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शनिवार, 12 दिसंबर 2009

कैसे तुम्हें नमन करूँ

कैसे तुम्हारा वंदन करूँ
कैसे तुम्हारा अभिनन्दन करूँ
किस सूरज की लालिमा से
माथे पर तुम्हारे तिलक करूँ
किस चन्द्रमा की चांदनी से
मन्दिर तेरा आप्लावित करूँ
किन तारों की माला गुन्थूं
किस इन्द्रधनुषी रंग से
श्याम तेरा श्रृंगार करूँ
किस ओंकार के नाद से
ब्रह्माण्ड की गुंजार करूँ
श्याम कैसे तुम्हारा वंदन करूँ मैं
कैसे तुम्हें नमन करूँ





सोमवार, 23 नवंबर 2009

श्रीमद्भागवद्गीता से ......................

श्रीमद्भागवद्गीता के ७ वें अध्याय के २४ वें श्लोक की व्याख्या स्वामी रामसुखदास जी ने कुछ इस प्रकार की है जिससे परमात्मा के साकार और निराकार स्वरुप की सार्थकता समझ आती है ।

श्लोक
बुद्धिहीन मनुष्य मेरे सर्वश्रेष्ठ परमभाव को न जानते हुए अव्यक्त (मन - इन्द्रियों से पर ) मुझ सच्चिदानंदघन परमात्मा को मनुष्य की तरह शरीर धारण करने वाला ही मानते हैं।

व्याख्या
जो मनुष्य निर्बुद्धि हैं और जिनकी मेरे में श्रद्धा भक्ति नही है वे अल्पमेधा के कारण अर्थात समझ की कमी के कारण मेरे को साधारण मनुष्य की तरह अव्यक्त से व्यक्त होने वाला अर्थात जन्मने मरने वाला मानते हैं । मेरा जो अविनाशी अव्यय भाव है अर्थात जिससे बढ़कर कोई दूसरा हो ही नही सकता और जो देश , काल , वस्तु व्यक्ति आदि में परिपूर्ण रहता हुआ इन सबसे अतीत सदा एकरूप रहने वाला ,निर्मल और असम्बद्ध है ------ऐसे मेरे अविनाशी भाव को वे नही जानते इसलिए वे मेरे को साधारण मनुष्य मानकर मेरी उपासना नही करते प्रत्युत देवताओं की उपासना करते हैं ।
मेरे स्वरुप को न जानने से वे अन्य देवताओं की उपासना में लग गए और उत्पत्ति विनाशशील पदार्थों की कामना में लग जाने से वे बुद्धिहीन मनुष्य मेरे से विमुख हो गए । यद्यपि वे मेरे से अलग नही हो सकते तथा मैं भी उनसे अलग नही हो सकता तथापि कामना के कारण ज्ञान ढक जाने से वे देवताओं की तरफ़ खिंच जाते हैं । अगर वे मेरे को जान जाते तो केवल मेरा ही भजन करते ।
१) बुद्धिमान मनुष्य वे होते हैं जो भगवान के शरण होते हैं । वे भगवान को ही सर्वोपरि मानते हैं।
२)अल्पमेधा वाले मनुष्य वे होते हैं जो देवताओं के शरण होते हैं । वे देवताओं को अपने से बड़ा मानते हैं जिससे उनमें थोड़ी नम्रता , सरलता रहती है।
३)अबुद्धि वाले मनुष्य वे होते हैं जो भगवान को देवता जैसा भी नही मानते , किंतु साधारण मनुष्य जैसा ही मानते हैं । वे अपने को ही सर्वोपरि , सबसे बड़ा मानते हैं ।
यही तीनो में अन्तर है ।
भगवान कहते हैं कि मैं अज रहता हुआ ,अविनाशी होता हुआऔर लोकों का ईश्वर होता हुआ ही अपनी प्रकृति को वश में करके योगमाया से प्रकट होता हूँ ------------इस मेरे परमभाव को बुद्धिहीन मनुष्य नही जानते। कहने का तात्पर्य है की जिसको क्षर से अतीत और अक्षर से उत्तम बताया है अर्थात जिससे उत्तम दूसरा कोई है ही नही ऐसे मेरे अनुपम भाव को वे नही जानते।
जो सदा निराकार रहने वाले मेरे को केवल साकार मानते हैं , वे निर्बुद्धि हैं क्यूंकि वे मेरे अव्यक्त, निर्विकार और निराकार स्वरुप को नही जानते । ऐसे ही मैं अवतार लेकर तेरा सारथि बना हूँ -------ऐसे मेरे को केवल निराकार मानते हैं वे निर्बुद्धि हैं क्यूंकि वे मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी भाव को नही जानते।
उपर्युक्त दोनों अर्थों में से कोई भी अर्थ ठीक नही है कारण कि ऐसा अर्थ मानने पर केवल निराकार को मानने वाले साकाररूप की और साकार रूप के उपासकों की निंदा करेंगे और केवल साकार मानने वाले निराकार रूप की और निराकार रूप के उपासकों की निंदा करेंगे । यह सब एकदेशियपना है।
पृथ्वी , जल तेज़ आदि जितने भी विनाशी पदार्थ हैं वे भी दो -दो तरह के होते हैं --------सूक्ष्म और स्थूल । जैसे स्थूल रूप से पृथ्वी साकार है और परमाणु रूप से निराकार है , जल बर्फ , बूँद , बादल रूप से साकार है और परमाणु रूप से निराकार है तेज काठ और दियासलाई में रहता हुआ निराकार है और प्रज्वलित होने पर साकार है आदि। इस तरह से भोतिक सृष्टि के भी दोनों रूप होते हैं और दोनों होते हुए भी वास्तव में दो नही होती । साकार होने पर निराकार में बाधा नही होती और निराकार होने पर साकार में बाधा नही लगती तो फिर परमात्मा के साकार और निराकार दोनों होने में क्या बाधा है ? अर्थात कोई बाधा नही है । वे साकार भी हैं और निराकार भी हैं , सगुण भी हैं और निर्गुण भी। गीता साकार और निराकार दोनों को मानती है। भगवान कहते हैं कि मैं अज होता हुआ भी प्रगट होता हूँ , अविनाशी होता हुआ भी अंतर्धान हो जाता हूँ और सबका ईश्वर होता हुआ भी आज्ञापालक बन जाता हूँ । अतः निराकार होते हुए साकार होने में और साकार होते हुए निराकार होने में भगवान में किंचिन्मात्र अन्तर नही आता।

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

ये कैसी बेबसी?

प्यार, त्याग और समर्पण से घर संसार बनाया जाता है । ये शब्द कूट-कूटकर भर दिए जाते हैं बचपन से ही स्त्री के मन में । राधा भी इन्ही शब्दों और भावनाओं के साथ ज़िन्दगी गुजार रही थी मगर इन शब्दों का खोखलापन उसके ह्रदय को बींध जाता था । सारी ज़िन्दगी उसने इसी पाठ के सहारे गुजार दी थी मगर क्या मिला उसे? आज मुड़कर देखती है तो अपना वजूद कहीं दिखाई ही नही देता। पति के लिए तो पत्नी ही थी उससे आगे कभी वो जान ही नही पाए। मन के भीतर तो कभी झांक ही न पाए। पत्नी में ऐसे गुण होने चाहिए कि पति को घर गृहस्थी की सभी जिम्मेदारियों से मुक्त रखे। घर की हर छोटी बड़ी परेशानी जो अकेले ढोना जानती हो । हर मुश्किल का सामना करने की हिम्मत हो मगर अपने हक़ के लिए या अपनी चाहत के लिए जो कभी जुबान न खोले। एक भावनाविहीन कठपुतली सी जो सबके इशारों पर नाचती चली जाए। ऐसी सर्वगुन्सम्पन्ना स्त्री ही वास्तव में पत्नी का दर्जा पाने की हक़दार होती है----ये तो उसकी पति की सोच थी । मगर अब तो बच्चे भी बड़े हो चुके थे । दो बेटों और एक बेटी की माँ होने के नाते उसे अब उनके हिसाब से जीना पड़ता था। बेटों का विवाह तो वो कर चुकी थी मगर बेटी के लिए उसके दिल में कुछ सपने थे। वो नही चाहती थी कि जो वो ज़िन्दगी भर सहती रही उसकी बेटी भी वो सब सहे। इसलिए उसने एक संकल्प ले लिया था कि जब तक उसे लड़का पसंद नहीं आएगा वो अपनी बेटी की शादी नही करेगी। अपने विचारों से उसने घर में भी सबको अवगत करा दिया था और सबने यही सोचकर हाँ भी कर दी कि एक माँ का बेटी से कुछ खास लगाव होता है इसलिए जो करना चाहती हैं करने दो वरना उसे कब ऐसा अधिकार मिला था ।
अब तो राधा अपनी बेटी अंतरा के लिए रिश्ते खोजने में जुट गई। जब भी कोई रिश्ता आता तो लड़के से अकेले में बैठकर कुछ प्रश्न करती । उसके प्रश्न थे या उसके मन का डर मगर वो अपने प्रश्नों का जवाब एक संयत और उच्च सोच से संपन्न चाहती थी । उसके प्रश्न कुछ ऐसे होते थे जैसे--- उस लड़के की नज़र में स्त्री का क्या स्थान है ? स्त्री को आप महान सिर्फ़ कहने के लिए कहते हैं या उसे उसकी स्वतंत्रता देकर आगे बढ़ने के लिए भी प्रेरित कर सकेंगे। आप अपने जीवन में पत्नी से क्या अपेक्षा रखते हैं ? आपके जीवन में पत्नी का क्या दर्जा है ?वो सिर्फ़ माँ, बहन,बेटी और पत्नी ही है या उससे अलग भी उसका अपना कोई अस्तित्व भी है?क्या निर्णय लेने की स्त्री की क्षमता को आप उचित सम्मान दे सकेंगे? उसके निर्णय आपको स्वीकार्य होंगे? एक पत्नी का मान सम्मान आपके मान सम्मान से ऊंचा दर्जा रखता है या नही आपके जीवन में। जमीन जायदाद में उसका अधिकार क्या समझते हैं और पत्नी की कमाई पर किसका हक़ समझते हैं ---------पत्नी का , स्वयं का या दोनों का? ऐसे अनगिनत प्रश्न जो उसके दिमाग में कौंधते वो पूछती चली जाती । कोई भी लड़का उसके सभी प्रश्नों का वैसा उत्तर नही दे पाता जैसा वो चाहती थी या कहो उसे संतुष्ट नही कर पाता अपने जवाबों से। कहीं न कहीं कोई न कोई कमी रह ही जाती और रिश्ता नकार दिया जाता। इस प्रकार एक से एक अच्छे रिश्ते हाथ से छूटते जा रहे थे मगर वो अपनी सोच से बाहर निकल ही नही पा रही थी। घर वाले चाहे कितना समझाते मगर इस बार तो राधा ने जैसे कमर कस ली थी कि वो अपनी सर्वगुन्सम्पन्ना , पढीलिखी , उच्च पद पर कार्यरत बेटी के लिए एक सर्व्गुन्सम्पन्न उच्च सोच वाला लड़का ही ढूंढकर लाकर देगी जिसकी निगाह में स्त्री का दर्ज़ा सबसे ऊपर हो , तभी उसका ब्याह करेगी।
वक्त खिसकता जा रहा था और अंतरा की उम्र भी बढती जा रही थी । अब तो धीरे -धीरे लोगों ने रिश्ते बताने बंद ही कर दिए थे। कभी- कोई भूले भटके रिश्ता आ ही जाता तो वो भी राधा की सोच की बलि चढ़ जाता। और इस तरह साल पर साल गुजर गए मगर राधा को अपनी बेटी के लिए वैसा लड़का नही मिला जैसा वो चाहती थी। अंतरा की उम्र उस मोड़ पर आ गई थी जहाँ उसके ऊपर बालों में भी सफेदी चमकने लगी थी । अपनी माँ की इच्छा का सम्मान करते करते एक उम्र गुजर गई उसकी। और राधा भी अपनी बेटी के लिए लड़का ढूंढते -ढूंढते थक चुकी थी। अब उसे भी अहसास होने लगा था मगर अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत। वो समझ नही पा रही थी कि उससे चूक कहाँ हो गई । क्या अपनी बेटी का भविष्य सँवारना गुनाह है?क्या एक माँ का ये कर्तव्य नही कि वो अपनी बेटी जिसके लिए पल -पल मर -मरकर जीती रही ,उसके बारे में उचित निर्णय ले सके या शायद इस संसार में ऐसे लोग बचे ही नही थे जो स्त्री मन की भावनाओं को उचित सम्मान दे सकें। शायद सभी संवेदनहीन दोहरी ज़िन्दगी जीते लोग हैं इस दुनिया में --जिनकी कहने और करने की बातों में गहन अन्तर होता है । शायद आज भी कहीं न कहीं पुरूष मन में वो भावनाएं अब भी नही पनपीं या कहो वो अपने अधिकार अभी बाँटने में सक्षम नही हुआ है या शायद उसे अभी किसी का हुक्म मानना अपना अपमान लगता है । जो भी है सिर्फ़ कागज़ी है---भावनाशून्य। वरना क्या इतने बड़े जहान में कोई भी एक ऐसा उच्च सोच वाला लड़का उसे अपनी बेटी के लिए नही मिलता।आज राधा भी राजा जनक की तरह इस समाज से , इसके चलन से और शायद इस समाज के पुरूष ठेकेदारों से हार गई थी . आज भी पुरूष का वर्चस्व कायम था---------बेशक दुनिया आगे बढ़ रही थी , तरक्की के नए आयाम पेश कर रही थी मगर पुरूष की कुंठाग्रस्त सोच के आगे आज भी एक स्त्री विवश थी अपने अधिकार पाने के लिए। आज फिर एक स्त्री अपनी बेबसी से लड़ रही थी ....................








