 
जबकि खेल तो ये सिर्फ भावों का होता है 
अब जाकी रही भावना जैसे प्रभु मूरत देखी तिन तैसी 
इन्हीं पर फिट बैठता है 
जहाँ किसी कारणवश गृहत्याग कर भी दिया हो 
तो भी मन की वासनाएं न खत्म हुआ करती हैं 
और वही इन रूपों में भी देखा करती हैं 
क्योंकि कहने वाला है तो आखिर इंसान ही न 
तो कैसे संभव है वो वासना से मुक्त हो जाए 
लेकिन जब भक्त और भगवान् की बात आएगी 
आप की हर दलील थोथी सिद्ध की जायेगी 
वहां तो बस उसे महान भक्त ही सिद्ध किया जाएगा 
रो रोकर उसका ही गुणगान किया जाएगा 
लेकिन तुम्हारा किया एक प्रश्न 
उसका उत्तर ही नहीं दिया जाएगा 

यदि वो भगवान् है तो उसमें वासना क्यों?
यदि वो भक्त है तो उसकी दृष्टि उन अंगों पर क्यों?
यदि वो भक्त है तो कल्पना में भी वासना का दर्शन क्यों?

इन प्रश्नों का न कहीं उत्तर मिलेगा 
क्योंकि 
कोई ईश्वर हो या उसका भक्त हो तो उत्तर मिले 
कसौटियां आपके लिए होती हैं ......धर्म का व्यापार करने वालों के लिए नहीं 

८ 
कसौटियां ज़िन्दगी की हो सकती हैं 
कसौटियां मौत की भी हो सकती हैं 
लेकिन जिस दिन कसोगे ईश्वर को किसी कसौटी पर 
धर्म के पैरोकार सेंक देंगे तुम्हें ही उलटे तवे पर 

उनके ईश्वर ने कहा 
आत्मा अजर अमर है 
आत्मा मरती नहीं, शरीर मरता है
और शरीर ही जन्म लिया करता है 
आपने मान लिया 
क्या की कोशिश जानने की 
आखिर ये आत्मा होती कैसी है?
क्या किसी ने देखी है?
जब शरीर ही मरता और जन्मता है 
तो उसमें आत्मा का क्या रोल?
और यदि आत्मा नहीं मरती या जन्मती 
तो फिर कैसे अगले शरीर में पहुँच जाती है 
और उसके दुःख सुख भोगती है?

जीवनी शक्ति से ये शरीर चलता है 
जो न किसी आत्मा द्वारा संचालित होता है 
मगर आत्मा और परमात्मा को जोड़ 
जो गणित रचा गया उससे न कोई निकल पाया 
एक ऐसी व्यूहरचना जिसे न कोई भेद पाया 
जबकि नश्वरता ही इस शरीर का मुख्य गुण है 
जन्मेगा तो मरेगा भी 
जैसे प्रकृति में पेड़ पौधे जीव जंतु 
पेड़ों पर पत्तियाँ भी अपनी उम्र पा झड़ जाती हैं 
ऐसा ही मानव जीवन होता है 
फिर कैसे उसे आत्मा से जोड़ा जा सकता है?

सीधे गणित को उलझाना ही उनका मकसद होता है 
यूँ धर्म का व्यापार रंग भरता है 
धंधेबाजों की जेबें गरम करता है 

तुम सोचो कैसे सिद्ध करोगे आत्मा और परमात्मा का न होना?








गुरुवार, 12 अक्तूबर 2023

एक टुकड़ा चाँद का

 

उदासी की रेत से घरौंदे नहीं बना करते और मैंने तो पूरा महल बना लिया था जिसके हर कोने में,  हर झरोखे में सिवाय स्याह काली रातों के कहीं कोई रौशनी का टुकड़ा भी था फिर कैसे मेरे मन की मछरिया छनकर आते प्रकाश में उछलने को लालायित होती जिसने जाना ही नहीं प्रकाश होता है क्या?

