देह का गणित
“छोड़ दो मुझे, जाने दो, मरने दो मुझे.......मैं जीना नहीं चाहती, अरे मरने तो दो, क्या रखा है मेरे जीवन में अब? छोड़ क्यों नहीं देते” कहते कहते उसने अपना सर सीखचों पर पटकना शुरू कर दिया. बुरी तरह चीख चिल्लाये
जा रही थी और खुद को लहूलुहान कर रही थी तभी कुछ नर्सेज ने उसके सेल का दरवाज़ा
खोला और उसे जबरदस्ती सींखचों से उसके बैड की तरफ घसीटना शुरू किया. एक दो के तो
हाथ में भी नहीं आ रही थी, उछल उछल जा रही थी. सबको धक्का मार रही थी . तब तीन चार नर्स आयीं और वार्ड
बॉय आया. सबने मिलकर जबरदस्ती उसे बिस्तर पर लिटाया और एक डॉक्टर ने आकर उसे
इंजेक्शन देते हुए नर्स को हिदायत दी, “इसके पास किसी न किसी को रखो. ये बहुत वायलेंट
हो जाती है और इस अवस्था में कुछ भी कर सकती है” डॉक्टर ने इंजेक्शन दिया और अपने केबिन में आ गयी और सोच में डूब गयी.
‘पेशेंट तो बहुत देखे और ठीक भी किये लेकिन ऐसा केस पहली बार आया है जिसका कहीं
कोई हल नहीं. आखिर इसे कैसे ठीक किया जाए?’ सोचते सोचते परेशान हो उठी डॉ रिया. किसी काम
में दिल ही नहीं लगा तो फिर उसने अपना फ़ोन उठाया और अपनी दोस्त डॉ शालिनी को फ़ोन
मिला दिया ये सोच शायद उससे बात कर खुद को कुछ हल्का कर सके.
“हैलो शालिनी”
“ओ हाय रिया, कैसी हो”
“यार ठीक ही हूँ”
“मतलब”
“अरे हम डॉक्टर्स की भी क्या कोई लाइफ होती है. एक से एक क्रिटिकल केस आता है.
उस पर हम ठहरे पागलों के डॉ तो सोच लो क्या हाल होता होगा. कभी कभी तो लगता है
जैसे एक दिन हम खुद भी पागल हो जायेंगे. तुम तो समस्याओं का कॉलम लिखती हो तो सोचा
तुमसे ही कोई समाधान पूछा जाए इस बार, शायद कोई हल हमें मिल जाए”
“अरे ये कैसी बात कर रही है? सब ठीक तो है? किस केस ने नींद उड़ा रखी थी?”
“तुम समझ गयीं मेरी तकलीफ. यार एक औरत का केस है. एक अनहोनी घटित हुई है और
उसकी जिम्मेदार भी वो खुद है. अब जब उसे झेल नहीं पायी तो कहीं न कहीं बॉडी पर
अटैक तो होता ही है. उसके दिमाग पर हो गया है”
“लेकिन ऐसी क्या अनहोनी हो गयी”
“बस यही तो ट्रेजेडी है. जिसे हमें सोचकर भी उबकाई आ जाए, ऐसा हुआ है. मुझे कभी उस पर दया आती है तो कभी क्रोध. जब उसकी ये हालत देखती
हूँ तो दया आती है और जब उसने जो किया वो सोचती हूँ तो गुस्से से सर भन्ना जाता है”
“कुछ बता तो सही, ऐसा क्या हो गया”
और जो डॉ रिया ने बताया उसे सुन डॉ शालिनी सकते
में आ गयीं. उनके सामने चलचित्र की भांति सारा घटनाक्रम आ गया जिससे कुछ सालों
पहले वो गुजरी थीं. उन्होंने नहीं सोचा था ऐसा भी हो सकता है उसके साथ. लेकिन वो
हुआ. तब उन्होंने डॉ रिया को बताया और कहा, “गुजरी थी मैं भी एक बार ऐसे ही ट्रामा से. जाने
क्यों मुझे लगता है ये कहीं वही केस तो नहीं? ऐसा एक केस मेरे पास भी आया था और मुझे लगता है ये कहीं वही औरत तो नहीं. कहीं
उसी गिल्ट के कारण ही तो वो अपना मानसिक संतुलन नहीं खो बैठी.”
“यानि?”
“यानि ये तुम्हारी बातें उसी की तस्दीक कर रही हैं” कह डॉ शालिनी को याद आ गया वो दिन. डॉ शालिनी उस दिन की स्मृतियों में खो गयीं
....
डॉ शालिनी की ऊँगलियाँ कंप्यूटर पर फटाफट चल रही
थीं. जैसे सामने दृश्य हो और वो उसे टंकित करती जा रही हों. एक पल के लिए भी
ऊंगलियों को साँस नहीं लेने दे रही थीं, जाने क्या जल्दी थी. डूबी हुई थीं अपने लेखन
में. आस पास क्या हो रहा है, कौन आ जा रहा है, उन्हें होश ही न था. यहाँ तक कि कब डोर बेल बजी और मेड ने दरवाज़ा खोला, उन्हें पता ही न चला. कब डॉ निशा उनके पीछे आकर खड़ी हुईं और उनका लिखा पढने
लगीं, इसका भी उन्हें पता न चला. इतनी तन्मयता देख उन्होंने भी शालिनी को डिस्टर्ब
करना उचित न समझा. चुपचाप उनका लिखा पढ़ती रहीं तो आश्चर्य से उनकी आँखें फटी जा
रही थीं. ‘ये आखिर शालिनी लिख क्या रही है. ऐसा होना कहाँ संभव है? क्या सिर्फ अपने लेखन को ऊँचाई पर पहुँचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकती हैं
वो? लेकिन वो तो डॉक्टर हैं बिना किसी कारण के ऐसा अनैतिक कार्य नहीं करेंगी. जरूर
कुछ न कुछ ऐसा है जिसने उन्हें इतना उद्वेलित किया हुआ है जो आज वो अपने लेखन के
माध्यम से उतार खुद को हल्का करना चाह रही हैं. क्या मैं नहीं जानती वो कितनी
संवेदनशील हैं? पता नहीं कैसे डॉक्टरी के पेशे में आ गयीं? इन्हें तो वाकई लेखिका होना चाहिए था. लेकिन हैं तो सही लेखिका भी. अपने लिए
इतने बिजी शिड्यूल में से वक्त निकालना कोई आसान नहीं होता.’ डॉ निशा अपने ही ख्यालों में गुम सोचे जा रही थीं. आँख के सामने से कंप्यूटर
पर वो क्या लिख रही हैं आगे, सब गायब हो गया. बस अपने ही ख्याल झकझोरते रहे.
तभी डॉ शालिनी ने गहरी साँस लेकर जैसे ही हाथ को झटका, डॉ निशा को मौका मिल गया और उन्होंने डॉ शालिनी को संबोधित किया.
“हैलो, डॉ शालिनी, हम कब से आपके पीछे खड़े हैं और एक आप हैं कि अपने प्रेम में ही गुम हैं” छेड़ते हुए डॉ निशा ने कहा तो चौंक उठी डॉ शालिनी और मुड़कर पीछे देखा तो डॉ
निशा को देख उनकी सारी थकान, सारा मानसिक दबाव जैसे काफूर हो गया और वो खिले
गुलाब सी खिलखिला उठीं.
“ओह! डॉ निशा जी, क्या करें जब मोहब्बत हो जाती है फिर वो अपने से बाहर कहाँ आने देती है. ये वो
शय है जो खुद से विमुख होते देख अपने प्रेमी को जलन के मारे भुनभुना उठती है” उसी अंदाज़ में छेड़ते हुए डॉ शालिनी ने जवाब दिया तो डॉ निशा एकदम भड़क कर बोलीं, “ओये शालिनी की बच्ची, मैं निशा जी कब से हो गयी?”