समाप्त

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

यादों के झरोखों से ..............अन्तिम भाग

ज़िन्दगी एक नई दिशा की ओर घूमने लगी ...........अनजाने मोडों से गुजरती न जाने कौन सी राह की ओर ले जा रही थी । रवि और मैं एक बार फिर आपस में कहीं न कहीं टकराने लगे और ज़िन्दगी के इस मोड़ के बारे में सोचने लगे। शायद दोनों को ही अपनी -अपनी गलती का अहसास हो चुका था । ज़िन्दगी के थपेडों ने हमें बता दिया था कि अकेले ज़िन्दगी जीनी इतनी आसान नही होती और सफलता पा लेना सफल जीवन का प्रमाण नही होता। हम दोनों को ही समझ आ गया था कि अपनी नादानियों की वजह से हमने एक अटूट रिश्ते को तोड़ दिया था । अपने -अपने अहम के कारण आज हमारा जीवन तिनके- सा बिखर गया था। शायद इसीलिए कहा गया है कि ज़िन्दगी का दूसरा नाम समझौता है क्यूंकि अब तक भी तो हम दोनों अपनी -अपनी ज़िन्दगी से और ज़िन्दगी में आए हालातों से समझौता ही तो कर रहे थे। अगर उस वक्त हमने ये छोटे -छोटे समझौते कर लिए होते और एक दूसरे को समझने की कोशिश की होती , एक दूसरे की गलतियों को एक -दूसरे को समझाने की कोशिश की होती तो आज शायद ये हालात न होते। ज़िन्दगी में कभी न कभी किसी न किसी से समझौते करने ही पड़ते हैं तो फिर जिसे हम चाहते हैं उसके साथ क्यूँ नही कर सकते , वहां अपने अहम को आडे क्यूँ ले आते हैं । मगर शाख से टूटे पत्ते भी कहीं शाख से दोबारा जुडा करते हैं यही सोच हम अपनी ज़िन्दगी जी रहे थे मगर वो कहते हैं न कि जो रिश्ता भगवान ने बनाया हो उसे कौन तोड़ सकता है। एक दिन अचानक फिर हम दोनों उसी मन्दिर में टकराए जैसे पहली बार टकराए थे और जैसे ही एक -दूसरे को देखा तो वो लम्हात एक चलचित्र की भांति आंखों के सामने घूम गए और उस पल हमें लगा कि शायद भगवान की भी यही मर्ज़ी है की हम दोनों एक -दूजे के लिए ही बने हैं । और उस दिन अपने -अपने अहम को तोड़ते हुए दोनों ने एक बार फिर अपने- अपने दिल की बात कही और एक नए सिरे से ज़िन्दगी जीने की सोची।
अब एक बार फिर हम दोनों उसी बंधन में बंध गए थे जिसे अपनी नादानियों के कारण तोड़ चुके थे। ज़िन्दगी के अर्थ अब हमें समझ आ चुके थे।

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

यादों के झरोखों से भाग ४ .............................

ज़िन्दगी यूँ ही अपनी रफ़्तार से चल रही थी और हमें भी चलने को मजबूर कर रही थी। आख़िर हमारी ही चुनी हुई तो ज़िन्दगी थी फिर उससे कैसे मुहँ मोड़ सकते थे हम।
एक दिन अचानक जब मैं काफ़ी शॉप में बैठी हुयी थी तभी देखा सामने वाली कुर्सी पर रवि आकर बैठा है। उसे देखते ही एक धक्का सा लगा दिल को । क्या हाल हो गया था रवि का । एक कंपनी का इतना उच्च पदाधिकारी और ये हाल -----------टूटा , बिखरा , बेतरतीब सा। देखने पर यूँ लगा जैसे बरसों से बीमार हो । एक हँसता मुस्कुराता चेहरा जैसे कुम्हला गया हो। उसे देखते ही दिल में संवेदनाएं जागने लगीं ............चाहे आज हम अलग हो गए थे मगर कभी तो हम साथ रहे थे इसलिए इंसानियत के नाते उठकर रवि के पास चली गई और अपने सामने अचानक मुझे देखकर वो हडबडा गया। फिर ख़ुद को संयत कर उसने मुझे बैठने को कहा। मैंने उससे पूछा ये क्या हाल बना रखा है तुमने, तो बोला किसके लिए कुछ करुँ। जैसा हूँ ठीक हूँ । एक धक्का सा लगा उसका जवाब सुनकर। एक अपराधबोध सा होने लगा जैसे उसकी गुनहगार मैं ही हूँ और साथ यूँ भी लगा कि जैसे आज भी वो मुझे उतना ही चाहता है। फिर वो बोला तुम्हारा हाल ही कौन सा मुझसे अलग है । कभी देखा है ख़ुद को आईने में । उस वक्त यूँ अहसास हुआ जैसे किसी ने जलते हुए छालों पर बर्फ का मरहम लगा दिया हो । बस उसके बाद अपने -अपने ख्यालों में गुम हम दोनों ही अपनी -अपनी राह पर चल दिए कुछ सवालों के साथ ।
घर आकर लगा जैसे कहीं कुछ अपनी बहुत ही खास चीज़ छूट गई है। उसे पकड़ने की इच्छा जागृत होने लगी। यूँ लगने लगा जैसे रवि एक बार आवाज़ दे तो .................. मगर सोचने से ही तो सब कुछ नही होता । उधर रवि का भी यही हाल था। उसे भी लगा कि कहीं कुछ ग़लत हो गया है जिसे शायद हम दोनों ही नही समझ पा रहे थे।

आज थोडी वक्त की कमी है इसलिए कहानी इतनी ही डाल पा रही हूँ क्षमाप्रार्थी हूँ ।

क्रमशः.................................

रविवार, 8 नवंबर 2009

यादों के झरोखों से भाग ३..........................

रवि और निशा की शायद यही परिणति है ...............मिलकर भी न मिलना। यही तसल्ली दिल को देकर आगे के बारे में सोचना शुरू किया। अब मैं अपने पुराने घावों को भूल एक नए सिरे से आजाद पंछी की भांति जीवन- यापन करने की सोचने लगी। पिता के घर में किसी बात की कमी तो थी नही और साथ ही मैं इतना अच्छा कमाती थी तो आर्थिक स्थिति तो सुदृढ़ थी ही । मैं अपने हिसाब से जीने की कोशिश करने लगी मगर मुझे पता नही था कि एक तलाकशुदा का जीवन कोई फूलों की डगर नही। बहुत ही जल्द वक्त ने मुझे यथार्थ का धरातल दिखा दिया । मुझे अपनी कमाई पर गर्व था और सोचती थी कि धन से सब कुछ ख़रीदा जा सकता है ,सिर्फ़ रवि ही मेरी भावनाएं नही समझ सका मगर घर में भाई भाभी भी थे उन्हें मेरी कमाई से कोई फर्क नही पड़ता था मैं उनके या उनके बच्चों के लिए कितना भी कुछ करने की कोशिश करती मगर उन पर असर नही होता। उनके लिए तो मैं अब एक आजीवन बोझ ही थी । मैं अपनी खुशी से कुछ भी करती मगर सब बेकार ,किसी को भी मेरी खुशी से कुछ लेना देना नही होता,एक अनचाहा बोझ समझते थे सब। इस बात का अहसास अब मुझे भी होने लगा था। इसलिए मैंने अलग रहने की सोची और जब घर देखने निकली तब तो और भी मुश्किलों ने घेर लिया। कोई भी एक तलाकशुदा को जल्द ही घर देने को राजी न होता। जैसे ही तलाकशुदा होने का पता चलता यूँ देखते जैसे संसार का आठवां अजूबा मैं ही हूँ या जैसे मैं इंसान न होकर उनके घर को उजाड़ने वाली कोई चीज़ हूँ या फिर हर कोई चाहता की ये तो तलाकशुदा है तो जैसे इस पर अपना अधिकार है । हर कोई ग़लत नज़रिए से ही देखता। आज के युग में भी इंसानी सोच कितनी जड़ थी.........मैं यही सोचकर परेशान हो जाती मगर कर कुछ नही सकती थी। ऐसे जीवन की तो मैंने कल्पना भी नही की थी न ही कभी सोचा था कि हालत ऐसे भी हो सकते हैं। तलाक लेने से पहले सबने कितना समझाया था मगर उस वक्त मैं कल्पनाओं के आकाश पर विचर रही थी तो कैसे यथार्थ बोध होता। जब भी कहीं रहती कोई न कोई समस्या मुहँ बाये खड़ी रहती। जिंदगी को जितना आसान समझा था वो उतनी ही राहों में कांटे बोती जा रही थी। अब तो अकेलेपन का दर्द बहुत ही सालने लगा था । कोई कंधा ऐसा न था जिसपे अपना सिर रखकर रो पाती या किसी से अपना हाल-ए-दिल कह पाती। कभी कोई बीमारी होती तो उस वक्त इतनी लाचार महसूस करने लगती कि सोचती कि क्या ऐसी ही जिंदगी की मैंने कल्पना की थी ।ऐसे वक्त पर रवि की बहुत याद आती। वो मेरा कितना ख्याल रखता था अगर मुझे ज़रा सा भी कुछ हो जाता तो रात भर आंखों में ही काट देता था मगर मेरे सिरहाने से नही हिलता था। क्या हालात और वक्त ऐसे बदलता है। जो न सोचा हो वो होता है। धीरे -धीरे मेरा दंभ मरना लगा था । अब मुझे लगने लगा था कि शायद तलाक लेने में मैंने बहुत जल्दी कर दी थी । कुछ वक्त दिया होता अपने रिश्ते को । अब रवि की बहुत सी बातें मुझे याद आने लगी थी। अब मुझे सिर्फ़ उसकी अच्छी बातें ही याद आती । उधर रवि का भी मेरे से कम बुरा हाल न था । उसका भी कमोबेश यही हाल था। एक ही शहर में होने के कारन उसके बारे में मुझे जानकारी मिलती रहती थी। मगर अब क्या हो सकता था। जिंदगी दोनों के लिए दुश्वार होने लगी थी । जब साथ थे तो साथ नही रहना चाहते थे और अब जब अलग हो गए तब भी दोनों को सुकून नही मिल रहा था। जिंदगी का न जाने ये कौन सा मुकाम था जहाँ एक अजीब सी बचैनी बढती ही जा रही थी। क्या करें और क्या न करें की अजीब सी कशमकश में उलझते जा रहे थे। अब हमारा वो हाल था न हम आगे बढ़ पा रहे थे और न ही पीछे लौट कर जा सकते थे। अब तो सिर्फ़ यादें थी जो हमारी तन्हाई की साथी थी । अब सिर्फ़ सुखद यादें ही याद आती। दुखद यादें तो जैसे न जाने कौन से परदे में छुप गई थीं। और हम जिंदगी जीने को मजबूर इसी ऊहापोह में जिए जा रहे थे मगर बिना लक्ष्य का जीवन भी कोई जीवन होता है। दुनिया के हँसते खिलखिलाते चेहरे देख , उनके परिवारों को देख दिल में एक कसक सी उठती । शायद इससे बड़ी सजा और क्या मिलती अपनी नादानियों की .....................

क्रमशः .........................

शनिवार, 7 नवंबर 2009

यादों के झरोखे से भाग २ ...................