 

नहीं, यूं ही नहीं बुना ये ताना बाना, एक घडियाली आंसू जज्ब है मेरी आँख में, औरत के आंसू घडियाली ही तो होते हैं इस सच से भला कौन वाकिफ नहीं तो खुद को भी संबोधन दे दूं तो क्या फर्क पड़ेगा, अंततः कटना मुझे ही है इसलिए छील रही हूँ खुद को खुद ही...आखिर देखूं तो सही कितनी बाकि बची हूँ अभी मैं.

 

वेदना के पाँव में पड़ी प्रेम की जंजीरें करती रहीं मोहताज ता-उम्र और मैं अपनी उदासियों के बनाती रही महल फिर कैसे संभव था जिंदा रहना मुझमें मुझसा कुछ...अब तुम्हारे सारे उपकरण धराशायी हो जायेंगे मगर बुत भी कभी भला सांस लिया करते हैं

 

मत खोलो अब झरोखों को...

रौशनी की अभ्यस्त नहीं रहीं अब मेरी आँखें...

 

नहीं सिमी नहीं, बस और नहीं...बहुत सह चुकीं, चलो आ जाओ इस ओर जहाँ एक चुटकी मुस्कान प्रतीक्षारत है, जहाँ एक जहान की मुट्ठी में है तुम्हारा सारा आकाश, तुम्हारी सारी जमीन और तुम्हारी सारी इच्छाएं, चाहतें और ख्वाब.

 

नहीं जुनैद , कुछ प्रतीक्षाओं का कभी अंत नहीं होता...जाओ, लौट जाओ, वापस अपनी दुनिया में फिर किसी जन्म शायद मिलन हो हमारा.

 

सिमी, रुको, ठहरो ... रुदन के गर्भ से ही तो जन्मेगा अब हमारा भविष्य, तुम्हारी छाती पर उगी पीड़ा की खरपतवार को जब तक उखाड़ कर न फेंक दूं, तुम्हें रुकना ही होगा, नहीं पता किसी अगले जन्म के बारे में. मेरा वर्तमान हो तुम और तुम्हारा मैं...बस मुझे इतना ही पता है.

 

जुनैद  ज़िन्दगी सुईं की नोक सी ही तो है, देखो चुभती ही रही, नासूर बनाती ही रही मगर तिल भर भी क्या कभी हिली. ये दो बंजारों की टोली है, बस मिलना बिछड़ना भर है जीवन, तो क्या हुआ जो हम न मिले?

 

नहीं सिमी, हमारा मिलन शरीरों का नहीं है, तुम्हें पता है, जिस्म तो कब का ख़त्म हो चुका है तुम जानती हो न

 

हाँ जुनैद  जानती हूँ, मगर दुनिया नहीं जानती ये भी पता है न तुम्हें?

वो हमें हमेशा उसी नज़र से देखेंगे, उन्हें नहीं दिखेगी हमारी पवित्रता, उनके चश्मों पर सिर्फ वासना का पानी चढ़ा है तो कैसे संभव है वासना के चश्मे से गंगा की पवित्रता आंकना...नहीं जुनैद, बस अब नहीं बची मुझमे हिम्मत...बहुत घुटन, बेबसी, बेजारी झेल चुकी हूँ और कुछ झेलने को कहीं मुझमें मेरा होना भी तो जरूरी है न और देखो मैं कहाँ हूँ? अब तो मिटटी में भी दरारें दिखने लगी हैं, कैसे पाटोगे?

 

तुम चिंता मत करो सिमी, बस एक बार इस ओर आ जाओ, सारे बंधन तोड़कर, सिर्फ मेरी होकर.

 

क्या अब तुम्हारी नहीं हूँ?

 

तुम तो सदा से मेरी ही रही हो. ये तो बीच में दुनिया आ गयी वर्ना तुम मुझसे कभी दूर हुई ही नहीं.

 

तो फिर आज ये क्यों कहा सिर्फ मेरी होकर?