“जब से मैं ‘डॉ शालिनी और आप’ हो गयी” मुस्कुराते हुए डॉ शालिनी ने जवाब दिया तो दोनों मुस्कुराए बिना न रह सकीं.
शालिनी और निशा दोनों बचपन की सहेलियाँ थीं. साथ-साथ ही दोनों गायनोलोजिस्ट बनी.
दोनों ने मिलकर एक नर्सिंग होम खोला और अब दोनों एक साथ उसे चला रही थीं. शालिनी
थोडा बहुत लेखन भी करती रहती थी और कई पत्रिकाओं में ‘स्त्रियों की समस्या’ नाम से कॉलम में स्त्रियों की समस्या भी सुलझाती थीं. आज जो वो लिख रही थीं
उसे पढ़ निशा का आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक था क्योंकि वो इतना तो समझ गयी थी कि
जरूर कोई समस्या उसके सामने ऐसी आई है तभी आज वो इतनी उद्वेलित है. अक्सर जब भी
कुछ अनहोनी वो देखती, पढ़ती या सुनती वो इसी तरह परेशान हो उठती. इसी तरह अपने लेखन के माध्यम से
उतारती. निशा इस बात को अच्छे से जानती थी लेकिन इस बार जो उसने पढ़ा उसके रौंगटे
खड़े कर गया. अपनी उत्सुकता को वो दबा न सकी और शालिनी से पूछ ही बैठी ताकि खुद को
उसी की तरह उस समस्या से मुक्त कर सके.
“अच्छा, ये बता शालिनी, आज क्या हुआ है? क्यों तू इतनी परेशान है? और ये क्या लिख रही है? ऐसा होना कहाँ संभव है? मुझे सब बता. ये तेरी कहानी का कोई पात्र है या सच में ऐसा हुआ है? वैसे हमारे समाज में अभी इतनी गिरावट नहीं आई है, इतना तो जानती ही हूँ. वहीं हैरान हूँ, तू कैसे ये सब लिख या सोच सकती है? मैं सोच-सोच के ही पागल हो रही हूँ.” निशा ने व्यग्रता से अपनी बात रखी.
लम्बी ऊंसांस छोड़ते हुए शालिनी ने कहा, “निशा, बैठ, जरा एक कप चाय पी लें. मेरा सर दर्द से फटा जा रहा है. तू इतना सा पढ़कर इतनी
बेचैन हो रही है तो सोच मैं किस दौर से गुजरी होऊँगी?”
“समझ रही हूँ” गर्दन आगे की तरफ हिलाते हुए निशा ने उसकी दशा का अनुमान लगाते हुए कहा.
“माया, ज़रा दो कप चाय तो दे जाना” कह शालिनी गहरी सोच में डूब गयी. शायद अभी तक वो
उस फेज से पूरी तरह वापस नहीं आई थी लेकिन निशा की चुहल ने उसे थोडा हल्का जरूर कर
दिया था.
माया चाय और बिस्कुट टेबल पर रख गई. दोनों ने कप
उठाया और चुस्की भरने लगीं. एक चुप दोनों के बीच व्याप्त थी. निशा भी चुप थी.
इंतज़ार कर रही थी जब शालिनी खुद को ठीक महसूस करे और सब बताये. चाय ख़त्म कर शालिनी
बेड पर आ गयी और निशा भी उसके पास आ गयी और अधलेटी हो गयी. खुद को सहज और संयत
किया तब शालिनी ने कहना शुरू किया.
“निशा, महज कहानी के लिए किसी भी मर्यादा को ताक पर नहीं रखा जाता. और जहाँ विषय इतना
नाज़ुक हो वहाँ तो संभव ही नहीं. क्या तू मेरे बारे में ऐसा सोचती है कि सिर्फ
कहानी गढ़ने के लिए मैं इस हद तक चली जाऊँगी?” गंभीर नज़रों से निशा को देखते हुए शालिनी बोली
तो निशा ने कहा, “बात ये नहीं है शालिनी, आज कुछ भी लोग लिखने लगे हैं. ऐसे में कब हमारी सोच भी इतनी कुंठित हो जाए और
हम उन्हें ताक पर रख दें, कह नहीं सकते. जहाँ तक तेरा सवाल है, मुझे पता है, तू उनमें से नहीं है. फिर भी जाने क्यूँ ऐसा लगा जैसे कोई कहानी का हिस्सा हो
वो टुकड़ा, तो कह दिया”
“हाँ निशा, है तो किसी की कहानी का टुकड़ा ही, लेकिन कितना वीभत्स है, ये कोई सोच भी नहीं सकता. जानती है निशा, ज़िन्दगी भी तो एक कहानी है कोई टॉप तो कोई
फ्लॉप. जब फ्लॉप का लेबल किसी कहानी पर लगता है तो बेशक वो बिकाऊ नहीं रहती लेकिन
कहानी तो उसमें भी होती ही है. तुझे पता ही है मैं स्त्रियों की समस्या का कॉलम
लिखती हूँ तो जानती हूँ यहाँ हर जगह एक नयी कहानी बिखरी होती है. बेशक हम लोगों की
समस्याएं सुनते हैं लेकिन कितना इनसे त्रस्त हो जाते हैं कोई सोच भी नहीं सकता.
जैसा ये केस आया है इसने तो मेरी सोच की सारी चूलें ही हिला दी. और समस्यायों का
तो हल फिर भी दे देती हूँ और थोड़ी देर बाद खुद को समस्याओं से मुक्त कर लेती हूँ.
मगर इस बार जो हुआ उसने मुझे बहुत ही व्यथित कर दिया” निशा बिना टोके चुपचाप सुन रही थी. बीच में रुक गयी शालिनी और एक शून्य में खो
गयी. इस पसरे हुए शून्य में अनगिनत प्रश्न और जिज्ञासाओं ने निशा के आस-पास एक
वृत्त बना लिया. निशा एक अच्छे स्टूडेंट की तरह अपने ख्यालों को दरकिनार करते हुए
चुप रही. कब शालिनी फिर कुछ कहे, इंतज़ार करती रही. कुछ पलों बाद फिर शालिनी अपने
शून्य से बाहर आई मानो खुद से ही कोई जद्दोजहद कर रही हो. खुद को संयत करते हुए, गहरी साँस भरते हुए फिर शालिनी ने कहना जारी रखा.
“हमेशा की तरह इस बार भी मेरे पास समस्या आई. मैंने जब उसे पढ़ा तो हिल गयी
इसलिए पहले तो बहुत गुस्सा आया मगर फिर लगा नहीं गुस्सा हल नहीं. शायद मानव शरीर
है ही ऐसा जिसे भूख प्यास सब लगती है फिर वो भूख शरीर की ही क्यों न हो. फिर वो
स्त्री हो या पुरुष. खासतौर से वो स्त्री और पुरुष जो एक लम्बे अरसे के बाद संपर्क
में आते हैं वो संयम नहीं रख पाते. नैतिक अनैतिक की परिभाषा सब वहाँ तिरोहित हो
जाती हैं. मनुष्य को ये शरीर ऐसा मिला है जो जब तक संयम में रहता है तब तक तो कहीं
कोई समस्या होती ही नहीं. लेकिन जब अपना संयम खोता है तब यही होता है जहाँ रिश्तों
की मर्यादा भी छिन्न-भिन्न हो जाती हैं. अब तक और सब तो देखी सुनी लेकिन ये पहली
बार है जब ऐसा पढ़ा. मैं तो ये सोचकर हतप्रभ हूँ आखिर कितनी हिम्मत की होगी उसने ये
सब खुलेआम कहने की. कितनी मौत मरी होगी और शायद रोज ही एक-एक पल में कितनी मौतें
वो मरती होगी. शायद ही कोई स्त्री इतना साहस कर सके” कहते-कहते शालिनी एक बार फिर चुप हो गयी. शालिनी का कहा एक-एक शब्द निशा ध्यान
से सुन रही थी और समझ रही थी उसकी मनः स्थिति, आखिर वो खुद एक टुकड़ा पढ़कर ही व्यथित हो गयी तो शालिनी ने तो पूरी दास्तान पढ़ी
है.