ज़िन्दगी धीरे- धीरे ढर्रे पर आने लगी । दोनों ही अपनी- अपनी तरफ़ से उस दुखद पल को भुलाने की कोशिश करने लगे मगर कहीं एक चुभन शायद दोनों के ही दिलों में कहीं बहुत गहरे बैठ गई थी। फिर भी दोनों ज़िन्दगी जीने की कोशिश में लग गए थे। आत्मग्लानि की वजह से रवि अपने को ज्यादा ही व्यस्त रखने लगा। वो अधिक से अधिक काम की वजहों से टूर पर जाने लगा और साथ ही उसकी महत्वाकांक्षाएं बढ़ने लगी थीं , कुछ पाने की , कुछ बनने की उसकी चाह जोर उठाने लगी थी। इधर मैंने भी अपनी पी० एच० डी ० पूरी करने की सोची और मैं भी ज़िन्दगी में एक मुकाम पाने की दिशा की ओर अग्रसर हो गई । शायद ख़ुद को व्यस्त रखकर हम दोनों ही सच से दूर भाग रहे थे या शायद अपने- अपने अहम् को संतुष्ट कर रहे थे। हम दोनों साथ थे मगर अपनी -अपनी दुनिया में व्यस्त रहने लगे। समय अपनी गति से खिसकता रहा । उसके बाद हमारी चार सालगिरह और आई मगर अब उनमें वो गर्माहट न होती । अब उत्साह ठंडा पड़ चुका था क्यूंकि भूतकाल की कटु याद जेहन में एक बार फिर डंक मारने लगती । हम साधारण तरीके से सालगिरह मनाते जैसे कोई औपचारिकता पूरी कर रहे हों।
वक्त के साथ मेरी पी ० एच ० डी ० पूरी हो चुकी थी और मैं अब कॉलेज में लेक्चरार लग गई थी। अब तो मुझे अपने आप पर एक गर्व महसूस होने लगा था और मैं अपनी सफलता के नशे में डूबने लगी थी । मेरे पैर जमीन पर नही पड़ते थे जैसे न जाने मैंने कौन सा गढ़ जीत लिया हो । शायद सफलता का नशा ऐसा ही होता है जो इंसान के सिर चढ़कर बोलता है । उधर रवि भी तरक्की की सीढियाँ चढ़ते हुए अपनी कंपनी का सी०ई०ओ० बन गया था। अब हमारे रहन सहन का स्तर बदल चुका था । आए दिन घर में पार्टियाँ होती थीं , बड़ी बड़ी बिज़नस मीटिंग्स होती थी। हम दोनों के पास बाकी सब कामों के लिए वक्त था बस अगर नही था तो एक दूसरे के लिए। दोनों ही सफलता के घोडे पर सवार आगे ही आगे बढ़ने की धुन में एक दूसरे को नज़रंदाज़ करते गए। कभी भी एक दूसरे का साथ निभाने या दूसरे को पुकारने की कोशिश ही नही करते । दोनों के अहम हमारे जेहन पर हावी हो गए थे। एक दूसरे की भावनाओं का कोई मोल नही रह गया था , कभी वो वक्त था जब हम सिर्फ़ एक दूसरे के लिए जीते थे और अब ये वक्त आ गया था कि दोनों सिर्फ़ अपने लिए ही जीने लगे। अगर रवि चाहता कि मैं उसके साथ कहीं घूमने जाऊँ या कोई फ़िल्म देखने चलूँ तो मुझे कोई न कोई काम होता और जब मैं चाहती तो रवि के पास वक्त न होता। हम दोनों ही शायद अपनी इस ज़िन्दगी से सामंजस्य नही बैठा पा रहे थे ............या शायद कोशिश ही नही करना चाहते थे । वक्त ने शायद हमारे बीच सदियों के फासले बो दिए थे जिन्हें सींचना अब नामुमकिन -सा होता जा रहा था। शायद सफलता के एक मुकाम पर आकर उसे बनाये रखना और भी मुश्किल होता है और उसकी कीमत भी हमें ही चुकानी पड़ती है। हम दोनों साथ रहकर भी अजनबियों सी ज़िन्दगी जीने लगे थे। आज एक- दूजे की भावनाओं की हमें कोई क़द्र ही नही रह गई थी । कितने संवेदनहीन हो गए थे हमारे ह्रदय।
धीरे- धीरे हमारे अहम् टकराने लगे.सिर्फ़ अपनी बात मनवाना चाहते थे एक दूसरे से, उसके लिए चाहे कुछ भी करना पड़े ,हम करते थे , धीरे- धीरे यही छोटी -छोटी बातें हमारी ज़िन्दगी में खाई बनने लगीं. बात -बात पर हम दोनों एक -दूसरे को तानाकशी करने लगे और हालत बद से बदतर होने लगे । और फिर एक दिन जब मेरी और रवि दोनों की ही सहनशीलता जवाब दे गई तो मैं रवि को छोड़कर अपने मायके आ गई। घर वाले इस अप्रत्याशित घटना से परेशान हो गए। रवि और मेरे घरवालों ने बहुत कोशिशें की कि हम दोनों एक- दूसरे को समझें क्यूंकि कोई भी समस्या ऐसी नही होती जिसका हल नही होता मगर हमारे अहम् सबसे ऊपर थे उस वक्त इसलिए हम दोनों में से किसी ने भी समझौता करने की नही सोची । और फिर एक दिन हमने तलाक लेने की सोची और आपसी सहमति से तलाक ले लिए। ज़िन्दगी के एक स्वर्णिम अध्याय का ऐसा अंत .......कभी स्वप्न में भी नही सोचा था..........................

क्रमशः ............................

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

यादों के झरोखों से ..................

आज भी याद है वो शाम जब अचानक तुम उस मन्दिर में मुझसे टकराए थे और मेरी पूजा की थाली गिर गई थी । कितने शर्मिंदा हुए थे तुम और फिर एक नई पूजा की थाली लाकर मुझे दी थी। भगवान के आँगन में हमारी मुलाक़ात शायद उसका एक इशारा था। उसी की इच्छा थी की हम उस पवित्र बंधन में बंधें और अपने रिश्ते को पूर्ण करें। उस मुलाक़ात के बाद तो जैसे तुम्हारा और मेरा रोज मन्दिर आना एक नियम सा बन गया था। हम दोनों ने एक दूसरे से बात करना भी शुरू कर दिया था । तब पता चला कि तुम इंजिनियर हो और मैं भी स्कूल में अध्यापिका थी । बहुत ही सुलझे हुए इंसान लगे तुम। हर बात को एक दम सटीक और नपे- तुले शब्दों में कहने की तुम्हारी अदा मुझे अच्छी लगने लगी। धीरे -धीरे तुम मेरे वजूद पर छाने लगे.............तुम्हारी हर बात , हर अदा मुझे तुम्हारी ओर खींचती। मैं अपने आप को जितना रोकने की कोशिश करती उतनी ही विफल होती गई.........शायद पहले प्यार का आकर्षण ऐसा ही होता है। जब तुम्हारी आंखों में झांकती तो उन गहराइयों में इतना गहरे उतर जाती कि ख़ुद को भी भूल जाती .........एक अजब आलम था .........हर पल तुम्हारा ही ख्याल रहता और तुम्हारा ही इंतज़ार। अब तक हम दोनों ने साथ जीने का निर्णय ले लिया था और फिर एक दिन तुम अचानक मेरे घर अपने माता -पिता के साथ आए और मेरा हाथ माँगा। दोनों ही परिवार में कोई भी ऐसा न था जो इस रिश्ते को ना कर पाता। सर्वगुण संपन्न रिश्ता घर बैठे मिल रहा था तो और चाहिए ही क्या था। दोनों परिवारों की आपसी सहमति से हम परिणय-सूत्र में बंध गए।
ज़िन्दगी सपनो के पंख लगाकर उड़ने लगी । रवि मेरी छोटी से छोटी इच्छा ,मेरी हर खुशी के लिए दिन- रात कुछ न देखते । बस मेरे चेहरे पर हँसी की लकीर देखने के लिए कुछ भी कर गुजरते। मेरे दिन- रात मेरे नही रहे थे सब रवि को समर्पित हो गए थे। मैं भी रवि की राहों में अपने प्रेम के पुष्प बिछाए रहती। रवि की हर इच्छा जैसे मेरे जीने का सबब बन जाती............दिन ख्वाबों के सुनहरे पंख लगाये उड़ रहे थे। एक -दूसरे में कभी कोई कमी ही नज़र न आती । सिर्फ़ प्रेम ही प्रेम था । हर कोई हमें देखकर यही कहता कि ये दोनों तो जैसे बने ही एक दूजे के लिए हैं । ऐसा सुनकर हम दोनों बहुत खुश होते ,अपने आप पर गर्व होता । पता ही नही चला कब एक साल गुजर गया।
उस दिन हमारी शादी की पहली सालगिरह थी । कितनी उमंगें थी हम दोनों के दिलों में। हम इस हसीन शाम को यादगार बनाना चाहते थे और उन सब लोगो को शामिल करना चाहते थे जिनकी निगाहों में हम आदर्श दंपत्ति थे। फिर तुमने एक पार्टी का आयोजन किया और हम दोनों के दोस्तों को बुलाया ताकि इस हसीन शाम का आनंद अलग ही हो जो बरसों भुलाये न भुला जा सके।
पार्टी हॉल में तुम अपने दोस्तों के साथ मेरा इंतज़ार कर रहे थे और जब मैं तैयार होकर वहां आई तो मुझे देखकर तुम बुत बने रह गए थे..........तुम्हारी उस अदा ने तो जैसे मेरी जान ही ले ली थी। ज़िन्दगी में कभी ऐसे क्षणों के बारे में नही सोचा था सब एक सपना सा लग रहा था। उस दिन तुम्हारे पाँव जमीन पर नही पड़ रहे थे। केक काटने के बाद जब रात गहराने लगी तब तुमने भावनाओं के अतिरेक में बहकर एक खवाहिश जाहिर की कि मैं भी तुम्हारे साथ एक पैग लूँ। मैं स्तब्ध रह गई तुम्हारे वो शब्द सुनकर। मेरी प्यार की सारी खुमारी तुम्हारे इन शब्दों से उतरने लगी। तुम्हें अच्छी तरह पता था कि मैं उस तरह को सोच की नही हूँ मगर फिर भी उस दिन की खुशी में या अपने प्यार के नशे में डूबे तुम मुझसे जिद करने लगे कि आज के दिन निशा तुम मुझे ये एक छोटा सा उपहार भी नही दे सकती । मैं जो रवि के लिए कभी भी कुछ भी कर सकती थी उस वक्त सकते में आ गई कि आज ये रवि को क्या हो गया है । आज से पहले तुमने कभी ऐसी कोई फरमाइश नही की थी और न ही कभी ऐसी जिद पकड़ी थी। मगर उस दिन न जाने रवि को क्या हो गया था वो मुझसे सबके सामने जिद करने लगा और मैं उस वक्त ख़ुद को लज्जित महसूस करने लगी जब तुम मुझे जबरन पिलाने की कोशिश करने लगे। और फिर मैं तुम्हारी ज्यादती बर्दाश्त न कर पाई और पार्टी बीच में छोड़कर घर आ गई। बस वो रात , सारी रात गरजती रही और बरसती रही। एक खामोशी पसर गई दोनों के बीच। काफी दिन तक तुम मुहँ छुपाते फिरते रहे शायद तुम्हें अपने किए पर पछतावा था और फिर तुमने अपने किए पर मुझसे माफ़ी मांगी और शायद अपनी ज़िन्दगी की ये पहली लड़ाई थी इसलिए मैंने भी तुम्हें जल्दी माफ़ कर दिया ये सोचकर की कई बार हमारी अपेक्षाएं कुछ ज्यादा बढ़ जाती हैं तो उन्हें पूरा करने के लिए हम सही ग़लत कुछ नही सोच पाते शायद ऐसा ही रवि के साथ हुआ था...........................मगर ज़िन्दगी के सबसे हसीन पल सबसे दुखद पल में बदल गए थे .............एक ऐसी याद बन गए थे जो कभी मिटाए नही मिट पायी...................

क्रमशः ................................

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

श्रीमद्भागवद्गीता से .........................

श्रीमद्भागवद्गीता के १२ वे अध्याय के १५ वे श्लोक की बहुत ही सुंदर व्याख्या स्वामी रामसुखदास जी ने की है कि भक्त कैसा होता है और कैसा भक्त भगवान को प्रिय है।

श्लोक

जिससे किसी प्राणी को उद्वेग नही होता और जिसको ख़ुद भी किसी प्राणी से उद्वेग नही होता तथा जो हर्ष , अमर्ष (इर्ष्या), भय, और उद्वेग से रहित है , वह मुझे प्रिय है।


व्याख्या

भक्त सबमें और सर्वत्र अपने परमप्रिय प्रभु को ही देखता है। अतः उसकी दृष्टि में मन , वाणी और शरीर से होने वाली संपूर्ण क्रियायें एकमात्र भगवान की प्रसन्नता के लिए होती हैं। ऐसी अवस्था में भक्त किसी भी प्राणी को उद्वेग कैसे पहुँचा सकता है ? फिर भी भक्तों के चरित्र में ये देखने में आता है कि उनकी महिमा , आदर सत्कार यहाँ तक की उनकी सौम्य आकृति मात्र से भी कुछ लोग इर्श्यावश उद्गिन हो जाते हैं और भक्तों से अकारण द्वेष और विरोध करने लगते हैं । भक्त की क्रियाएं कभी किसी के उद्वेग का कारण नही होती क्यूंकि भक्त प्राणिमात्र में भगवान को ही देखता है । उसके द्वारा भूल से भी किसी के अहित की चेष्टा नही होती। जिनको उससे उद्वेग होता है वह उनके अपने राग - द्वेष युक्त आसुर स्वभाव के कारण होता है ,जो होता है वो उनके अपने स्वभाव के कारण होता है तो इसमें भक्त का क्या दोष?
हिरन , मछली और सज्जन क्रमशः तिनके , जल और संतोष पर ही जीवन निर्वाह करते हैं परन्तु व्याध , मछुए और दुष्ट्लोग अकारण ही इनसे वैर रखते हैं ।
भक्तों से द्वेष रखने वाले भी उनके चिंतन संग , स्पर्श और दर्शन से अपना आसुर स्वभाव छोड़कर भक्त हो गए ----ऐसा होने में भक्तों का उदारतापूर्ण स्वभाव ही सेतु है। परन्तु भक्तों से द्वेष रखने वाले सभी लोगों को लाभ ही मिलता हो ऐसा कोई नियम नही है।
लोगों को अपने आसुर स्वाभाव के कारण भक्त की हितकर क्रियाओं से भी उद्वेग हो जाता है और वे बदले की भावना से भक्त के विरुद्ध चेष्टा कर सकते हैं तथा अपने को भक्त का शत्रु मान सकते हैं परन्तु भक्त की दृष्टि में न कोई शत्रु होता है और न ही उद्वेग का भावः।
वास्तविकता का बोध होने और भगवान में अत्यन्त प्रेम होने के कारण भक्त भगवत्प्रेम में इतना निमग्न रहता है कि उसको सर्वत्र और सबमें भगवान के ही दर्शन होते हैं और भगवान की ही लीला दिखाई देती है। मनुष्य को दूसरों से उद्वेग तभी होता है जब उसकी कामना,मान्यता , साधना धारणा आदि का विरोध होता है । भक्त सर्वथा पूरनकाम होता है इसलिए दूसरों से उद्वेग होने का कोई कारण ही नही रहता।
किसी के उत्कर्ष को सहन न करना अमर्ष कहलाता है । दूसरों को अपने से अधिक सुविधा संपन्न प्राप्त हुआ देखकर साधारण मनुष्य के अंतःकरण में इर्ष्या का भावः पैदा होता है क्यूंकि उसको दूसरों का उत्कर्ष सहन नही होता । कई बार साधकों के मन में भी दूसरे साधको की आध्यात्मिक उन्नति देखकर इर्ष्या का भावः जागृत हो जाता है पर भक्त इस विकार से सर्वथा रहित होता है क्यूंकि उसकी दृष्टि में अपने प्रभु के सिवाय और किसी की स्वतंत्र सत्ता नही होती तो फिर क्यूँ और किससे अमर्ष करे।
अगर साधक के मन में दूसरों की आध्यात्मिक उन्नति देखकर ऐसा भावः पैदा हो कि मेरी भी ऐसी ही अध्यात्मिक उन्नति हो तो ये भाव उसके साधन में सहायक होता है। मगर ग़लत भावः अमर्ष पैदा करने वाला होता है।
इष्ट के वियोग और इष्ट के संयोग की आशंका से होने वाले विकार को भय कहते हैं। भय दो कारणों से होता है --------बाहरी कारण जैसे सिंह , सौंप , चोर आदि, दूसरा भीतरी कारण जैसे चोरी , झूठ , कपट आदि से होने वाला भय।
सबसे बड़ा भय मौत का होता है । विवेकशील कहे जाने वाले लोगों को भी प्रायः मौत का भय बना रहता है । साधक को भी सत्संग, भजन आदि में कृश होने का भय रहता है या उसको अपने परिवार के भरण पोषण का भय रहता है । ये सभी भय शरीर की जड़ता के आश्रय से पैदा होते हैं परन्तु भक्त सदा भगवान के आश्रित रहता है इसलिए भयमुक्त रहता है । साधक को भी तभी तक भय जब तक वह भगवान के आश्रित नही होता। सिद्ध भक्त तो सब जगह अपने भगवान की लीला देखते हैं तो भगवान की लीला उनके मन में भय कैसे पैदा कर सकती है।
मुक्त पद का अर्थ है सर्वथा विकारों से छूटा हुआ। अंतःकरण में संसार का आदर रहने से अर्थात परमात्मा में पूर्णतया मन बुद्धि न लगने से ही हर्ष,अमर्ष,भय, उद्वेग आदि विकार उत्पन्न होते हैं । परन्तु भक्त की दृष्टि में एक भगवान के सिवाय अन्य किसी की स्वतंत्र सत्ता और महत्ता होती ही नही इस कारण उसमें ये विकार उत्पन्न ही नही होते।
गुणों का अभिमान करने से दुर्गुण अपने आप आ जाते हैं । अपने में किसी गुण के आने पर अभिमान रूप दुर्गुण उत्पन्न हो जाए तो उस गुण को गुण कैसे माना जा सकता है। भक्त को इस बात की जानकारी ही नही होती की मेरे में कोई गुण है। अगर उसको अपने में कोई गुण दीखता भी है तो वो उसे भगवान का ही मानता है अपना नही। इस प्रकार गुणों का अभिमान न होने के कारण भक्त सभी दुर्गुण दुराचारों विकारों से मुक्त होता है ।
भक्त को भगवान प्रिय होते हैं इसलिए भगवान को भी भक्त प्रिय होते हैं।