 

इसलिए, इस बार दुनिया, उसके रिवाज़, उसकी बेड़ियाँ सब तोड़कर आ जाओ, कुछ साँसें मुझे भी जीने की दे जाओ.

 

उम्र के इस पड़ाव पर आकर क्या करुँगी, रुस्वाइयां घेर लेंगी, बदनामी डंसने लगेगी, फिर हमारा प्रेम बदनाम हो जायेगा जुनैद ... दो बच्चों की माँ होकर ये कदम उठा लिया?

 

नहीं सिमी, सब जानते हैं तुम्हारा सच, मेरा सच, हमारा सच. ये तो बीच में अमावस ने कुछ साल हमें दूर रखा वरना चांदनी में तो हमें ही भीगना था.

 

प्रेम रुसवाई का कारण कभी नहीं बनता जुनैद  

 

हाँ सिमी, नहीं बनता, तभी तो क्या कभी बना रुसवाई का कारण मेरा प्रेम? प्रेम के भवनों पर तो हमेशा ही ज़माने की कडकडाती बिजलियाँ गिरी हैं और हम पर भी गिरी मगर अब, अब कोई लक्ष्मण रेखा नहीं है जिसे तुम लांघ न सको जब रुसवाइयों ने खुद तुम्हें उम्र कैद सुनाई है फिर कहाँ जाओगी अब?

 

मैं और मेरा इंतज़ार आज भी तुम्हारे घर की चौखट पर सजदा कर रहे हैं, केवल तुम्हारे बाहर निकलने भर की देर है...कर दो अब अपना भी तर्पण, झूठे बेबुनियाद रिश्तों के साथ. इनके लिए तुम केवल एक मोहरा भर ही रहीं. प्रयोग किया और फेंक दिया. क्या औचित्य ऐसे रिश्तों को ढ़ोकर जिनके लिए तुम्हारा अस्तित्व ही नहीं है, जिनके लिए तुम हर रुसवाई, बेवफाई को सह गयीं उन्हीं की नज़रों में तुम्हारे त्याग बलिदान की कोई अहमियत नहीं. किसके लिए खुद को फ़ना कर रही हो? वहाँ कौन है जो तुम्हारी मिटटी पर भी आंसू बहाए?

 

जब जानते हो सब तो ये भी जानते हो न, मिटटी में मिलने का समय आ गया है मेरा.

 

तभी कह रहा हूँ कम से कम सुकून से तो मिटटी नसीब हो तुम्हें. आ जाओ इस ओर, यहाँ भी सूरज निकलता है, सुबह होती है, पंछी चह्चहाते हैं, यहाँ भी आसमान नीला है और धरती धानी. बस नहीं है तो तुम्हारी पायलों की रुनझुन जिसके सदके में उम्र गुजारी है मैंने. आज जाओ न इस बार कभी न जाने के लिए. मैं, मेरी आस, मेरी रूह इक अरसे से बेचैन हैं तुम्हारी कसम की मर्यादा में बंधी. न न न, गिला नहीं है कोई, बस अब तुम्हारा ये हाल नहीं देखा जाता.

 

क्या हुआ, जाना तो सबको है ही एक दिन. अब जाने दो मुझे सुकून से. जब ज़िन्दगी गुजार ली बिना करवट बदले तो अब कैसे पीठ पर इलज़ाम लूं. दामन तो वैसे ही राख हो चुका है बस उस राख को अब गंगा में प्रवाहित होने दो कहीं ऐसा न हो राख भी रुसवा हो जाए.

 

नहीं सिमी, बस बहुत हुआ. आज यदि तुम नहीं मानी तो मुझे तोडनी होगी अपनी कसम और हाथ पकड़ कर ले आऊँगा इस बार इस ओर. वहाँ कौन है तेरा जो तुझे आवाज़ देगा, वहाँ किसे है तेरी जरूरत, अवांछित है तू फिर क्या फर्क पड़ता है कहाँ गयी और क्या हुआ तेरा... तो क्या ये आखिरी लम्हा भी नहीं दोगी मुझे, डाल दो ये भीख मेरी झोली में सिमी, शायद जिंदा हो जाऊं कुछ पलों के लिए वर्ना तो अब तक मेरी लाश को ही देखा है तुमने.