“जानती है निशा, मर्यादा शब्द यहाँ कितना खोखला प्रतीत हो रहा है. उफ़!” गहरी साँस भरते हुए शालिनी ने बात जारी रखी. उस दिन जब मैंने उसकी समस्या पढ़ी
तो जब शांत होकर सोचा तो दिल हुआ एक बार उससे मिल लूँ. उससे बात करूँ, लेकिन पत्रिकाओं के नियमानुसार ये सब संभव नहीं था. वैसे भी यदि उससे मिलती तो
शायद वो बहुत शर्मिंदा हो जाती, ये भी सोचा. या शायद मिलती ही नहीं. फिर ऐसी
समस्या में जरूरी नहीं उसने अपना सही नाम या पता दिया ही हो? जैसी समस्या उसकी है ऐसी आज तक मेरी निगाह से तो गुजरी ही नहीं बल्कि कहीं ऐसा
सुना भी नहीं. यहाँ तो मर्यादा के हनन के साथ ताक पर रख दिया गया था रिश्ता भी.
कहते-कहते एक बार फिर शालिनी चुप हो गयी. गहरी साँस भर जैसे सोच रही हो कहाँ से
शुरू करे.
किसी
तरह फिर खुद को संयत किया और बोलीं अब बताती हूँ तुझे उसने क्या लिखा था – ‘नमस्कार डॉक्टर साहब, क्योंकि ये महिलाओं की पत्रिका है और आप भी महिला हैं इसलिए हिम्मत कर पा रही
हूँ वो सब लिखने की जिसे पढ़कर शायद आप मुझसे घृणा ही करने लगें. मुझे दुत्कारें और
मेरी समस्या का शायद एक ही हल कहें कि तुम डूब क्यों नहीं मरीं. लेकिन यकीन मानिए
मैं बुरा नहीं मानूँगी क्योंकि जानती हूँ जो हुआ गलत हुआ, नहीं, गलत नहीं, बहुत गलत हुआ, बल्कि कहिये गुनाह ही किया. शायद उसके बाद दुनिया के हर रिश्ते से ही मनुष्यता
का विश्वास उठ जाए. मगर आप मेरी सारी स्थिति को ध्यान में रखकर शांत दिमाग से
सोचना फिर बताना मैं अब क्या करूँ?’ इतना पढ़ते-पढ़ते भी मैं निश्चिन्त थी क्योंकि
अक्सर थोडा उन्नीस-इक्कीस ऐसे ही सब लिखते हैं. सबको अपनी ही समस्या दुनिया में
सबसे बड़ी लगती है. मेरी सोच से परे जिस सत्य को उसने उजागर किया वो वाकई
हृदयविदारक था.
आगे उसने लिखा:
‘डॉक्टर साहब, मैं एक पढ़ी लिखी नौकरीपेशा लड़की थी. प्राइवेट नौकरी करती थी. अच्छी तनख्वाह
थी. आम लड़कियों जैसे ही मेरे भी ख्वाब थे. एक अच्छे सुसंस्कृत जीवन साथी की इच्छा, जो मुझे भी समझे और बराबर का इंसान माने, मेरी भी थी. मेरी किस्मत अच्छी थी मुझे नीरज
मिले. जो सरकारी विभाग में इंजीनियर थे. एक लड़की को जो चाहिए होता है वो सब मुझे
मिला. मेरी खुशियों का ठिकाना न था. मेरा एक पाँव जमीन पर तो एक आसमान में पड़ता.
हम दोनों दो पंछियों से जीवन के आकाश में उन्मुक्त विचरण कर रहे थे. तभी मेरे बेटे
ने जन्म ले हमारे रिश्ते को और स्थायित्वता प्रदान कर दी. अब हम दोनों पूर्ण हो गए
थे. समय अपनी गति से गतिमान था. मगर समय की नज़र कब टेढ़ी हो जाए कौन जानता है. ऐसा ही
मेरे साथ हुआ जब मेरा बेटा राहुल सात साल का हुआ तब नीरज का साया उसके सिर से उठ
गया. मैं तो जैसे बेसहारा ही हो गयी. इस अचानक हुए हादसे ने मुझे सुन्न कर दिया.
एक साल बाद रिश्तेदारों ने मुझ पर दूसरी शादी का दबाव बनाया लेकिन मुझे नीरज ने
इतने सालों में वो सब दे दिया था कि उनकी यादों के सहारे ही पूरी ज़िन्दगी गुजार
सकती थी. मैंने सबका विरोध करते हुए अपने बेटे के साथ जीवनयापन का सोचा. अब राहुल
ही मेरी पूरी दुनिया बन गया. उसको सबसे पहले डे केयर स्कूल में डाला ताकि मेरा और
उसका दोनों का समय एकसाथ घर पहुँचने का हो. इस तरह उसे कभी अकेलेपन का अहसास नहीं
हुआ. वो जब घर आता मैं घर में मिलती. और सुबह भी साथ ही निकलते. राहुल में मेरी
पूरी दुनिया समाई थी. पिता को खोने का दुःख उसे भी था. वो सहम गया था इसलिए अपने
कमरे में न सोकर मेरे साथ चिपट कर गले में बाहें डाल सोता और मेरे लिए भी अब अकेले
सोना संभव न था. नीरज की यादें अकेले में और सतातीं. हम दोनों माँ बेटा ही
एक-दूसरे की पूरी दुनिया बन चुके थे. मैंने कभी राहुल को पिता की कमी न महसूस होने
दी. जो उसकी डिमांड होती वो पूरी करती. सास ससुर थे नहीं तो वैसी भी कोई
जिम्मेदारी नहीं थी. एक ननद थी तो वो भी दूर ब्याही हुई थी तो सालों में आना होता
था. बाकि मेरे माता पिता और भाई बहन कभी-कभार आते थे. सबकी अपनी ज़िन्दगी थी उसी
में सब बिजी हो गए थे. एक ढर्रे पर हमारा जीवन चलने लगा था.