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

श्रीमद्भागवद्गीता से ....................

श्रीमद्भागवद्गीता के सातवें अध्याय के २३ वे श्लोक की व्याख्या स्वामी रामसुखदास जी ने कुछ इस प्रकार की है...............

श्लोक

परन्तु उन अल्पबुद्धि वाले मनुष्यों को उन देवताओं की आराधना का फल अन्तवाला(नाशवान) ही मिलता है । देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को ही प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मेरे को ही प्राप्त होते हैं।

व्याख्या


देवताओं की उपासना करने वाले अल्पबुद्धि मन्ष्यों को अन्तवाला अर्थात सीमित और नाशवान फल मिलता है। यहाँ शंका होती है कि भगवन के द्वारा विधान किया हुआ फल तो नित्य ही होना चाहिए फिर उसको अनित्य फल क्यूँ मिलता है? इसका समाधान ये है कि एक तो उनमें नाशवान पदार्थों की कामना की और दूसरी बात , वे देवताओं को भगवान से अलग मानते हैं । इसलिए उनको नाशवान फल मिलता है । परन्तु उनको दो उपायों से अविनाशी फल मिल सकता है ------एक तो वे कामना न रखकर देवताओं की उपासना करें तो उनको अविनाशी फल मिल सकता है और दूसरी बात ,वे देवताओं को भगवान से भिन्न न समझकर , अर्थात भगवत्स्वरूप ही समझकर उनकी उपासना करें तो यदि कामना रह भी जायेगी तो भी समय पाकर उनको अविनाशी फल मिल सकता है अर्थात भगवत्प्राप्ति हो सकती है ।

फल तो भगवान का विधान किया हुआ है मगर कामना होने से वो नाशवान हो जाता है । कहने का तात्पर्य ये है कि उनको नियम तो अधिक धारण करने पड़ते हैं पर फल सीमित मिलता है परन्तु मेरी आराधना में इन नियमों की जरूरत नही है और फल भी असीम और अनंत मिलता है । इसलिए देवताओं की उपासना में नियम अधिक और फल कम और मेरी आराधना में नियम कम और फल अधिक और कल्याणकारी हो , ऐसा जानने पर भी जो मनुष्य देवताओं की उपासना में लगे रहते हैं वो अल्पबुद्धि हैं।

देवताओं की उपासना करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरी उपासना करने वाले मेरे को इसका अर्थ है कि मेरी उपासना करने वालों की कामना पूर्ति भी हो सकती है और मेरी प्राप्ति भी हो सकती है अर्थात मेरे भक्त सकाम हों या निष्काम , वे सब के सब मेरे को ही प्राप्त होते हैं परन्तु भगवान की उपासना करने वालों की सब कामना पूर्ण हो जायें ऐसा नियम नहीं है । भगवान उचित समझेंगे तो पूरी कर देंगे अर्थात जिसमें भक्त का हित होगा वो तो पूरा कर देंगे और अहित होने पर जितना भी रो लो , पुकार लो वो उसे पूरा नही करते।
भगवान का भजन करने वाले को भगवान की स्मृति रहती है क्यूंकि ये सम्बन्ध सदा रहने वाला है अतः भगवान को प्राप्त करने पर फिर संसार में लौट कर नही आना पड़ता परन्तु देवताओं का सम्बन्ध सदा रहने वाला नही है क्यूंकि वह कर्मजनित है। इसलिए संसार में फिर लौटकर आना पड़ता है।

सब कुछ भगवत्स्वरूप ही है और भगवान् का विधान भी भगवत्स्वरूप है ----------ऐसा होते हुए भी भगवान से भिन्न संसार की सत्ता मानना और अपनी कामना रखना --------ये दोनों ही पतन के कारण हैं। इनमें से यदि कामना का सर्वथा नाश हो जाए तो संसार भगवत्स्वरूप दिखने लग जाएगा और यदि संसार भगवत स्वरुप दिखने लग जाएगा तो कामना मिट जायेगी।

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

श्रीमद्भागवद्गीता से .......................

श्रीमद्भागवद्गीता के सातवें अध्याय के २२ वें श्लोक में भगवान् देवताओं की उपासना के बारे में समझाते हैं और इसका बहुत ही सुंदर वर्णन स्वामी रामसुखदास जी ने इस प्रकार किया है ----------

श्लोक

उस (मेरे द्वारा दृढ़ की हुई ) श्रद्धा से युक्त होकर वह मनुष्य (सकामभावपूर्वक )उस देवता की उपासना करता है और उसकी वह कामना पूरी भी होती है ;परन्तु वह कामना -पूर्ति मेरे द्वारा विहित की हुई होती है ।

व्याख्या

मेरे द्वारा दृढ़ की हुई श्रद्धा से संपन्न हुआ वह मनुष्य उस देवता की आराधना की चेष्टा करता है और उस देवता से जिस कामना पूर्ति की आशा रखता है, उस कामना की पूर्ति होती है । यद्यपि वास्तव में उस कामना की पूर्ति मेरे द्वारा की हुई होती है ;परन्तु वह उसको देवता से ही पूरी की हुई मानता है । वास्तव में देवताओं में मेरी ही शक्ति है और मेरे ही विधान से वे उनकी कामनापूर्ति करते हैं।

जैसे सरकारी अफसरों को एक सीमित अधिकार दिया जाता है कि तुम लोग अमुक विभाग में अमुक अवसर पर इतना खर्च कर सकते हो , इतना इनाम दे सकते हो। ऐसे ही देवताओं में एक सीमा तक ही देने की शक्ति होती ;अतः वे उतना ही दे सकते हैं , अधिक नही । देवताओं में अधिक से अधिक इतनी शक्ति होती है कि वे अपने-अपने उपासकों को अपने -अपने लोक में ले जा सकते हैं । परन्तु अपनी उपासना का फल भोगने पर उनको वहां से लौटकर पुनः संसार में आना पड़ता है ।

संसार में स्वतः जो कुछ सञ्चालन हो रहा है वह सब मेरा ही किया हुआ है । अतः जिस किसी को जो कुछ मिलता है , वह सब मेरे द्वारा विधान किया हुआ ही मिलता है । कारण कि मेरे सिवाय विधान करने वाला कोई दूसरा नही है । अगर कोई मनुष्य इस रहस्य को समझ ले । तो फिर वह केवल मेरी तरफ़ ही खींचेगा।

कहने का तात्पर्य ये हुआ कि सर्व शक्ति मान तो एक ही है बस उसी को इंसान नही समझ पाता और इधर उधर भागता -फिरता है । एक का दामन पकड़ ले तो उसका कल्याण निश्चित है। बस वो श्रद्धा और विश्वास अटल होना चाहिए।

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

श्रीमद्भागवद्गीता से ...............

श्रीमद्भागवद्गीता के सातवें अध्याय के २१ वें श्लोक में भगवान प्रत्येक देवता के प्रति श्रद्धा का बखान कर रहे हैं। स्वामी रामसुखदास जी ने इसकी बहुत ही सुंदर व्याख्या की है ।
श्लोक

जो- भक्त जिस -जिस देवता का श्रद्धा पूर्वक पूजन करना चाहता है ,उस- उस देवता के प्रति मैं उसकी श्रद्धा को दृढ़ कर देता हूँ ।

व्याख्या

भगवान कहते हैं ------जो- जो मनुष्य जिस- जिस देवता का भक्त होकर श्रद्धा पूर्वक भजन -पूजन करना चाहता है उस -उस मनुष्य की श्रद्धा उस -उस देवता के प्रति में अचल कर देता हूँ । वे दूसरों में न लगकर मेरे में ही लग जायें -------ऐसा मैं नही करता। यद्यपि उन देवताओं में लगने से कामना के कारण उनका कल्याण नही होता ,फिर भी मैं उनको उनमें लगा देता हूँ तो जो मेरे में श्रद्धा - प्रेम रखते हैं ,अपना कल्याण करना चाहते हैं ,उनकी श्रद्धा को मैं अपने प्रति कैसे दृढ़ नही करूंगा अर्थात अवश्य करूंगा, कारण कि मैं प्राणिमात्र का सुहृद हूँ ।
इस पर शंका होती है कि आप सबकी श्रद्धा अपने में ही क्यूँ नही दृढ़ करते?इस पर भगवान मानो ये कहते हैं कि अगर में सबकी श्रद्धा को अपने प्रति दृढ़ करूँ तो मनुष्यजन्म कि स्वतंत्रता और सार्थकता कहाँ रही ?तथा मेरी स्वार्थपरता का त्याग कहाँ हुआ? अगर लोगो को अपने में ही लगाने का आग्रह करें तो ये कोई बड़ी बात नही क्यूंकि ऐसा बर्ताव तो दुनिया के स्वार्थी जीवों का होता है । अतः मैं ऐसा स्वभाव सिखाना चाहता हूँ जिससे मनुष्य अपने स्वार्थों का त्याग करके अपनी पूजा प्रतिष्ठा में ही न लगा रहे ,किसी को पराधीन न बनाये।
अब दूसरी शंका ये उठती है कि आप उनकी श्रद्धा को उन देवताओं के प्रति दृढ़ कर देते हैं इससे आपकी साधुता तो सिद्ध हो गई ,पर उन जीवों का तो आपसे विमुख होने पर अहित ही हुआ न ? इसका समाधान ये है कि अगर में उनकी श्रद्धा को दूसरों से हटाकर अपने में लगाने का भावः रखूँगा तो उनकी मेरे में अश्रद्धा हो जायेगी। परन्तु अगर में अपने में लगाने का भावः नही रखूँगा और उन्हें स्वतंत्रता दूंगा तो जो बुद्धिमान होंगे वे मेरे इस बर्ताव को देखकर मेरी ओरे आकृष्ट होंगे। अतः उनके उद्धार का यही तरीका बढ़िया है।
अब तीसरी शंका यह होती है कि जब आप स्वयं उनकी श्रद्धा को दृढ़ कर देते हैं तो फिर कोई उस श्रद्धा को मिटा ही नही सकता। फिर तो उसका पतन होता ही चला जाएगा। इसका समाधान ये है कि मैं उनकी श्रद्दा को देवताओं के प्रति दृढ़ करता हूँ दूसरों के प्रति नही -------ऐसी बात नही है । मैं तो उनकी इच्छा के अनुसार ही उनकी श्रद्धा को दृढ़ करता हूँ और अपनी इच्छा को बदलने में मनुष्य स्वतंत्र है, योग्य है। इच्छा को बदलने में वे परवश ,निर्बल और अयोग्य नही है । अगर इच्छा को बदलने में वे परवश होते तो फिर मनुष्यजन्म की महिमा ही कहाँ रही ? और इच्छा (कामना) का त्याग करने की आज्ञा भी मैं कैसे दे सकता था।

रविवार, 18 अक्तूबर 2009

श्रीमद भगवद्गीता से ...............