 

क्या होगा इससे जुनैद? जब उम्र गुजार दी तो कुछ पल और सही.

 

सिमी, तुमने कहा था जिस दिन मुक्त हो जाऊंगी बेड़ियों से, रिवाजों से तुम्हारी ही चौखट पर दस्तक दूँगी और मैंने उस दिन से पलकें नहीं झपकी हैं. कर दो न मेरे इंतज़ार को मुकम्मल, कहीं ऐसा न हो अगली सांस आने से इनकार कर दे और मैं अधूरी हसरत लिए कूच कर जाऊं.

 

नहीं, नहीं, ऐसा मत कहो जुनैद, अब तो ये भी नहीं कह सकती तुम्हें मेरी उम्र लग जाए.

 

किसके लिए जीयूं अब सिमी? जीने का कौन सा बहाना बचा है? तुम भी अपनी जिद पर अड़ी हो तो आज मैं भी अपनी जिद पर अड़ गया हूँ या तो तुम आ जाओ इस ओर, नहीं तो चलूँगा तुम संग, जहाँ तुम जाओगी, तुम्हारी छाया बनकर, तुम्हारा विश्वास बनकर, तुम्हारी उम्मीद बनकर.

 

बहुत जिद्दी हो गए हो जुनैद. इतने वक्त से किसी ने कान नहीं मरोड़े न तुम्हारे. लेकिन मैं थक चुकी हूँ जुनैद, सोना चाहती हूँ. मुझे अपनी गोद में सुला दोगे न. दे दोगे न मुझे एक टुकड़ा चाँद का जो सिर्फ मेरे हिस्से का है. आ रही है तुम्हारी सिमी तुम्हारी गोद में जुनैद. इस ज़माने के हर बंधन को तोड़कर. वैसे भी बंधन बचे कहाँ हैं? सभी तो किनारा कर गए. अब किसी के लिए मैं जिंदा हूँ भी या नहीं, किसी को फर्क नहीं पड़ता. कल मैं लापता भी हो जाऊं तो कोई पता करने नहीं आएगा. जो बंधन है मेरे मन का ही है शायद. तुम तो जानते ही हो न, बेटे को स्टेट्स गए अट्ठारह साल हो गए. पहले तो कुछ साल हाल चाल लेता भी रहा मगर अब तो पिछले पांच साल से कोई खैर खबर नहीं लेता. जानता है न, हाल पूछ लिया और माँ ने कहा, सेहत खराब है तो क्या जवाब देगा. और बेटी वो भी ऑस्ट्रेलिया में बसी है अपने परिवार के साथ. उससे भी कहाँ बात होती है. साल में एक आध फोन भर आ जाये तो गनीमत. सबने भुला दिया मुझे जुनैद, मगर जाने तुम किस मिटटी के बने हो, ज़िन्दगी गुजार दी एक इंतज़ार में. मेरा तुम्हारा आखिर रिश्ता ही क्या था?

 

बस तुम्हारा और मेरा ही तो रिश्ता था सिमी. जहाँ एक दूसरे से हमने कुछ नहीं चाहा. बचपन के रिश्ते जड़ों के रिश्ते होते हैं. तो क्या हुआ धर्म के बोझ तले दब गए लेकिन कुचले मसले नहीं गए. हम दोनों ने ही जिंदा रखी अपनी मोहब्बत अपने अपने सीने में, तभी तो जड़ें मज़बूत हैं और जानती हो सिमी, जो वृक्ष जड़ पकड़ लेते हैं किसी आंधी तूफ़ान में नहीं गिरते. सब सह लेते हैं. बस ऐसा ही है हमारा रिश्ता. एक दूजे के साथ भी हैं और एक दूजे के बिन भी. अब देखो न तुम्हारा पति रहा. न और कोई पास है. अब तो दे दो मुकाम मेरे इंतज़ार को. अब कौन सी जंजीर जकड़े है तुम्हें? इतने पहाड़ से घर में अकेली रहती हो. कुछ हो जाए तो किसी को पता भी न चले तुम जिंदा भी हो या नहीं. ऊपर से कोई देखभाल को नहीं.