धीरे-धीरे राहुल बड़ा होने लगा. अब वो एक 22 साल
का नौजवान हो गया था. उसकी जॉब भी लग गयी थी. मैं काफी हद तक निश्चिन्त हो चुकी
थी. लेकिन अब भी वो मेरे साथ ही सोता. एक रात उसकी ऊँगलियाँ मेरी नाभि के अन्दर
घूम रही थीं तो मेरी आँख खुली. मैं सकते में आ गयी, कुछ समझ नहीं आया कैसे रियेक्ट करूँ इसलिए दम साधे पड़ी रही चुपचाप. जवान बेटे
को क्या कहूँ कुछ समझ नहीं आया. अगले दिन वो चुपचाप अपने काम पर निकल गया और मैं
भी. जैसे कुछ हुआ ही न हो. उसके फिर दो तीन दिन बाद यही दोहराया और धीरे-धीरे
रेंगते रेंगते उसका हाथ मेरे वक्षस्थल तक पहुँच गया. एक बार फिर मैं चुप पड़ी थी, किंकर्तव्यविमूढ़ सी, लेकिन यहाँ मैं आपसे छुपाऊँगी नहीं एक सत्य कि उसका स्पर्श शायद मुझे अच्छा भी
लग रहा था. एक बेहद लम्बे अरसे बाद किसी मर्द के हाथ ने एक औरत के शरीर को छुआ था
तो जो चाहतें अब तक दबी हुई थीं जाने कहाँ से सक्रिय हो उठीं. फिर भी मैंने
कुनमुनाते हुए उसका हाथ हटाया और करवट ले ली जैसे मुझे पता ही न हो उसकी इस हरकत
का. वैसे भी वो नहीं समझ रहा था तो मुझे समझना जरूरी था और ये काम इस तरह करना था
ताकि हम एक दूसरे के आगे शर्मिंदा भी न हों. अगले कुछ दिन उसने मुझसे ज्यादा बात न
की. और मैंने भी उसे कुछ नहीं कहा क्योंकि मुझे लग रहा था शायद ये उसकी उम्र का
तकाजा है. एक दो जान पहचान की औरतों से अक्सर बातों में सुनी थी ये भी बात कि जवान
होते लड़के अक्सर ऐसा करते हैं फिर साथ में सोने वाली माँ हो बहन या कोई और. तो
सोचा अब मुझे ऐसा कदम उठाना होगा जिससे उसकी ये हरकत कोई गलत रूप न ले ले. उससे
बात भी करनी थी लेकिन इस ढंग से कि उसे पता भी न चले कि मुझे उसकी हरकत का पता है
और वो शर्मिंदा हो और हल भी निकल आये इसलिए दो चार दिन बाद मैंने उसे कहा, “राहुल, अब तू बड़ा हो गया है. कल को तेरी शादी होगी इसलिए अब तू अलग कमरे में सोया कर” लेकिन वो नहीं माना और बोला, “क्यों ममा, क्या हो गया? मुझे अकेले सोने की आदत नहीं है. मैं आपके बिना एक पल भी नहीं सो सकता. आप
जानती हो न. जब शादी होगी तब की तब सोचूँगा. फिलहाल मैं आपसे अलग नहीं रह सकता.”
“राहुल, ये सही नहीं है. किसी को पता चलेगा तो क्या सोचेगा? इतनी बड़ी उम्र के लड़के माँ के साथ नहीं सोया करते”
“ममा, मुझे किसी की परवाह नहीं और इस बारे में आगे बहस मत करना वर्ना मैं घर छोड़कर
चला जाऊँगा या कहीं मर खप जाऊँगा” सुन मैं सहम उठी और चुप कर गयी क्योंकि मेरी तो
सारी दुनिया ही मेरा बेटा था. अब वो धमकी थी या उसके अन्दर के पुरुष का विज्ञान, मैं नहीं समझ पाई क्योंकि मैं सिर्फ माँ थी जिसकी सारी दुनिया उसका बेटा था.
लेकिन उसके बाद मैं संभलकर सोती. अक्सर नींद भी
पूरी नहीं होती. जब 15 दिन तक कोई हरकत उसकी तरफ से नहीं हुई तो मैं थोड़ी
निश्चिन्त हो गयी और बेफिक्री से सोने लगी. लेकिन यही बेफिक्री मुझे भारी पड़ी. एक
रात जब मैं गहरी नींद में थी उसने वो ही प्रक्रिया दोहराते-दोहराते मेरे ब्लाउज के
बटन खोल दिए तब मेरी आँख खुली और मैं सहम उठी अन्दर ही अन्दर. ये राहुल को क्या हो
रहा है? अब मैं क्या करूँ? कैसे इसे रोकूँ? क्या इसे रोकूँगी या कुछ कहूँगी तो ये मान जाएगा? इसे अभी डाँटने फटकारने से क्या ये मान जायेगा या फिर मुझे हमेशा को छोड़ कर
चला जायेगा? अगर चला गया तो कैसे जीयूँगी उसके बिना? हे भगवान्! अब मैं क्या करूँ? कैसे इसे समझाऊँ? यदि अनहोनी घट गयी तो क्या हमारा रिश्ता फिर सहज रह पायेगा? लेकिन माँ बेटे का सबसे पवित्र रिश्ता आज पंगु हो गया था. मैं अभी इसी सोच में
घिरी थी कैसे प्रतिकार करूँ कि रिश्ता भी बचा रहे और वो शर्मिंदा भी न हो कि उसने
धीरे से मेरे उरोज अपने मुंह में ले लिए और उसके हाथ मेरे अन्तरंग अंगों को सहलाने
लगे, मैं सोच ही न पाई सही और गलत, सोच को जैसे लकवा मार गया था. एक सुन्नपन ने जकड
लिया था. शरीर के प्रत्येक अंग से पसीना निकलने लगा. प्रतिरोधात्मक शक्ति ने जैसे
हथियार डाल दिए थे. शायद उस वक्त एक माँ मर गयी थी और एक स्त्री देह जाग गयी थी.
वहीं शायद कहीं न कहीं मैं कमज़ोर हो गयी थी. फिर भी मैंने हल्का प्रतिरोध किया और
उसे परे हटाना चाहा मगर उसकी मजबूत पकड़ से छुट नहीं पायी या फिर शायद स्त्री देह
छूटना नहीं चाहती थी. फिर वो घटित हो गया जो नहीं होना चाहिए था. एक घृणित सम्बन्ध
ने पाँव पसार लिए थे.
अगले दिन हम दोनों ही एक दूसरे से कतराते रहे. न
कोई बात की न नज़र मिलाई. शायद आत्मग्लानि दोनों तरफ थी. लेकिन उसके महीने भर बाद
फिर वही प्रक्रिया दोहराई गयी. और इस तरह हमारे बीच संसार का सबसे घृणित सम्बन्ध
कायम हो गया. जिसमें अब वो मेरे साथ जबरदस्ती भी करने लगा. मैं मना करती तो भी न मानता.
अब तक वो मेरे साथ 3-4 बार ये घृणित सम्बन्ध बना चुका. जाने मुझे भी क्या हो गया, मैंने भी सही और गलत को ताक पर रख दिया या फिर शायद मैं अन्दर से डरती थी यदि
कुछ कहा तो मुझे छोड़ कर चला जाएगा. फिर मैं उसके बिना कैसे जी पाऊँगी? मेरे जीने का मकसद ही मेरा बेटा था, ऐसे में उसे मैं किसी भी कीमत पर नाराज नहीं कर
सकती थी तो दूसरी तरफ ये सम्बन्ध मुझे ग्लानि से भरे दे रहा था. कोई रास्ता नहीं
सूझ रहा था. न उसे हाँ कर सकती थी न ही न. मुझे नहीं पता मैं आखिर चाहती क्या थी.
मैंने इस बारे में अब तो बात भी करनी चाही उससे लेकिन वो मेरी सुनता ही नहीं.
इधर मैंने उसके लिए लड़की देखनी शुरू कर दी. मुझे
लगा ये उसकी उम्र का तकाजा है और मुझे उसे सही राह पर लाने के लिए ये कदम उठाना ही
होगा. मैं अपनी तरफ से कोशिशों में लगी थी लेकिन मुझे नहीं पता था उसके मन में
क्या खिचड़ी पक रही है. हमारा संवाद खत्म हो चुका था. कुछ कहना होता तो सिर्फ कागज़
पर लिख टेबल पर रख देते. बल्कि यहाँ तक होने लगा कि हमने एक दूसरे के सामने आना ही
बंद कर दिया था. वो सो रहा होता तब मैं उठकर नाश्ता बना देती और उसका लंच पैक कर
देती. फिर मैं मंदिर चली जाती तब वो उठकर तैयार होकर ऑफिस चला जाता. आकर मैं
नाश्ता कर ऑफिस चली जाती. रात को उसके आने से पहले खाना टेबल पर रख सो जाती. यूँ
हम दोनों अन्दर ही अन्दर शायद शर्मिंदा भी थे अपने कृत्य पर, शायद उसी के बोझ तले हमने आँख मिलाना भी छोड़ दिया था. मैंने दो तीन बार जान
देने की कोशिश भी की. कभी सोचा बस के नीचे आ जाऊँ और कोशिश की लेकिन लोगों ने बचा
लिया. एक बार ट्रेन से कटने के लिए निकल पड़ी तभी सामने से हमारे पडोसी आते दिखे.