श्रीमद भगवद्गीता के सातवें अध्याय का ४० वां श्लोक आज के सन्दर्भ में कितना सटीक है । आज इसका थोड़ा सा वर्णन लिख रही हूँ जो स्वामी रामसुखदास जी ने किया है ।
श्लोक
श्री भगवन बोले -----हे पृथानन्दन !उसका ने तो इस लोक में और न परलोक में ही विनाश होता है क्यूंकि हे प्यारे ! कल्याणकारी काम करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को नही जाता ।

व्याख्या
जिसको अन्तकाल में परमात्मा का स्मरण नही होता उसका कहीं पतन तो नही हो जाता ----इस बात को लेकर अर्जुन के ह्रदय में व्याकुलता है । यह व्याकुलता भगवान से छिपी नही है ,इसलिए भगवान पहले इसी प्रश्न का उत्तर देते हैं।
भगवान कहते हैं -----हे प्रथानंदन जो साधक अन्तसमय में किसी कारणवश योग से ,साधन से विचलित हो जाता है वह योगभ्रष्ट साधक मरने के बाद चाहे इस लोक में जनम ले या परलोक में जनम ले उसका पतन नही होता। तात्पर्य है कि उसकी योग में जितनी स्थिति बन चुकी है उससे नीचे नही गिर सकता। उसकी साधन सामग्री नष्ट नही होती। जैसे भरत मुनि जो भारतवर्ष का राज छोड़कर एकांत में तप करने चले गए थे मगर दयापरवश होकर एक हिरन के बच्चे में आसक्त हो गए जिससे दूसरे जनम में उन्हें हिरन बनना पड़ा परन्तु जितना त्याग,तप साधना उन्होंने पिछले जनम में की थी वह नष्ट नही हुयी ,उनको हिरन के जनम में भी वो सब याद था जो मनुष्य जनम में भी याद नही रहता अर्थात हिरन के जनम में भी उनका पतन नही हुआ। इसी तरह पहले जनम में मनुष्य जिनका स्वभाव सेवा करने का होता है वे किसी कारणवश योगभ्रष्ट हो भी जायें तो भी उनका वह स्वभाव नष्ट नही होता फिर चाहे वो अगले जनम में पशु पक्षी ही क्यूँ न बन जायें, परोपकार की भावना उनमें उसी तरह बनी रहती है। ऐसे बहुत से उदहारण आते हैं। एक जगह कथा होती थी तो एक कला कुत्ता वहां आकर बैठता था और कथा सुनता था । जब कीर्तन करते हुए कीर्तन मण्डली घूमती तो उस मंडली के साथ वह कुत्ता भी घूमता था।

भगवान कहते हैं कि जो मनुष्य कल्याणकारी कामों में लगा रहता है उसका कभी पतन नही होता क्यूंकि उसकी रक्षा मैं करता रहता हूँ फिर उसकी दुर्गति कैसे हो सकती है। जो मनुष्य मेरी तरफ़ चलता है वह मुझे बहुत ही प्यारा लगता है क्यूंकि वास्तव में वो मेरा ही अंश है संसार का नही उसका वास्तविक सम्बन्ध मेरे साथ है संसार के साथ नही । उसने मेरे साथ इस वास्तविक सम्बन्ध को पहचान लिया फिर उसकी दुर्गति कैसे हो सकती है ?उसका साधन कैसे नष्ट हो सकता है ? हाँ कभी कभी उसका साधा छूटा हुआ सा दीखता है तो ये स्थिति उसके अभिमान के कारण आती है और मैं उसीचेतना के लिए उसके सामने ऐसी घटना घटा देता हूँ जिससे व्याकुल होकर वह फिर मेरी तरफ़ चलने लगता है। जैसे गोपियों का अभिमान देखकर रास से ही अंतर्धान हो गया मैं तो सब गोपियाँ घबरा गयीं। जब वे विशेष व्याकुल हो गई तब मैं उन गोपियों के समुदाय के बीच में ही प्रगट हो गया और उनके पूछने पर कहा ---------तुम लोगो का भजन करता हुआ ही मैं अंतर्धान हुआ था तुम लोगो की याद और तुम लोगों का हित मेरे से छूटा नही है । इसका तात्पर्य ये है की अनंत जन्मों से भूला हुआ ये प्राणी जब केवल मेरी तरफ़ लगता है तब वह मेरे को प्यारा लगता है क्यूंकि उसने अनेक योनियों में बहुत दुःख पाए हैं और अब वह सन्मार्ग पर आ गया है। उसी तरह उसके हितों की रक्षा करता हूँ जैसे एक माँ अपने बच्चे की करती है।

तात्पर्य ये है कि जिसके भीतर एक बार साधन के संस्कार पड़ गए हैं वे संस्कार कभी नष्ट नही होते कारण कि उसी परमात्मा के लिए जो काम किया जाता है वह सत हो जाता है अर्थात उसका कभी अभाव नही होता। कल्याणकारी काम करने वाले किसी व्यक्ति की दुर्गति नही होती उसके जितने सद्भाव होते हैं ,जैसा स्वभाव होता है वह प्राणी किसी कारण वशात किसी नीच योनी में भी चला जाए तो भी उसके सद्भाव उसका कल्याण करना नही छोडेंगे ।

अब प्रश्न उठता है कि अजामिल जैसा शुद्ध ब्रह्मण भी वेश्यागामी हो गया,विल्वमंगल भी चिंतामणि नाम की वेश्या के वश में हो गए तो इनका इस जीवित अवस्था में ही पतन कैसे हो गया?इसका समाधान ये है कि उन लोगों का पतन हो गया ऐसा दीखता है मगर वास्तव में उनका पतन नही उद्धार ही हुआ है। अजामिल को लेने भगवान के पार्षद आए और विल्वमंगल भगवान के भक्त बन गए। इस प्रका रवो पहले भी सदाचारी थे और बाद में भी उद्धार हो गया सिर्फ़ बीच में उनकी दशा अच्छी नही थी। तात्पर्य ये हुआ की किसी विघ्न बाधा से, किसी असावधानी से उसके भावः और आचरण गिर सकते हैं ,परन्तु पहले का किया हुआ साधन कभी नष्ट नही होता ,उसकी वो पूँजी वैसी की वैसी ही रहती है और जब अच्छा संग मिलता है तब वो भावः तेजी से उदय होने लगते हैं और वो तेजी से भगवन की ओर चलने लगता है। इससे यही शिक्षा मिलती है कि हमें हर समय सावधान रहना चाहिए जिससे हम किसी कुसंगत में न पड़ जायें और अपना साधन न छोड़ दें।

सोमवार, 5 अक्तूबर 2009

अमर प्रेम -----------अन्तिम भाग

गतांक से आगे .........................

अब अर्चना गहन अंधकार और निराशा में डूबती चली गई और दिन पर दिन खामोश होती चली गई । उसके जीने की इच्छा ही जैसे खत्म होती चली गई । धीरे- धीरे उसकी सेहत गिरने लगी । समीर डॉक्टर को दिखाता , एक से बढ़कर एक इलाज कराता मगर हर इलाज बेअसर होने लगा। अब तो अर्चना ने कवितायेँ लिखना भी छोड़ दिया ------पहले तो कभीकभी एक-दो कवितायेँ प्रकाशक को भेजती रहती थी मगर अब कुछ महीनो से वो भी बंद हो चुका था । किसके लिए लिखे और कैसे लिखे जब जीवन की हर चाह ही ख़त्म हो चुकी हो । धीरे -धीरे उसके प्रशंसकों ने पूछना आरम्भ कर दिया कि क्या हो गया है जो अर्चना की कवितायेँ अब नही छपती , इस पर प्रकाशक को पता करना पड़ा और पता चलने पर उसने पत्रिका में छाप दिया कि बीमारी की वजह से अर्चना कवितायेँ नही लिख पा रही है। जैसे ही अर्चना के प्रशंसकों को पता चला रोज न जाने कितने ख़त और फूलों के गुलदस्ते उसकी अच्छी सेहत की कामना करते हुए आने लगे।
अब अर्चना की हालत और ख़राब हो चली । वो उठने बैठने में भी असमर्थ हो गई और खाना पीना तो कब का छूट चुका था। समीर और बच्चों का बुरा हाल था अर्चना का ये हाल देखकर। समीर पूछ -पूछ कर हार गया कि क्या बात है जो अर्चना को खाए जा रही है , क्या उससे कोई गलती हो गई है या उसकी कोई खास इच्छा है जो पूरी न हो पाई हो तो बस एक बार बता दे तो वो जान देकर भी वो इच्छा पूरी करेगा मगर उसके बिना जीना मुमकिन न होगा। मगर अर्चना ने तोखामोशी को ऐसे ओढ़ लिया था कि समीर की आवाज़ उसके कानों पर पड़ी भी या नही कोई कह ही नही सकता था। एक दम जड़ हो गई थी अर्चना। इतनी हालत बिगड़ने पर अर्चना को अस्पताल में दाखिल करना पड़ा। वहां रोज उसके प्रशंसक उससे मिलने आते मगर अर्चना की निगाह कभी किसी की तरफ़ न उठती सिर्फ़ दरवाज़े पर टकटकी लगाये रहती। डॉक्टर भी निराश हो चुके थे। समीर जानना चाहता था कि आख़िर अर्चना को हुआ क्या है मगर डॉक्टर कोई जवाब न दे पाते सिवाय इसके कि उसकी जीने की इच्छा ही खत्म हो चुकी है। जब तक उसमें ख़ुद वो इच्छा जागृत नही होती वो कुछ नही कर सकते। समीर और बच्चों की दुनिया तो सिर्फ़ अर्चना के इर्द-गिर्द ही घूमती थी। उनका तो पूरा जहान ही अर्चना थी और वो उसे तिल-तिलकर मरते देख रहे थे और कुछ कर नही पा रहे थे। बच्चे बहुत कोशिश करते , उसे कभी हंसाने की तो कभी रुलाने की कोशिश करते मगर अर्चना तो जैसे कब की इस दुनिया की हर चीज़ हर इंसान से नाता तोड़ चुकी थी,उस पर कोई असर न होता सिर्फ़ जिंदा लाश की तरह दरवाज़े को देखती रहती। समीर और बच्चे निराश और हताश सिर्फ़ अर्चना की ओर निहारते रहते।
अर्चना के जीवन की डोर न जाने कहाँ अटकी हुयी थी। न जाने किसका इंतज़ार था उसे । न खाना, न सोना, न हँसना , न रोना , न किसी से कुछ कहना । हर दवा बेअसर होने लगी ।
उधर अर्चना के हाल की जानकारी जब अजय को मिली तो वो बेहाल हो गया और उसी क्षण अर्चना के शहर की ओर दौड़ा। उसका एक -एक पल अनेकों युगों के समान बीत रहा था। उसकी हर साँस जैसे सिर्फ़ अर्चना की सांसों के साथ ही चल रही थी , वो उड़कर अर्चना के पास पहुँच जाना चाहता था। ऐसे में वक्त न जाने क्यूँ निष्ठुर बन जाता है , चाहने वालों का तो जैसे दुश्मन ही बन जाता है या कहो वक्त दुश्मन दिखाई देने लगता है ऐसे क्षणों में ।
इधर अर्चना का तन निष्क्रिय होने लगा। शरीर की नसों ने भी कोई भी दवा स्वीकार करने से इंकार कर दिया था। शरीर निश्चेतन होने लगा , कहीं कोई चेतना बाकी न रही सिर्फ़ नयन दरवाज़े पर अटके थे। लगता था जैसे शरीर का सारा लहू सुख चुका हो सिर्फ़ साँसे ही थी जो न जाने कैसे अटक -अटक कर आ रही थी , पता नही कहाँ रुकी थी। धड़कनें भी खामोश होने लगी थी ------शायद अर्चना के निश्चेतन मन को अब भी एक आस थी कि मरने से पहले सिर्फ़ एक बार अजय का दीदार हो जाए और वो सुख की नींद सो जाए। अब तो अर्चना की वो आशा भी धूमिल होती जा रही थी और हालत और बिगड़ती जा रही थी । हर आती -जाती साँस पर लगता कि बस यही आखिरी साँस है । किसी भी क्षण कुछ भी हो सकता है । सभी बेबस,लाचार हो अर्चना को जाते देख रहे थे । समीर और बच्चे फ़ुट-फूटकर रो रहे थे। अब अर्चना को जैसे ही एक तेज हिचकी आई तभी अजय दरवाज़े पर दिखाई दिया और अर्चना की रूह वहीँ खामोश हो गई । बिना कुछ कहे , बिना अजय से मिले अर्चना अनन्त में विलीन हो गई । मगर अजय जैसे ही अर्चना के पास गया , उसकी बर्फ की मानिन्द सर्द देह को जैसे ही छुआ , बिना कुछ बोले, उसकी आँखें पथरा गयीं, साँस थम गई और रूह खामोश हो गई।
लोगों ने समझा की अर्चना का प्रशंसक है उसके जाने के सदमे को बर्दाश्त नही कर पाया मगर आज अजय ने प्रेम को अमर कर दिया। आज उसका प्रेम दिव्यता को छू गया जहाँ एक के होने से ही दूसरे का अस्तित्व होता है वरना नही ........दुनिया को दिखा गया। दोनों प्रेम के महासागर में समा गए और अपने प्रेम को अमर कर गए।