 

हाँ, जुनैद, आज ऐसा लगता है जैसे एक निर्वासित जीवन जी रही हूँ. जैसे मिली हो उम्रकैद. जहाँ कोई नहीं जिससे दो घडी बतिया लूँ, सिवाय तुम्हारे. तुम हो न, तो यही लगता है, बची है इक आस, इक उम्मीद. ‘कोई है’ का अहसास उम्मीद के सिरहाने बैठा थपकी देता रहता है.

 

तो फिर आओ सिमी, आ जाओ इस ओर...वक्त के बेरहम नदियाँ, पर्वत, खाइयां सब हमारी ज़िन्दगी से दूर हो चुके हैं. अब तुम हो, मैं हूँ और हमारा पवित्र प्रेम है. जानती हो न प्रेम पवित्र कब होता है? जब वो विरह की आंच पर तपता है और आज हम अपने पवित्र प्रेम को मुकाम दें.

 

हाँ, जानती हूँ...और जानते हो...वो प्रेम तुमने किया है.

 

तो फिर देर किस बात की? कब आ रही हो?

 

मैं तो कब की आ चुकी हूँ जुनैद. ज़रा मुड़कर देखो. और दोनों ने फिर मोबाइल को एक तरफ रख दिया.

 

आह! सिमी....आज मेरा जीना सार्थक हो गया. आज जैसे मुझे मेरा हिस्सा मिल गया, आज जैसे मैं पूरी ज़िन्दगी जी गया. आओ, बैठो, ज़रा कुछ देर निहार लूं अपने चाँद को, जो आज मुझे पूरा मिला है. इससे पहले तो सिर्फ और सिर्फ एक दीवार थी जिसके उस तरफ तुम और इस तरफ मैं. हमेशा अधूरी हसरतों का जिंदा ताजमहल बन गुजारते रहे जीवन...

 

हाँ, जुनैद , बहुत थक गयी हूँ मैं. बस अब और नहीं. यूँ लग रहा है जैसे अब इस रात की कोई सुबह न हो. बस तुम्हारी गोद में सर रखकर एक भरपूर नींद ले लूँ.

 

आओ मेरी गोद में रखो सिर सिमी, मैं सहला दूं, भुला सको तुम उम्र भर का जेहनी सितम. पा सको कुछ पल का सुकून तो शायद मुझे भी सुकून मिल सके. मैं भी खुद को तसल्ली दे सकूँ, कुछ काम आ सका तुम्हारे...ये रात तारों की छाँव तले छत पर अपने-अपने चाँद को निहारते हुए आओ बिताएं...मेरी थपकियाँ तुम्हें लोरी सुनाएँ और तुम्हारी रूह को करार आ जाए...और थपकी देते हुए जुनैद की बांह एक ओर को लुढ़क गयी और सिमी की निगाह में आखिरी हसरत सी जुनैद की तस्वीर हमेशा के लिए ठहर गयी.

 

इस बेदर्द दुनिया से दूर, जहाँ था उनका आस्मां उनके इंतज़ार में, लेने को अपने हिस्से का एक टुकड़ा चाँद का, पंछी उड़ान भर चुके थे...




 

कहानी - प्रतिष्ठित 'पुरवाई' पत्रिका में कहानी "एक टुकड़ा चाँद" का प्रकाशित हुई है।

लिंक : https://www.thepurvai.com/story-by-vandana-gupta-2/?fbclid=IwAR1_KFNMfms7Ga5ItLaLZWir9Mfpu4mosDnuiLgj_1YNgjhpG5E5THtoOH4


१० सितम्बर २०२३ के नवभारत में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के सभी संस्करणों में कहानी 'एक टुकड़ा चाँद का' प्रकाशित हुई है।