उन्हें देख मुझे इरादा बदलना पड़ा वर्ना जाने कितनी बातें खड़ी हो जातीं. जब तमाम
कोशिशों के बाद कुछ नहीं हो पाया तब एक दिन मैंने उसे धमकी दी, वो ही कागज़ पर लिखकर, देख राहुल, ये जो तू कर रहा है सब गलत है बेटा. अब यदि तूने ऐसा कुछ करने की कोशिश की तो
मैं खुद को ख़त्म कर लूँगी. शायद यही मेरा अंतिम हथियार था जो मेरे पास बचा था.
मैंने एक नींद की गोलियों का पत्ता भी साथ में रख दिया था. आज मुझे लगता है मुझे
ये धमकी उसे बहुत पहले ही दे देनी चाहिए थी तो शायद अपनी नज़रों से ही न गिरती कभी.
बेशक समाज को नहीं पता लेकिन मेरा मन, मेरी आत्मा हर पल मुझे धिक्कारती हैं. मैं जी
पाती हूँ न मर पाती हूँ.
शायद मेरी धमकी ने असर किया उस पर या और कोई बात
थी, जो मुझे पता नहीं थी क्योंकि बात यहीं ख़तम नहीं होती. बात इससे बढ़कर है. कुछ
महीनों बाद धीरे-धीरे उसने मुझसे एक दूरी बनानी शुरू कर दी. एक दिन चुपचाप दूसरे
कमरे में अपना बिस्तर लगा लिया और वहीँ सोने लगा, तो मन को तो राहत मिली. एक तसल्ली हुई कि चलो इस गलीज़ सम्बन्ध से मुक्ति तो
मिली. लेकिन इधर मेरी सुप्त पड़ी भावनाएं जाग चुकी थीं तो उसकी दूरी मुझे सहन नहीं
हो रही थी, उसकी कहो या पुरुष शरीर की कहो. मगर कुछ कहने लायक अब मैं न थी. मैं कैसे खुद
सम्बन्ध कायम कर सकती थी जबकि मुझे पता है ये अनैतिक है. न कुछ पूछ सकती थी किसी
से, न कह सकती थी इस बारे में किसी से भी. एक दिन उसे फ़ोन पर बात करते सुना तब पता
चला उसकी ज़िन्दगी में एक लड़की आ गयी लेकिन उसने मुझे कुछ नहीं बताया. एक वक्त था
जब अपनी छोटी से छोटी बात भी मुझे शेयर करता था मगर अब हमारे बीच मानों सदियों का अंतराल
आकर ठहर गया था. वो इतनी दूर हो गया कि हम एक ही घर में दो अजनबियों की तरह रहने
लगे. कुछ दिन बाद मैंने सुना उसने एक अलग फ्लैट भी ले लिया है और शादी करके वहीँ
शिफ्ट हो जायेगा. इस बात पर मैंने विश्वास नहीं किया. आखिर उसकी हर मनमानी मैं इसी
वजह से सहती थी ताकि वो मुझसे दूर न हो कभी, मगर मेरा विश्वास बहुत थोथा था. मैंने न केवल
बेटा गंवाया बल्कि दुनिया के सबसे पवित्र रिश्ते को भी कलंकित किया तो केवल इसलिए
वो मुझसे दूर न जाए. आखिरी जीने का अवलंबन था लेकिन जो सुना था वो सच हो गया.
कितनी मुश्किल से खुद को संभाला बता नहीं सकती. जिस कारण उसकी सब ज्यादती सही, आज वो ही मुझसे दूर चला गया. जो स्वप्न में भी नहीं सोचा था, वो हो चुका था, लेकिन शायद अब ये जरूरी भी था हमारे लिए. शायद यही कारण रहा जिसने मुझे संभाले
रखा वर्ना मैं कब का खुद को समाप्त कर लेती. उसने इतनी दूर अपना ट्रान्सफर करवा
लिया जहाँ मैं अपनी जॉब के कारण नहीं जा सकती थी इसलिए किसी को नहीं पता आखिर क्या
कारण है हमारी दूरियों का, यहाँ तक कि उसकी पत्नी को भी सही कारण नहीं मालूम. लेकिन अब मैं खुद को माफ़
नहीं कर पा रही.
अब तक पढ़ते-पढ़ते आप न जाने मुझे कितनी गालियाँ
दे चुकी होंगी. जानती हूँ, मैंने मर्यादा की सारी सीमाएं लांघ दी लेकिन समस्या ये है कि प्यासी तप्त रेत
पर पानी की बूँदे जैसे वाष्पित हो जाती हैं वैसे ज़िन्दगी वाष्पित नहीं हो सकती.
मेरे शरीर की अपनी जरूरत जाने क्यों अब मुँह उठाये खड़ी हो रही है. जिस उम्र में इन
सबसे दूर रहा जाता है या कहो जरूरत ही ख़त्म सी हो जाती है उस उम्र में मैं जल बिन
मछली सी तड़पती हूँ. जब उम्र थी तब तो मैंने संयम का बाँध बांधे रखा मगर अब वो बाँध
अपनी सब सीमायें तोड़ने को आतुर है. मैं खुद परेशान हूँ. समझ नहीं आता ये मेरे साथ
क्यों हो रहा है. आज मैं अकेली रहती हूँ फिर भी अपनी वासना से मुक्त नहीं हो पा
रही. एक मर्द शरीर की मुझे बहुत जरूरत महसूस होती है. जब वो इच्छा पूरी नहीं होती
मन करता है दीवार में सर दे मारूँ, चीखूँ, चिल्लाऊँ, रोऊँ. जाने क्या कर जाऊँ. कई बार खुद को थप्पड़
मारती हूँ तो कई बार गरम पानी से नहाने लगती हूँ गर्मी होते हुए भी. कुछ समझ नहीं
आ रहा आखिर मेरे साथ ये हो क्या रहा है. ये अचानक से ऐसी इच्छा क्यों जागृत हो गयी
जिसने मेरी जीवन भर की तपस्या को नारकीय बना दिया जबकि तपस्या का फल तो वरदान होता
है श्राप नहीं. आज मैं अपनी नज़रों में इस हद तक गिर चुकी हूँ कि कई बार सोचती हूँ
कुछ खाकर खुद को ख़त्म कर लूँ. अपनी और अपने बेटे की नज़र में मैं इस हद तक गिर चुकी
हूँ कि और जीने की चाहत ही नहीं बची. यदि आपके पास कोई उपाय हो तो सुझाएँ नहीं तो
मेरे पास खुद को ख़त्म करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा. सबसे बड़ी मुश्किल ये है
इस बारे में किसी से बात भी नहीं कर सकती. एक तो विधवा, उस पर औरत, यदि गलती से भी ये बात किसी के आगे मेरे मुँह से निकल गयी तो जाने कितना बात
का बतंगड़ बने और मेरे साथ मेरे बेटे की बसी बसाई गृहस्थी भी उजड़ जाए. फिर हमारे
भारतीय समाज की ही नहीं बल्कि ये तो मानवता के मुँह पर तमाचा है, जो किसी समाज में भी शायद घटित न होता हो वो मेरे घर में हुआ. ये बात तो किसी
विश्वासपात्र से भी नहीं कही जा सकती. आप क्योंकि डॉक्टर हैं, दूसरे आप और मैं कभी मिलेंगे भी नहीं, शायद मेरे लिए कोई हल सुझा सकें बस इसी उम्मीद
पर आपके सामने अपनी समस्या रख दी. अब जीना एक बद्दुआ लग रहा है.”