समाप्त


अब एक और नज़रिया देखिये क्या ऐसे नही हो सकता इस कहानी का अंत
धड़कनें भी खामोश होने लगी थी ------शायद अर्चना के निश्चेतन मन को अब भी एक आस थी कि मरने से पहले सिर्फ़ एक बार अजय का दीदार हो जाए और वो सुख की नींद सो जाए। अब तो अर्चना की वो आशा भी धूमिल होती जा रही थी और हालत और बिगड़ती जा रही थी । हर आती -जाती साँस पर लगता कि बस यही आखिरी साँस है । किसी भी क्षण कुछ भी हो सकता है । सभी बेबस,लाचार हो अर्चना को जाते देख रहे थे । समीर और बच्चे फ़ुट-फूटकर रो रहे थे। अब अर्चना को जैसे ही एक तेज हिचकी आई तभी अजय दरवाज़े पर दिखाई दिया और अर्चना की रूह वहीँ ठहर गयी आस की उम्मीद ने बुझते दिए की लौ बढ़ा दी।  अचानक से डॉक्टर हरकत में आ गए जैसे ही अर्चना की आँखों में जीने की ललक की एक क्षीण सी लकीर देखी और फ़ौरन हाथ पकड़ कर लगभग घसीटते हुए से अजय को जल्दी से अर्चना के पास लाये क्योंकि एक डॉक्टर ही होता है जो जान लेता है अपने मरीज का हाल , उसकी सांस सांस को गिन लेता है किस पल किस सांस पर आस की दीप जगमगाया और ऐसा ही अहसास डॉक्टर को हुआ जब उसने अजय को दरवाज़े पर देखा और अर्चना की आँख में जीवन की निशानी इसलिए अजय को अर्चना के पास बैठा कर बाकी सबको बाहर कर अपने काम में लग गए क्योंकि अब अर्चना की सांसें स्थिर होने लगी थीं , नब्ज़ जो थमने लगी थी स्पंदित होने लगी थी , ज़िन्दगी का राग वहाँ गुंजायमान होने लगा था और आँखों से जैसे एक समंदर अपनी सारी मर्यादाओं को तोड़ बहने लगा था। बाहर आकर डॉक्टर ने अर्चना की हालत अब खतरे से बाहर है जैसे ही बताया तभी बच्चों और समीर की जान में जान आयी , जाने कितने ही भगवानों का शुक्रिया अदा करने लगे और डॉक्टर के भी शुक्रगुजार होने लगे तो डॉक्टर बोला , मिस्टर समीर हम तो हर उम्मीद खो ही चुके थे हमारा शुक्रगुजार मत हो बल्कि उस शख्स का होना जो अंदर बैठा है , जिसके आने के बाद पेशेंट की आँखों में मैंने जीने की ललक देखी  और देखिये चमत्कार कि वो अब नॉर्मल होती जा रही हैं कहकर डॉक्टर तो चला गया मगर समीर तो अजब पशोपेश में फंस गया आखिर वो अजनबी कैसे अर्चना में जीवन जीने की ललक भर गया जहाँ उम्मीद किनारा कर चुकी थी वहाँ कैसे ये चमत्कार हुआ सोचते हुए अंदर गया और बच्चों के साथ अजय का शुक्रगुजार होने लगा कि उसके आने से आज अर्चना को नया जीवन मिल गया लेकिन मैंने आपको पहचाना नहीं ? क्या आप अर्चना के कोई रिश्तेदार हैं जो इतने वक्त बाद मिले हैं कि अर्चना को मौत के मुँह से वापस ले आये ? तब अजय ने बताया मैं अर्चना का कोई नहीं हूँ , बस एक चित्रकार हूँ जो अर्चना की कविताओं का फैन है और अर्चना उसकी चित्रकारी की बस इतना सा रिश्ता है हमारा ,वैसे काफी टाइम पहले हम मिल चुके हैं शायद आप भूल गए हैं एक रेस्टोरेंट में तब समीर को याद आया उस पहली मुलाकात का वैसे भी इन हालात में कौन सोच सकता है कि कौन कब  कहाँ मिला ,मगर इतना सा रिश्ता ही आज जीवन की वजह बन गया था ये समीर समझ गया था कि कोई और वजह भी जरूर छुपी है जो मुझे दिख नहीं रही या मुझसे छुपाई जा रही है वर्ना यूं ज़िन्दगी हारी हुयी बाजी यूं ना जीती होती मगर अभी वक्त नहीं इन सब बातों का सोच समीर अर्चना की तीमारदारी में लग गया और धीरे धीरे अर्चना ठीक होने लगी बेशक बहुत दुबली हो चुकी थी मगर एक उमंग जैसे उसके चेहरे पर उछाल लेने लगी थी , खोयी रौनक वापस आने लगी थी जिसे देख सब सुकून की सांस लेने लगे थे और फिर जब अर्चना इस लायक हो गयी कि खुद अपने काम करने लगे तो डॉक्टर ने उसे अस्प्ताल से छुट्टी दे दी और वो घर आ गयी और उसके साथ अजय भी उन्ही के घर आ गया क्योंकि समीर ने आग्रह कर अजय को वहीँ रोक लिया था उसे डर था मानो अजय यदि चला गया तो कहीं अर्चना भी ना साथ छोड़ दे और ज़िन्दगी की आस छोड़ दे इसलिए आज अजय उनके साथ था और उसी तरह सब काम कर रहा था जैसे घर के सदस्य करते हैं मगर एक बदली थी जो अर्चना के दिल पर छायी हुयी थी जो अब भी उसे अंदर ही अंदर घोट रही थी जिसे समीर और अजय दोनों देख भी रहे थे और समझ भी रहे थे मगर दोनों इस इंतज़ार में थे कि अर्चना खुद से कुछ कहे वो कुछ भी पूछकर उसे और परेशां नहीं करना चाहते थे इसलिए चुप थे।  
एक दिन जब ज़िन्दगी पटरी पर आ गयी थी तब अजय ने अपने जाने की बात कही जिसे सुन अर्चना के चेहरे पर एक मुर्दनी सी छा गयी जो समीर की निगाहों से छुपी नहीं रही और उसने उसी वक्त अर्चना का हाथ अपने हाथ में लेकर पूछा , अर्चना क्या बात है ? कौन सी ऐसी बात है जिसकी काली छाया मैं आज भी तुम्हारे मुख पर देखता हूँ ? एक बार कह दो शायद मन हल्का हो जाए , देखो मैं तुम्हें किसी भी कीमत पर खोने को तैयार नहीं हूँ , एक बार जैसे तैसे तुम मौत के मुँह से वापस आयी हो अब दुबारा तुम्हें उस हाल में मैं नहीं देख सकता , देख लेना इस बार यदि ऐसा कुछ हुआ तो तुम मेरा ज़िंदा मुख नहीं देख सकोगी जैसे ही समीर ने कहा अर्चना ने उसके मुँह पर ऊँगली रख दी और कहा , ख़बरदार समीर जो ऐसा कहा , तुम्हारे बिन तो मैं जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकती तुम और बच्चे ही तो मेरा जीवन हो , मेरे जीवन की पूँजी हो , फिर क्या बात है जो तुम फिर किसी अनचाही खलिश में खोयी दिखती हो , कुछ तो बात है , आज कह दो अर्चना मैं सब सुन लूँगा और सह भी लूँगा मगर तुम्हें किसी कीमत पर खो नहीं सकता जब समीर ने इतना आश्वासन दिलाया तब अर्चना ने हिम्मत करके राख में दबी चिंगारी का समीर को दर्शन कराने की ठान ली और वादा लिया यदि वो नाराज भी होगा तो उसे कह देगा मगर उसे छोड़कर नहीं जाएगा क्योंकि अर्चना के लिए उसके पति और बच्चों का जीवन में क्या महत्त्व है वो कोई नहीं समझ सकता , वो उन्हें किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहती और जो खलिश उसे राख किये जा रही है वो बताने पर हो सकता है तूफ़ान की ज़द में सारा घर आ जाए इसलिए बचाने के हर सम्भव उपाय पहले ही करना चाहती थी।  अर्चना ने शुरू से लेकर आखिर तक अपने और अजय के रिश्ते के बारे में समीर को बताना शुरू कर दिया , कैसे अजय उसकी ज़िन्दगी में आया , कैसे एक दुसरे के फैन बने और फिर कैसे अजय ने उसे बोध कराया सच्चा प्रेम क्या होता है , बेशक वो प्यार समीर और बच्चों से करती है , वो उसका जीवन हैं , उसके जीने का मकसद हैं मगर एक आत्मिक रिश्ते का क्या महत्त्व होता है उसका अहसास सिर्फ अजय ने कराया और जब उसे ये अहसास हुआ तो उसे लगा जैसे वो समीर से भी दगा कर रही है और अजय को भी धोखा दे रही है , एक अजब सी उहापोह में फंस गयी थी वो दूसरी तरफ अजय की कोई खैर खबर नहीं थी इसलिए खुद को अपराधी महसूस कर रही थी और इसी अपराधबोध ने उसके जीने के सारे समीकरण बिगाड़ दिए और इस हाल में पहुंचा दिया।  समीर यदि तुम्हें लगता है या तुम्हें मुझ पर विश्वास न हो तो बता देना मगर मैं तन और मन से सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी ही हूँ , अजय से जो रिश्ता है वो आत्मिक है , जहाँ वासना का कोई स्थान नहीं है , वहाँ सिर्फ भावनाएं भ्रमण करती हैं , वहाँ सिर्फ कोमल अहसासों की जुगलबंदी है कि कोई है ऐसा जो आपको आपसे ज्यादा जानता है , कोई है ऐसा जो बिना कहे सब सुनता है , जो तुम्हारा शुभचिंतक है , तुम्हारा हितैषी है और देखो ये सब सिर्फ आत्मिक स्तर पर ही है क्योंकि देखो कभी कभी होता है हम किन्ही भावों में विचरण करते हैं तो उन भावों में कहीं अटक जाते हैं और आगे राह दिखायी नहीं देती तब तुम जैसा ही कोई हाथ पकड़ वहाँ से आगे की राह दिखा सकता है और समीर इस कार्य में अजय निपुण है क्योंकि हम दोनों का भावनात्मक स्तर समान है , जो गूढ़ता , गहराई किसी चित्र में छुपी होती है उसे या तो चित्रकार ही समझ सकता है या उसका सबसे बड़ा प्रशंसक या वो जो उस स्तर तक खुद को उसमे ले गया हो और अजय और मेरा सिर्फ इतना सा ही रिश्ता है जिसमे शरीर मायने ही नहीं रखता , अगर मायने कुछ रखता है तो हमारी भावनाएं , संवेदनाए और सोच का समान स्तर।  क्या ऐसा करना गुनाह है ? क्या इस हद तक जाने से मर्यादाएं भंग होती हैं ? क्या इससे तुम्हारे और मेरे जीवन में कोई फर्क आ सकता है ? क्या इससे हमारा रिश्ता अटूट नहीं रहेगा ? दो किनारे बस साथ साथ बहना चाहते हैं बस भावनाओं के पुल पर , क्या इतनी चाहना हमारे जीवन को , हमारे विश्वास के पुल को धराशायी कर सकती है समीर ? अब तुम पर है समीर तुम इस रिश्ते को किस दृष्टि से देखते हो क्योंकि आज मैंने तुम्हें सब सच बता दिया और काफी हद तक आज खुद को हल्का महसूस कर रही हूँ क्योंकि कहीं न कहीं घुटन की एक चादर ने मुझे लपेट रखा था जिससे मैं बाहर तो आना चाहती थी मगर आने का कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था ,कह अर्चना चुप हो गयी और समीर की तरफ देखने लगी।  
उधर समीर के सामने तो जैसे एक के बाद एक तूफ़ान आकर गुज़र रहे थे , बिलकुल किंकर्तव्य विमूढ़ सा हो गया था , सुन्न हो गयी थी उसकी चेतना , आखिर ये कौन सा राज फाश कर दिया अर्चना ने जो उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था वो हो गया था , न वो कुछ कहने की स्थिति में था ना ही चुप रहने की , एक अजब सी स्थिति हो गयी और कमरे का सन्नाटा भी आपस में गुफ्तगू करने से कतराने लगा तब अर्चना ने हिम्मत करके समीर को पकड़ कर हिलाया और कहा , समीर मैं इसी वजह से कुछ नहीं बता पा रही थी क्योंकि जानती हूँ कोई भी इंसान हो इतना बड़ा सच गले से नीचे नहीं उतार सकता , आखिर तुम भगवन नहीं एक इंसान ही हो कैसे खुद को अलग रख सकते हो इस सत्य से कि उसकी पत्नी का कहीं भावनात्मक लगाव हो किसी और से और वो उसे स्वीकार भी ले मगर समीर ये भी एक कड़वा सत्य है कि ऐसा है और अब हम इसे बदल नहीं सकते सिवाय स्वीकारने के या जो तुम्हें उचित लगे वो कहो मगर चुप मत रहो तुम्हारी चुप्पी मुझे और आहत कर रही है। 
समीर पर तो मानो वज्रपात ही हुआ था और उबरने के लिए उसे कुछ वक्त तो चाहिए ही था ये अर्चना जानती थी इसलिए कुछ देर के लिए समीर को अकेला छोड़ कर किचन में चली गयी थी।  इधर समीर को तो मानो  काटो तो खून नहीं वाला हाल हो गया था , वो विश्वास नहीं कर पा रहा था जो उसने कानो से सुना वो सत्य है मगर सत्य तो सत्य ही रहता है उसका रूप कब बदला है बेशक कितना ही कड़वा हो और उसे ये स्वीकारना ही होगा कि अर्चना का एक हिस्सा उससे कट गया है फिर चाहे मन का एक कोना ही क्यों न हो मगर इसे भी स्वीकारना आसान नहीं था तो दूसरी तरफ ना स्वीकारने पर अर्चना को खो भी नहीं सकता था , दोनों तरफ खुद को ही हारता देख रहा था समीर।  
अब समीर ने विचारना शुरू किया कि जब से अजय आया है एक बार भी उसकी उपस्थिति के बिना अर्चना से नहीं मिला और ना ही अर्चना से कोई विशेष बात की उसने बल्कि जैसे और घर के सदस्य होते हैं उन्ही की तरह रहा और व्यवहार किया।  कहीं से भी ऐसा नहीं लगा कि वो अर्चना के शरीर या उसकी सुंदरता से प्रभावित है या वो उसे पाना चाहता है क्योंकि हर क्षण समीर नई नज़र अजय का पीछा करती रही थीं और अजय ने कभी चोर निगाह से भी अर्चना को नहीं निहारा था ये समीर देख चुका था , आखिर समीर एक व्यवसायी बुद्धि का मालिक था नफा और नुकसान का अच्छा ज्ञान था उसे और जब ज़िन्दगी के नफे नुक्सान की बात हो तो भला घाटे का सौदा कैसे कर सकता था इसलिए समीर ने इस समानांतर रिश्ते पर अपनी स्वीकार्यता की मोहर लगा कर ना केवल अपने प्रेम और बड़े दिल का प्रमाण दिया बल्कि अपना घर भी बचा लिया।  
अब अमर प्रेम के कोई कितने ही मायने ढूंढें , हर रिश्ते ने अपने प्रेम को अमर ही किया था किसी ने त्याग से तो किसी ने भाव से तो किसी ने मौन स्वीकृति देकर।  शायद यही है अमर प्रेम की सार्थक परिभाषा प्रेमास्पद की ख़ुशी में अपनी ख़ुशी मिला दो क्योंकि जीवन को जीने के सबके अपने दृष्टिकोण होते हैं वैसे ही प्रेम के अपने गणित।  प्रेम की दिव्यता और सर्वग्राह्यता कभी प्रश्नचिन्ह नहीं बन सकती मगर एक जीवन का प्रमाण जरूर बन सकती है और उसे आज तीन किरदारों ने अपने अपने ढंग से परिभाषित कर दिया था , जाने कितने रिश्तों को प्रेम ने एक सूत्र में पिरो दिया था और अपने नाम को सार्थक कर दिया था क्योंकि आसान होता है अपने अस्तित्व को मिटाना मगर ज़िन्दगी की आँख में आँख मिलकर जीना और प्रेम को भी उसका स्थान देकर जीवन गुजारना सबसे मुश्किल होता है और आज तीनो मुसाफिरों ने अपने अपने अंदाज़ में प्रेम को अमर कर दिया था।  

शनिवार, 3 अक्तूबर 2009

अमर प्रेम --------भाग १२

गतांक से आगे ................................

महीनो बीत गए , कोई प्रतिक्रिया नही दोनों ओर से । मगर अर्चना --------------उसके तो जीवन की धुरी शायद उसी एक पल पर रुक गई थी । उसके अंतस में हलचल मच गई थी जिसके बारे में वो किसी से कह भी नही सकती थी। अजय के शब्द एक घुन की तरह उसके ह्रदय को कचोटते थे। उसके सारे आदर्श , सारी मर्यादाएं अजय के कुछ ही शब्दों ने चकनाचूर कर के रख दिए थे। शायद अब उसे अहसास हुआ था प्रेम के वास्तविक स्वरुप का। बिना चाह के भी किसी को चाहा जा सकता है। किसी को चाहने के लिए शरीर की नही आत्मा की जरूरत होती है । शरीर तो वहां नगण्य होते हैं । सिर्फ़ आत्माओं का ही मिलन होता है ।ये अहसास अर्चना को बहुत देर से हुआ इसलिए अब अर्चना अन्दर ही अन्दर घुटने लगी ।ये घुटन उसके पूरे वजूद पर हावी होने लगी । उसे लगने लगा कि उसने अजय के प्रेम को स्वीकार न कर जैसे कोई बहुत बड़ा अपराध किया हो । और ये अहसास उसे अन्दर ही अन्दर खाने लगा । अब जीवन का हर रंग उसे फीका लगने लगा। धीरे धीरे अर्चना का जीवन से मोहभंग होने लगा। वो अपनी दिनचर्या एक मशीन की भांति पूरी करती । अब उसमें पहले जैसी उमंगें ख़त्म होने लगीं । अपराधबोध से ग्रस्त अर्चना को जीवन नीरस दिखाई देने लगा। अब उसकी कविताओं में प्रेम के भव्य स्वरुप का दर्शन होता था मगर अजय की कोई प्रतिक्रिया अब नही मिलती थी । इससे अर्चना और आह़त हो जाती और मायूस रहने लगी । अर्चना का जीवन , उसका हर रंग सब बदरंग हो चुके थे ।
उधर अजय अपने वादे पर अटल था ------------दोबारा कभी न मिलने का वादा। अब उसने अर्चना को पुकारना छोड़ दिया था शायद अर्चना से मिलकर उससे अपना हाल-ए-दिल कहकर अजय को वक़्ती सुकून मिल गया था मगर फिर भी एक उदासी हर पल उसके जेहन पर छाई रहती ।अर्चना की यादों के साये हर पल उसके मानस- पटल पर छाये रहते । अब तो उसने खामोशी को अपना हमसफ़र बना लिया था और गुमनाम अंधेरों में जीवन गुजारने लगा था सिर्फ़ अर्चना की कवितायेँ पढता और उन्हें अपनी चित्रकारी से सजाता। अब वो जो भी चित्र बनाता सिर्फ़ अपने लिए बनाता । कहीं किसी को छापने के लिए नही भेजता । एक अलग ही ख्यालों की दुनिया में गुम हो गया था अजय।

क्रमशः ........................................

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

अमर प्रेम -----------भाग ११

गतांक से आगे .......................

ये लम्हा दोनों की ज़िन्दगी का एक हसीन , मधुर याद बनकर यादों में क़ैद हो गया था । ज़िन्दगी एक बार फिर पटरी पर दौड़ने लगी थी । अब अजय की उत्कंठा कुछ हद तक शांत हो गई थी । अब एक बार फिर से उसकी चित्रकारी के रंग शोख होने लगे थे। अपनी भावनाओं को , अपनी कल्पनाओं को वो चित्रों में जीवंत करने लगा था। मगर ये पागल मन उसका -----अब भी कभी- कभी बेचैन कर देता था। उसकी अंखियों की , उसकी रूह की प्यास तो कुछ हद तक बुझ गई थी मगर फिर भी कहीं एक कसक अब भी बाकी थी । उसकी वो ही कसक कभी -कभी सिर उठाने लगती। बार -बार उसके मन को उद्वेलित करती । भावनाओं का ज्वार ह्रदय को आंदोलित कर जाता। इन्ही भावनाओं के अतिरेक में बहते हुए फिर एक दिन उसने अर्चना से मिलने की इच्छा जाहिर की । अर्चना भी अब चाहती थी कि अजय के इंतज़ार को विराम मिले इसलिए वो अजय से वादा लेती है कि वो इस मिलन के बाद ज़िन्दगी में फिर कभी उससे मिलने की ख्वाहिश जाहिर नही करेगा और न ही कुछ और मांगेगा । अजय अर्चना की शर्त मान लेता है । अजय की तो मनचाही मुराद पूरी हो रही थी । उसके पाँव जमीन पर नही पड़ रहे थे । दिल में उमंगो का अथाह सागर हिलोरें ले रहा था।
और फिर वो दिन आ गया जब दोनों एक- दूसरे के सामने बैठे थे। एक -दूसरे का दीदार कर रहे थे। मगर दोनों में से कोई भी एक शब्द नही बोला। सिर्फ़ मौन ही मौन की भाषा सुन रहा था और मौन ही विचारों को अभिव्यक्त कर रहा था।घंटों व्यतीत हो गए । समय का दोनों को भान ही न था या यूँ कहो समय भी जैसे उस पल वहीँ ठहर गया था। वो भी इस मिलन की परिणति देखना चाहता था। वो भी तो कब से इस क्षण की प्रतीक्षा कर रहा था। काफी देर बाद दोनों को वक्त का बोध हुआ तो अजय ने अर्चना से कहा ------अर्चना तुम मेरे जीवन का वो अंग बन गई हो जिसके बिना एक पल गुजारना मुश्किल हो जाता है । तुम मेरी वो कल्पना हो जो साकार हो गई है --------मेरे सामने बैठी है और मैं उसे छू भी नही सकता, उसे महसूस भी नही कर सकता। तुम मेरे जीवन -रुपी महासागर की वो अतुल्य सम्पदा हो जिसे मैं खोना भी नही चाहता मगर पा भी नही सकता। बताओ अर्चना अब जीवन कैसे गुजरेगा ? और अर्चना अजय के भावों को जानकर विस्मित सी , ठगी सी बैठी रह गई । उसे समझ नही आ रहा था कि वो क्या बोले । मगर फिर भी किसी तरह ख़ुद को संयत करके अर्चना ने अजय से कहा ------अजय हम दोनों का जीवन धरती और आकाश सा है । दोनों एक दूसरे को निहार तो सकते हैं मगर मिलना दोनों की किस्मत में नही है । देखो मेरे जीवन का हर रंग , हर मौसम , हर खुशी , हर गम , मेरा हँसना , मेरा रोना, मेरा प्यार, मेरी खुशबू सब मेरे पति की है । मैं तुम्हें कुछ नही दे सकती। क्यूँ इस मृगतृष्णा के पीछे भागकर अपना जीवन बरबाद कर रहे हो । मैं शरीर से और आत्मा से पूर्ण रूप से अपने पति की हूँ। इस पर अजय ने कहा कि उसके जीवन में अजय का क्या मुकाम है सिर्फ़ इतना बता दो तो अर्चना ने कहा कि वो एक ऐसा सुखद अहसास है जिसके साथ पूरी ज़िन्दगी इत्मिनान से गुजर सकती है वो और उसे इससे ज्यादा किसी चीज़ की चाह भी नही है। मगर अजय तो जैसे आज प्रण करके आया था कि एक बार अर्चना से हाँ कहलवा कर ही रहेगा कि वो भी उसे प्रेम करती है । उसने अर्चना से कहा कि तुम प्रेम को अहसास का नाम दे रही हो । वास्तव में तुम भी उसे प्रेम करती हो मगर मानना नही चाहती । अगर तुम भी प्रेम करती हो तो एक बार स्वीकार कर लो, मेरा जीवन तुम्हारे इंतज़ार में ,अगले जनम में मिलन की आस में आराम से गुजर जाएगा। इस जनम तुम किसी और की हो मुझे कोई गिला नही बस एक वादा दे दो कि अगले जन्म में तुम मेरी बनोगी मगर अर्चना न जाने किस मिटटी की बनी थी या कहो किस पत्थर की बनी थी किसी भी दर्द का शायद उस पर असर ही नही होता था । उसने कहा कि वो जन्म -जन्मान्तरों तक सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने पति की ही है । वो अजय से किसी भी प्रकार का कोई वादा नही कर सकती। तब अजय ने कहा अच्छा चलो सिर्फ़ एक वादा दे दो कि इस कायनात के आखिरी जन्म में तुम सिर्फ़ एक बार मुझे मिलोगी सिर्फ़ एक बार , मैं तब तक तुम्हारा इंतज़ार करूँगा। बस यही मेरे प्रेम का प्रतिफल होगा।
अब अर्चना ने कहा कि इसका मतलब तुम्हारा प्रेम वास्तविक प्रेम नही उसमें भी सभी की तरह वासना है तभी तुम मुझे पाने की चाह रखते हो । अर्चना के ये शब्द अजय के दिल पर हथोडे की तरह लगे। उसके दिल के टुकड़े टुकड़े हो गए । फिर भी अजय ने कहा अगर उसके प्रेम में वासना होती तो वो अगले जन्मों या आखिरी जन्म तक की बात न कहता और अपनी वासनामयी प्रवृति इसी जन्म में किसी भी बहाने पूर्ण करना चाहता। मगर मुझे तुम्हारा शरीर किसी भी जन्म में नही चाहिए। मैं तुम्हें छूना भी नही चाहता। बस सिर्फ़ इतना चाहता हूँ कि किसी एक जन्म में तुम मुझे रूह से चाहो। तुम्हारी रूह और मेरी रूह एक हो जायें। जहाँ तुम कुछ सोचो और पूरा मैं करुँ बिना तुम्हारे कहे। जहाँ मैं फूल की खुशबू की तरह तुमसे कभी अलग न हो सकूँ। दो जिस्म बेशक हों मगर आत्मा एक हो । जहाँ वेदना की लकीर भी गर तुम्हारे चेहरे पर उभरे तो दर्द से बेहाल मैं हो जाऊँ। मुझे तुमसे कुछ नही चाहिए। अर्चना सिर्फ़ एक जन्म के लिए तुम मेरे जीवन का वो पल बन जाओ जिसके बाद कोई चाहना ही बाकी न रहे। क्या तुम इतना सा वादा भी नही कर सकती मुझसे। मैं तुमसे कुछ नही चाहता--------कुछ भी नही और न ही कभी ज़िन्दगी में चाहूँगा। बस सिर्फ़ इतना अहसान कर दो मेरी ज़िन्दगी पर।
अर्चना स्तब्ध सी अजय को एकटक देखे जा रही थी। आज उसे समझ आया कि वास्तव में प्रेम क्या है उसका स्वरुप क्या है। क्या अजय सच कह रहा है? क्या वाकई एक जन्म के वादे पर कोई कायनात के आखिरी जन्म तक किसी का इंतज़ार कर सकता है?क्या प्रेम ऐसा भी होता है ? क्या इसे ही सच्चा प्रेम कहा गया है? इसी ऊहापोह में डूबी अर्चना न जाने कब तक बैठी रहती कि अजय ने उसे वास्तविकता का बोध न कराया होता। वक्त अपनी गति से चल रहा था मगर अर्चना के दिल में तो जैसे ज्वार उठ रहे थे। आज अजय उसे यूँ लग रहा था जैसे साक्षात् प्रेम ही अजय के रूप में इंसानी रूप धारण करके बैठा हो। अर्चना के मुख से बोल नही फूट रहे थे । जिसे वो इंसानी प्रेम समझ रही थी वो तो खुदाई प्रेम था।
और वक्त वहीँ ठहर गया। बिना एक शब्द बोले मौन की चादर ओढ़कर दोनों ने एक -दूसरे से विदा ली । अजय सीधा चलता चला गया। बिना मुडे ,बिना अर्चना की ओर दोबारा देखे -----बस चलता चला गया। शायद आज अजय की वेदना जो वो बरसों से महसूस कर रहा था उसे करार मिल गया था या शायद अब कहने को कुछ बचा ही नही था या जो कुछ वो कहना चाहता था वो सब आज वो कह चुका था। मगर अर्चना उसके लिए तो वक्त जैसे वहीँ रुका था उस एक लम्हे पर ही . वो अजय को जाता हुआ देखती रही.......................