“अब सोच निशा, ये सब पढने के बाद मेरा कितना दिमाग भन्नाया होगा. एक बार तो गुस्से में जो
दिल में आया जवाब में लिखती गयी. लेकिन उसके बाद मुझे याद आये जाने कितने ही ऐसे
किस्से जिन्होंने इंसानियत को ऐसे ही शर्मसार किया था लेकिन क्योंकि ऐसे किस्से
अक्सर घर की चारदीवारियों में ही दफ़न हो जाते हैं इसलिए किसी तक उनकी हवा भी नहीं
पहुँचती. जानती है निशा, एक बार एक किस्सा कहो या कहानी मैंने ऐसी ही कहीं पढ़ी थी. नाम तो याद नहीं
किसने लिखी थी लेकिन जिसमे माँ बाप बाहर घूमने जाते हैं दो तीन दिन के लिए और पीछे
से जवान बेटा और बेटी घर में होते हैं. बहन मना करती रह जाती है लेकिन भाई उस
पवित्र रिश्ते को तार-तार कर देता है . जब माता पिता आते हैं और उन्हें पता चलता
है तो वो भी उस गुनहगार का साथ देते हैं और बेटी को ज़हर देकर मार देते हैं ताकि
समाज में उनकी इज्जत बची रहे. कैसी घृणित सोच है आज भी लोगों की. वहीँ अक्सर कई
घरों में देखा और सुना देवर भाभी के नाजायज रिश्तों को, मजे की चीज रंगे हाथों पकडे भी गए लेकिन फिर भी घर की चारदीवारी में ही बात
दबा दी गयी. जाने कैसे मर्यादा की सीमा इस हद तक लाँघ देते हैं कुछ लोग” आश्चर्य, क्षोभ और कुछ घृणा प्रकट करते हुए शालिनी अपनी कनपटी की नसों को दबाते हुए
बोलीं.
“शालिनी, तू तो ये कह रही है, मैंने तो जाने कितने किस्से पढ़े हैं और बल्कि एक सच्चा किस्सा अपनी कामवाली
बाई का बताती हूँ जो हमारे घर काम करती थी. वो तो बेचारी काम पर आ जाती थी पीछे से
घर में उसकी बेटी होती थी. एक दिन उसका पिता घर में आया और उसने उसके साथ मुँह
काला किया. बेचारी ने जब बताया हमने कहा, तू उसकी पुलिस में कंप्लेंट कर, मगर बोली, कैसे अपनी ही छाती और जांघें उघाडूं बीबीजी. दोनों तरफ से हार मेरी ही है. तो
सोच जरा, क्या ऐसा संभव नहीं? आजकल मर्यादा सिर्फ एक शब्द भर रह गया है वर्ना वासना कितनी अंधी हो चुकी है
इसका तो कोई अंदाज़ा भी नहीं लगा सकता. लो तुम इन्टरनेट पर खुद देखो कैसे रिश्तों
पर ग्रहण लगता है. तुम्हारी इस कहानी से याद आया, एक बार एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में मैंने ऐसा ही पढ़ा था मगर वो किस्सा हमारे
देश का नहीं था बल्कि बाहर का था. वहाँ भी माँ और बेटे में सम्बन्ध बनते हैं और
दोनों की मर्ज़ी से बनते हैं. यहाँ तक कि जब सबके सामने आते हैं उनके सम्बन्ध तब भी
उनमे कोई गिल्ट नहीं होता लेकिन वहाँ के कानून के हिसाब से उन्हें सजा होती है तब
भी उन्हें नहीं लगता उन्होंने कुछ गलत किया. यहाँ तो फिर भी वो बात नहीं है” कह निशा ने कई पेज खोल दिए जहाँ ऐसे संबंधों की भरमार थी जिसे पढ़ शालिनी हैरान
रह गयी. आज हम उस युग में जी रहे हैं जिसमे पति अपनी पत्नी को कई-कई लोगों के साथ
सम्भोग को प्रेरित कर देता है तो पिता हो या माँ अपनी ही बेटी की दलाली करने में
ज़रा भी संकोच नहीं करते. यहाँ ऐसे में ये कोई बड़ी बात नहीं लग रही मुझे क्योंकि इस
दुनिया में सब संभव है. सोचो जरा, जब ब्रह्मा अपनी पुत्री पर आसक्त हो सकते हैं, जो सर्वज्ञाता हैं, जो जनक हैं, जिन्हें देव कहा जाता है, वहां इंसानों से क्या उम्मीद करती हो तुम? यहाँ तक कि ससुर भी बहू से सम्बन्ध बनाने में नहीं हिचकता और सास उसमें सहयोग करती
हैं. तुम तो पुरुष की बात कर रही हो स्त्री ही स्त्री के खिलाफ खड़ी दिखती है. वहाँ
संबंधों में मर्यादा कहाँ ढूँढे?” निशा ने चुभता हुआ प्रश्न शालिनी की ओर उछाला.
“बात तो सही कह रही है निशा तू, ऐसा कुछ ही मैंने सोचा और फिर उसे जो जवाब दिया
वो बताती हूँ”
‘कितना गलत किया, ये तुमने सोचा भी नहीं. वो तो बच्चा था. उसकी उम्र ऐसी थी लेकिन गलत और सही
में फर्क तुम तो जानती थीं. क्या तुम्हारा फ़र्ज़ नहीं बनता था उसे गलत और सही
समझाना और बताना. तुमने तो माँ बेटे के रिश्ते को ही कलंकित कर दिया. मुझे तो ये
समझ नहीं आ रहा कैसे तुम अपने ही बेटे के साथ उस हद तक चली गयीं. धिक्कार है तुम्हें
और तुम उसे ही जस्टिफाई कराना चाह रही हो अब. कितनी गलत सोच है. कभी सोचा यदि समाज
में पता चल जाए तो तुम्हारा क्या हश्र होगा? क्या कभी सिर उठाकर चल सकोगी? कोई भी अपने लड़के को तुम्हारे पास अकेले नहीं आने देगा. तुम पर सारा समाज
कितनी थू-थू करेगा तुम सोच भी नहीं सकतीं. तुमने तो स्त्री के नाम को नहीं माँ
बेटे के रिश्ते को ही कलंकित कर दिया’ आदि आदि जाने क्या-क्या लिख दिया. मगर उसके बाद
वो जवाब भेजा नहीं बल्कि हाथ रुक गए और मैं थोड़ी देर के लिए आँख बंद करके बैठ गयी
जैसे मीलों दौड़ कर आई होऊँ. मन कर रहा था, सामने होती तो जाने मैं खुद पर काबू भी रख पाती
या नहीं और उसे दो-चार थप्पड़ रसीद कर देती.
एक घंटे बाद जब मन शांत हुआ तब दिमाग को फिर
उसकी समस्या पर केन्द्रित किया. मैंने इस सन्दर्भ में नेट पर सर्च किया कि क्या
ऐसे सम्बन्ध यहीं बने या और कहीं भी तो मुझे एक दो लिंक मिले जहाँ बिल्कुल ऐसा ही
हुआ. तब मुझे लगा अब इसका कारण खोजना होगा, जैसे तुमने अभी मुझे लिंक दिखाए मगर वो नहीं कोई
दूसरे लिंक थे वो लेकिन थे इसी विषय पर. आखिर क्या कारण हैं जो सबसे पवित्र रिश्ता
भी अपनी मर्यादा खो बैठा. फिर जो उसकी स्थिति है उसके अनुसार सोचा, समझा और कारण खोजा तब जाकर मुझे लगा, हाँ, शायद यही कारण है जिसने उसकी उम्र भर की तपस्या
को एक शाप में बदल दिया. वर्ना भारतीय समाज में ऐसे संबंधों के बारे में स्वप्न
में भी कोई नहीं सोच सकता. बेशक पाश्चात्य संस्कृति हावी होती जा रही है लेकिन अभी
हमारे देश की संस्कृति का उतना पतन नहीं हुआ है. सच पूछो तो, जब मुझे उसकी दशा का कारण समझ आया तो मुझे उस पर बहुत तरस आया. ओह! जाने कितनी
स्त्रियाँ शरीर के मनोवैज्ञानिक दबाव में जीवन होम करती होंगी लेकिन उफ़ नहीं कर
पाती होंगी क्योंकि समाज के बनाये नियम तोड़ने की किसी में हिम्मत नहीं होती. जबकि
ये मनुष्य शरीर की वो जरूरत है जिसे अनदेखा किया जाना उसी के साथ अन्याय है. और तब
लगा, ओह, शायद ये ही वो कारण है जिसने एक माँ को स्त्री में तब्दील कर दिया वर्ना जिसने
सारी उम्र बिना पुरुष संसर्ग के गुजार दी हो वो उम्र के इस पड़ाव पर आकर कैसे
मर्यादा की रेखा लाँघ सकती थी. तब मैंने उसके आगे लिखा जो तुमने पढ़ा:
‘देखिये, जो आपने लिखा है उसके अनुसार मुझे लगता है आपकी उम्र इस वक्त 42-45 के बीच
होगी. संभव है आपने कभी इस ओर ध्यान न दिया हो क्योंकि यदि पार्टनर साथ होता है तब
औरत सब तरफ ध्यान देती है लेकिन आपके पार्टनर नहीं हैं शायद इसी वजह से आपका ध्यान
अपनी समस्या की तरफ नहीं गया. आपने सुना या पढ़ा होगा कि एक तो ये वक्त मीनोपाज का
होता है यानि इस उम्र के बाद ये प्रक्रिया शुरू हो जाती है जो एक लम्बा समय लेती
है. ऐसे में हारमोंस में बदलाव आता है तो कई बार वो असंतुलित हो जाते हैं जिस कारण
किसी-किसी औरत की सेक्स की इच्छा ख़त्म हो जाती है तो किसी-किसी की बहुत बढ़ जाती
है. अभी क्योंकि आपने जो लिखा है उसी के अनुसार अपना उत्तर दे रही हूँ वर्ना
तुम्हारा पूरा चेक अप होना जरूरी है ताकि पता लगाया जा सके कि आखिर क्या कारण है
जो आपमें इस हद तक बदलाव आया. इसके लिए आपको किसी स्त्री विशेषज्ञ को दिखाना होगा.
फिलहाल यही लग रहा है आपके हारमोंस असंतुलित हो गए हैं जिस कारण आपमें ये भावना
जागृत हुई. सबसे बड़ी बात इसका इलाज है. आपको कुछ दवाइयाँ दी जाएँगी जिनके सेवन से
आप इस भावना से मुक्त हो जाएँगी. इसके लिए सबसे पहले किसी डॉक्टर से मिलिए. यदि
मुझसे मिलना चाहती हैं तो मेरा नंबर पत्रिका के संपादक से ले सकती हैं. बाकि जो हो
चुका वो बदला नहीं जा सकता.
जहाँ तक आपके बेटे के साथ सम्बन्ध का सवाल है उस
पर तो अब एक प्रश्नचिन्ह लग ही चुका है. उसे न आप बदल सकती हैं न मैं. मानती हूँ
यहाँ आपकी सहमति और असहमति के मध्य की स्थिति थी जहाँ माँ पर स्त्री हावी हो गयी.
माँ असहमत थी तो स्त्री शरीर सहमत जिस कारण द्वन्द की उहापोह में एक माँ हार गयी.
फिर भी जब डॉक्टर को दिखा लें और मुख्य समस्या पता चल जाये तो किसी वक्त उसे अलग
से बुलाकर अपनी समस्या से अवगत करा देना. अब वो भी शादीशुदा है तो उम्मीद है समझ
सके तुम्हारी समस्या का कारण. कोई भी गलत कदम अब न उठायें वर्ना बेटा हमेशा खुद को
आपका दोषी मानेगा और हो सकता है ज्यादा ग्लानि महसूस करने पर वो भी कोई गलत कदम न
उठा ले. ऐसे में जिस लड़की से उसकी शादी हुई है उसका भी जीवन बर्बाद हो जायेगा.
इसलिए कभी खुद को ख़त्म करने की बात न सोचें और जो राह सुझाई है उस पर चलें. उम्मीद
है उत्तर सकारात्मक ही आएगा. कोशिश करें इसे एक बुरे स्वप्न की तरह भूलने की अब
इससे ज्यादा मैं और तो कुछ कह नहीं सकती”
“तूने पढ़ तो लिया निशा ये सब, लेकिन जानती है, अब मेरे दिमाग में एक ख्याल और आ रहा है. क्या यही तो कारण नहीं जो हमारे समाज
की विधवा, तलाकशुदा या छोड़ी हुई स्त्रियों के व्यवहार में इस उम्र में परिवर्तन आ जाता
है. जो यदि खुद की शारीरिक इच्छा को दबा नहीं पातीं तब किसी के साथ हिम्मत करके
जुड़ जाती हैं और पकड़ी जाती हैं तो तोहमतों की शिकार हो जाती हैं, तो कभी मार दी जाती हैं या फिर उन्हें बुरी औरत का खिताब दे दिया जाता है.
जबकि उन्हें पता ही नहीं होता उनके साथ ऐसा आखिर हो क्यों रहा है?” सोचते हुए शालिनी ने कहा तो निशा उछल पड़ी और बोली, “यार शालिनी, हमने तो ऐसे कभी सोचा ही नहीं. इस पेशे में आने के बाद हम भी सीधे-सीधे इलाज
करना ही जानते हैं लेकिन कभी इतनी गहराई में नहीं उतरते. शायद कितनी स्त्रियाँ इस
वजह को न समझकर एक बहुत ही नारकीय जीवन जीती हों जब उनकी ये इच्छा पूरी न होती
होगी. शायद तब तो वो पागलपन की सीमा तक भी पहुँच जाती हों या पागल भी हो जाती
होंगी क्योंकि मानव शरीर की संरचना ही ऐसी है जिसमे शारीरिक जरूरत को अनदेखा नहीं
किया जा सकता. अनदेखा करो या दबाओ तो उसके कई विनाशकारी परिणाम सामने आते हैं और
शायद ये भी उन्हीं में से एक है”
“हाँ, निशा मुझे भी यही लगता है. इस केस ने मेरी सोच में खासा परिवर्तन कर दिया है.
हम कई बार चीजें जैसी सामने होती हैं उन्हें वैसे ही लेने लगते हैं या कहो वैसा ही
देखते हैं लेकिन उनके अंदरूनी हिस्सों में कितना मवाद है, जो टीसता रहता है और वो उफ़ भी नहीं कर पातीं, इस बारे में कभी जान ही नहीं पाते. जाने ऐसे कितने किस्से आस पास बिखरे पड़े
हों और हम उनसे अनजान हों?” शालिनी ने बेहद रुआंसे स्वर में कहा.
निशा सहमति में सर हिलाते हुए बोली, “जानती है, हमारे दूर के रिश्ते की एक मौसी थीं. उनके पति की छोटी उम्र में ही मृत्यु हो
गयी तो ससुराल वालों ने उन्हें उनके पीहर भेज दिया. अब उस दौर में दोबारा शादियाँ
होती नहीं थीं या कहो समाज के दबाव में करते नहीं थे तो उनकी भी नहीं हुई. उनके
चार भाई और चार भाभियाँ थीं. उनके बच्चे थे. उनके बच्चों को खिलाना, उनकी देखभाल करना सब वो ही करती थीं. लेकिन अक्सर रातों को उन्हें दौरे से
पड़ते थे. कभी वो खुद के बाल नोंच लेतीं तो कभी अपने कपडे फाड़ लेतीं और अर्धनग्न
अवस्था में ही बाहर निकल कर भागतीं. सब कहते इनके सिर पर कोई साया है, भूत प्रेत है और फिर ओझा, तांत्रिकों को बुलाया जाता. वो अपनी तांत्रिकी
विद्या आजमाते. कभी उन्हें मारते पीटते और कहते, “बोल जाएगा या नहीं? छोड़ेगा या नहीं निम्मो को? धे सडाक सडाक उनकी पीठ पर हंटर बरसाते. मौसी
बेतहाशा चीखतीं, चिल्लातीं और पिटते-पिटते जब उन की आवाज़ घिघिया जाती तब वो घिघियाते हुए
बोलतीं, “अच्छा, अच्छा जा रहा हूँ. मुझे मत मारो” और बेहोश हो जातीं. हम भी सब यही समझते. लेकिन
आज तुम्हारी बात से मुझे लग रहा है शायद वजह ये ही हुआ करती थी. शायद इतनी मार जब
सह न पाती हों तो तांत्रिक के कहे अनुसार कह देती हों. शरीर ही तो है, आखिर कितनी तकलीफ सह सकता है? और ऐसा तो गाँव-गोट में होता ही रहता है किसी को
डायन या चुड़ैल सिद्ध कर दिया जाता है तो किसी को गाँव से बाहर ही निकाल दिया जाता
है. शायद उन सबके पीछे यही मुख्य कारण हो. ये मनुष्य शरीर की वो आवश्यकता है जिसकी
यदि पूर्ति न हो तो ये या तो मर्यादा तोड़ता है या फिर ऐसे अवसाद में चला जाता है.
कितनी तकलीफदेह स्थिति से गुजरती होगी एक स्त्री, सोचो तो? पुरुष तो फिर भी बाहर जाकर अपनी आवश्यकता की पूर्ति कर लेता है और उस पर कोई
आक्षेप भी नहीं लगता लेकिन एक स्त्री ऐसा कभी नहीं कर पाती. मर्यादा की बेड़ियों
में जकड़ी खुद को हलाल कर लेती है लेकिन समझ नहीं पाती आखिर वो यानि उसकी देह चाहती
क्या है?” निशा ने तो जैसे पूरा स्त्री शरीर विज्ञान और मनोविज्ञान दोनों के ही दरवाज़े
खोल कर रख दिए थे.
“संभव है निशा, सब कुछ संभव है. हमें हमेशा समस्या की गहराई में उतरकर निदान खोजना चाहिए न कि
सतही तौर पर. आज मैंने ये सबक लिया है इस वाकये से. देह का गणित दो और दो चार के सिद्धांत पर नहीं
चला करता. उसके लिए तो यही मेडिकल साइंस काम आती है जो बता सकती है आखिर कुछ भी
होता है तो आखिर होता क्यूँ है? यदि आज हम इस प्रोफेशन से न जुड़े होते और यदि इस
लेडी का ये केस न पढ़ा होता तो कभी जान ही न पाते कि देह अपनी पूर्ति के लिए क्यों
मर्यादा को भी ताक पर रख देती है. जब एक स्त्री होकर उसका ये हाल हो गया तो मर्द
से क्या उम्मीद करें. उसके लिए तो स्त्री है ही सिर्फ देह भर. वहाँ कहाँ रिश्तों में
मर्यादा का ध्यान होता है. उसे तो स्त्री वैसे ही सिर्फ अपनी वासनापूर्ति का
माध्यम लगती है. इसी केस में देखो 22 साल का लड़का सब जानता है. उसने भी नहीं सोचा
कुछ. उसके लिए भी उसकी माँ सिर्फ एक देह ही थी उसके इतर कुछ नहीं. उसे तो वो
ग्लानि भी नहीं जो उसकी माँ को थी. मर्यादा तो दोनों के लिए ही होती है न तो कैसे
उसे लड़का सोच ख़ारिज कर दें. गलत तो वो भी था. लेकिन उस पर ऊँगली नहीं उठायी हमने
भी. लेकिन अब सोचा तो लगता है कहीं न कहीं वो भी जिम्मेदार था इस सबका. इतना नादान
भी नहीं था. जो सेक्स करना जानता है वो उचित अनुचित का फर्क भी जानता है और
मर्यादा की रेखा भी लेकिन उस वक्त उसके लिए उसकी माँ, माँ नहीं थी, सिर्फ स्त्री देह थी. छी ! और हम सिर्फ उसे ही दोष दे रहे हैं जबकि सबसे बड़ा
गुनाहगार तो शायद वो लड़का ही था. शायद वो उसमें ये भावना न जगाता तो आगे भी उसकी
ज़िन्दगी आराम से गुजर जाती क्योंकि मानव देह का एक सच ये भी है कि जब तक सेक्स
सम्बन्ध कायम होते रहते हैं तब तक भावनाएं उमड़ती रहती हैं और शरीर को सेक्स की
जरूरत महसूस होती है. लेकिन यदि भावनाएं लम्बे समय तक सुप्त रहें तो अपने आप
निष्क्रिय हो जाती हैं. मानव देह उस सितार की तरह है जिसे जरा सा छेड़ो तो बज उठेगी, बिना सोचे, कोई सुनने वाला है भी या नहीं” अभी कहा ही था कि फ़ोन की घंटी बज उठी. घंटी बजते
ही घड़ी की तरफ निगाह गयी तो देखा रात के 11 बज रहे थे. लपककर फोन उठाया क्योंकि
समझ गई थीं कहाँ से होगा. सुनते ही कहा ‘बस अभी पहुँचती हूँ’ चल नर्सिंग होम चलते हैं एक केस आया है, कह दोनों निकल तो पड़ीं मगर दिमाग अब भी देह के
गणित में उलझा हुआ चींटी सा सोच की कतरनों को काट रहा था.
“ये वो दौर था जब जाने कितनी ही रातों तक मुझे नींद नहीं आई. एक अजीब सी कैफियत
हो गयी थी दिल की. कभी घृणा तो कभी रहम. मैं खुद उस दौर से गुजरी हूँ डॉ रिया तो
समझ सकती हूँ तुम्हें कैसा लग रहा होगा. यदि ये वही औरत है तो. और ये वो औरत न भी
हो तब भी अब तुम समझ गयी होंगी आखिर उसकी ये दशा हुई क्यों?”
“हाँ, आज तुमने हमारे शरीर का एक नया भेद खोला है. ये तो मैं कभी सोच भी नहीं सकती
थी. जाने कितने कारण होते हैं किसी भी बीमारी के. ये भी तो एक बीमारी है अब जिसका
समाधान हमारे समाज के अनुरूप नहीं. हमारी मर्यादाओं का हनन हो जाता है यदि कुछ भी
अनैतिक हो. मुझे तो ये समझ नहीं आ रहा उसे अब आखिर ठीक करूँ तो करूँ कैसे?
तुम्हारी बात ने तो मुझे हिलाकर रख दिया है.”
“यार, मैंने तो तब इतिश्री कर दी
थी समाधान देकर लेकिन आज तुमसे सुनकर मैं सुन्न हो गयी हूँ और लगता है जैसे कुछ
समस्याओं का कभी कोई समाधान नहीं होता”
“यार शालिनी, तू खुद में किसी तरह का गिल्ट मत ला. हम डॉ हैं और अपनी जानिब हर कोशिश करते
हैं मगर किसी भी मरीज़ के मन को स्वस्थ करना इतना आसान नहीं होता”
“हाँ, कह तो सही रही है”
“चल, देखती हूँ, करती हूँ खोज अब, कैसे इन्हें स्वस्थ किया जाए” कह डॉ रिया ने फ़ोन रख दिया मगर डॉ शालिनी एक बार
फिर सोच के गह्वर में डूब गयी.
‘देह के गणित कितने पेचीदा, जितने सुलझाओ उतने उलझते हैं...आखिर क्यों’ प्रश्न जेहन पर दस्तक देने लगा.
पाखी पत्रिका के सितम्बर अंक में प्रकाशित :