क्रमशः...............................

मंगलवार, 29 सितंबर 2009

अमर प्रेम ---------भाग १०

गतांक से आगे ...........................

अर्चना और अजय की ज़िन्दगी न जाने किस मुकाम पर आ गई थी । दोनों एक दूसरे को समझते भी थे ,एक दूसरे को जानते भी थे मगर मानना नही चाहते थे। दोनों ही अपनी- अपनी जिद पर अडे थे । समय का पहिया यूँ ही खिसकता रहा और दोनों के दिल यूँ ही सिसकते रहे।
प्रेम का अंकुर किसी जमीं पर पलमें ही फूट जाता है और किसी जमीं पर बरसों लग जाते हैं । प्रेम हो तो ऐसा जहाँ शरीर गौण हों सिर्फ़ आत्मा का मिलन हो । शुद्ध सात्विक प्रेम हो जहाँ कोई चाह ही न हो सिर्फ़ अपने प्यारे के इशारे पर मिटने को हर पल तैयार हो। लगता है प्रेम की उस पराकाष्ठा तक पहुँचने के लिए अभी वक्त को भी वक्त की जरूरत थी। वक्त भी साँस रोके उस क्षण की प्रतीक्षा कर रहा था ------कब इन दोनों का प्रेम (जिसे एक मानता है मगर दूजा नही ) चरम स्थिति में पहुंचे और कब वो भी उस दिव्यता के दर्शन करे ।

वक्त इंतज़ार के साथ अपनी गति से चल रहा था। एक दिन अर्चना समीर और बच्चों के साथ घूमने गई । इत्तेफाक से उसी शहर में पहुँच गई जहाँ अजय रहता था। या नियति उसे वहां ले गई थी । एक दिन रेस्तरां में जब अर्चना अपने परिवार के साथ खाना खाने गई हुई थी वहीँ पर अजय भी अपने परिवार के साथ आया हुआ था। दोनों में से किसी को भी एक -दूसरे की मौजूदगी का पता न था। आज का दिन अर्चना की ज़िन्दगी का एक खास दिन था। उस दिन अर्चना की शादी की सालगिरह थी और उसके पति और बच्चे उस दिन को खास बनाना चाहते थे इसलिए समीर ने अर्चना से उसकी समीर के लिए लिखी एक खास कविता सुनाने को कहा -------जिस कविता पर अर्चना को अपने पाठकों से भी बेहद सराहना मिल चुकी थी। आज अर्चना मना भी नही कर सकती थी क्यूंकि समीर ने जिस अंदाज़ में उसे सुनाने को कहा था वो अर्चना के अंतस को छू गया। अर्चना कविता सुनाने लगी। कविता के बोल क्या थे मानो अमृत बरस रहा हो । आँखें मूंदें समीर कविता सुन रहा था और उसके भावों में डूब रहा था। जब अर्चना कविता सुना रही थी उसे मालूम न था कि ठीक उसके पीछे कोई शख्स बड़े ध्यान से उस कविता को सुन रहा है । जैसे ही कविता पूरी हुई समीर और बच्चों के साथ एक अजनबी की आवाज़ ने अर्चना को चौंका दिया। अर्चना ने सिर उठाकर ऊपर देखा तो एक अजनबी को तारीफ करते पाया। एक पल को देखकर अर्चना को ऐसा लगा कि जैसे इस चेहरे को कहीं देखा है मगर दूसरे ही पल वो सोच हकीकत बन गई जब उस शख्स ने कहा ----------"कहीं आप अर्चना तो नही"। अब चौंकने की बारी अर्चना की थी। इस अनजान शहर में ऐसा कौन है जो उसे नाम से जानता है। जब अर्चना ने हाँ में सिर हिलाया तो उस शख्स ने अपना परिचय दिया ---------मैं अजय हूँ ,चित्रकार अजय , जिसके चित्र आपकी हर कविता के साथ छपते हैं। ये सुनकर पल भर के लिए अर्चना स्तब्ध रह गई। एक दम जड़ हो गई------------आँखें फाड़े वो अजय को देख रही थी जैसे वो कोई अजूबा हो।वो तो ख्वाब में भी नही सोच सकती थी कि अजय से ऐसे मुलाक़ात हो जायेगी। अब समीर ने अर्चना को एक बार फिर मुबारकबाद दी कि आज का दिन तो खासमखास हो गया क्यूंकि आज तुम्हारे सामने तुम्हारा एक प्रशंसक और एक कलाकार दोनों एक ही रूप में खड़े हैं । एक ही पल में इतना कुछ अचानक घटित होना-----------------अर्चना को अपने होशोहवास को काबू करना मुश्किल होने लगा। जैसे तैसे ख़ुद को संयत करके अर्चना ने भी अपने परिवार से अजय का परिचय कराया और फिर अजय ने भी अपने परिवार से अर्चना के परिवार को मिलवाया। दोनों परिवार इकट्ठे भोजन का और उस खास शाम का आनंद लेने लगे। मगर इस बीच अर्चना और अजय दोनों का हाल 'जल में मीन प्यासी 'वाला हो रहा था।
आज दोनों आमने- सामने थे मगर लब खामोश थे . दोनों के दिल धड़क रहे थे मगर धडकनों की आवाज़ कानों पर हथोडों की तरह पड़ रही थी। सिर्फ़ कुछ क्षण के लिए नयन चोरी से दीदार कर लेते थे। सिर्फ़ नयन ही बोल रहे थे और नयन ही समझ रहे थे नैनो की भाषा को। बिना बतियाये बात भी हो गई और कोई जान भी न पाया। अपनी- अपनी मर्यादाओं में सिमटे दोनों अपने -अपने धरातल पर उतर आए।
ये शाम दोनों के जीवन की एक अनमोल यादगार शाम बन गई । अजय अपनी सारी नाराज़गी भूल चुका था . आज अजय पर वक्त मेहरबान हुआ था. अजय के लिए तो ये एक दिवास्वप्न था। वो अब तक विश्वास नही कर पा रहा था कि उसकी कल्पना साकार रूप में उसके सामने थी आज। उस दिन के लम्हे तो जैसे सांसों के साथ जुड़ गए थे हर आती-जाती साँस के साथ अजय का दिल धड़क जाता-----------वो सोचता --------वो स्वप्न था या हकीकत। अजीब हालत हो गई अजय की । कई दिन लगे अजय को पुनः अपने होश में आने के लिए। एक स्वप्न साकार हो गया था। बिना मांगे ही अजय को सब कुछ मिल गया था।अजय की खुशी का ठिकाना न था । इन्ही लम्हों की तो वो बरसों से प्रतीक्षा कर रहा था शायद उसकी चाहत ,उसका प्रेम सच्चा था तभी उसे उसके प्रेमास्पद का दीदार हो गया था।


क्रमशः ..........................................

रविवार, 27 सितंबर 2009

अमर प्रेम -----------भाग ९

गतांक से आगे ..........................

धीरे धीरे अजय के जीवन में परिवर्तन आता चला गया । उसने चित्रकारी करना छोड़ दिया । ज़िन्दगी जैसे बेरंग सी हो गई । बिना प्रेरणा के कैसी कला और कैसे रंग और कैसा जीवन। उसने अपने आप को अपने दायरों में समेट लिया । किसी मौसम का कोई असर अब उस पर नही होता । उधर अर्चना की कवितायेँ अब बिना अजय के चित्रों के छप रही थी इसलिए अर्चना परेशान होने लगी । उसने अजय को न जाने कितने ख़त लिखे मगर किसी का कोई जवाब नही मिला । अब तो अर्चना के लिए जैसे वक्त वहीँ थम गया । उसे समझ नही आ रहा था कि क्या करे । अब उसका भी दिल नई कवितायेँ गढ़ने का नही होता था। न जाने कौन सी कमी थी जो उसे झंझोड़ रही थी । उसका अंतः मन बेचैन रहने लगा। उसके कारण एक अनमोल जीवन बर्बादी के कगार पर पहुँच रहा था और वो कुछ कर नही पा रही थी ।ये ख्याल उसे खाए जा रहा था । उसे समझ नही आ रहा था कि ये उसे क्या हो रहा है -------क्यूँ वो अजय के बारे में इतना सोचने लगी है । अर्चना के जीवन का ये एक ऐसा मोड़ था जहाँ उसे हर ओर अँधेरा ही अँधेरा दिखाई दे रहा था । न वो अजय को समझ पा रही थी न ही अपने आप को । जब अजय पुकारता था तो वो मिलना नही चाहती थी और अब जब अजय ने पुकारना छोड़ दिया तो तब भी उसे अच्छा नही लग रहा था ।अब उसका दिल करता एक बार ही सही अजय उसे आवाज़ दे। उसे समझ नही आ रहा था कि उसे क्या हो रहा है । वो अजय के रूप में मिला दोस्त खोना भी नही चाहती थी साथ ही उसकी जिद पर वो भी कहना नही चाहती थी जो अजय कहलवाना चाहता था। वो एक उगते हुए सूरज को इतनी जल्दी डूबते हुए नही देखना चाहती थी इसके लिए स्वयं को दोषी समझती थी मगर समझ नही पा रही थी कि कैसे इस उलझन को सुलझाए । कैसे अजय के जीवन में फिर से बहार लाये। कैसे अजय को ज़िन्दगी से मिलवाए । अजीब कशमकश में फंस गई थी अर्चना । उसने ख़ुद को और अजय को नियति के हाथों सौंप दिया । शायद वक्त या नियति कुछ कर पाएं जो वो नही कर पा रही है । अब उसे अजय के लौटने का इंतज़ार था .........................

क्रमशः...........................................

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

अमर प्रेम -----------भाग ८

गतांक से आगे ..........................

वक्त पंख लगाकर उड़ रहा था । ऐसे सुखद अहसासों के साथ दोनों जी रहे थे । कई साल गुजर गए । फिर एक दिन अजय ने अर्चना से मिलने की इच्छा जाहिर की । अजय जब भी ख़त लिखता उसमें अपने आत्मिक प्रेम का भव्य वर्णन करता और चाहता अर्चना भी उसके प्रेम को स्वीकारे।उसका प्रेम तो सिर्फ़ आत्मिक था हर बार अर्चना को समझाता । कहीं कोई वासना नही थी उस प्रेम में । सिर्फ़ एक बार देखने की चाह ,एक बार मिलन की चाह...............सिर्फ़ एक छोटी सी चाह अपने जज्बातों को बयां करने की । मगर अर्चना -----वो तो सिर्फ़ अहसासों के साथ जीना चाहती थी क्यूंकि उसकी मान्यताएं , उसकी मर्यादाएं उसे कभी ऐसा सोचने पर मजबूर ही नही करती थी। उसे कभी वो कमी महसूस ही नही होती थी जो अजय को हो रही थी । अर्चना अपनी सम्पूर्णता में जी रही थी इसलिए कभी भी अजय के प्रेम को स्वीकार ही नही कर पाई क्यूंकि उसके लिए अजय का प्रेम न आत्मिक प्रेम था न ही कुछ और , वो सिर्फ़ एक सुखद अहसास था जिसे वो अपनी रूह से महसूस करती थी ।
अब इसी बात पर अजय अर्चना से नाराज़ हो गया। आए दिन दोनों की इसी बात पर बहस होने लगी और नाराज़गी बढ़ने लगी । अब अजय ने धीरे धीरे अर्चना को ख़त लिखना ,उसकी कविताओं की सराहना करना बंद कर दिया । शायद वो सोचता था कि उसके इस कदम से अर्चना आहत होगी तो उसके प्रेम को स्वीकार कर लेगी ।इक तरफा प्रेम का अद्भुत मंज़र था । मगर अर्चना के इरादे पर्वत के समान अटल थे । उसका विश्वास ,उसकी मर्यादाएं सब अटल। लेकिन अर्चना ने कभी भी अजय के चित्रों की प्रशंसा करना नही छोडा। वो उसके लिए आज भी वैसा ही था जैसा कल। अर्चना बेशक अजय की ऐसी आदतों से आहत होती थी और तब फिर एक नई कविता का जन्म होता था । अपने उदगारों को अर्चना कविता के माध्यम से व्यक्त करती रहती मगर अजय पर तो जैसे अपनी जिद मनवाने की धुन सवार रहती । इसलिए उसने भी अपने चित्रों की नायिका के रंग और रूप बदलने शुरू कर दिए । उसकी इस दीवानगी से अर्चना परेशान हो जाती । शायद इसीलिए वो उससे कभी मिलना नही चाहती थी।
जहाँ अपूर्णता होती है वहां मिलन की चाह होती है मगर जहाँ पूर्णता होती है वहां कोई चाह बचती ही नही। अर्चना शायद उसी प्रकार की नारी थी।

क्रमशः.........................................

बुधवार, 23 सितंबर 2009

अमर प्रेम ------------भाग ७

गतांक से आगे ....................................

एक बार अर्चना को पत्रिका वालों की तरफ़ से एक सूचना मिली कि पत्रिका में अपनी कविता छपवाने के लिए फोटो का होना जरूरी है -------------- अर्चना की कविताओं के दीवानों के आग्रह के कारण पत्रिका वालों को अर्चना से ये गुजारिश करनी पड़ी। अब इस आग्रह को अर्चना को स्वीकार तो करना ही था । और फिर जब अर्चना की फोटो उसकी नई कविता के साथ छपी तो जैसे तहलका सा मच गया । जितने पाठक थे उनकी इच्छा तो पूरी हो ही चुकी थी मगर जिसके ह्र्दयान्गन पर ,जिसकी कुंवारी कल्पनाओं पर जिस हुस्न की मलिका का राज था जब उसने अपनी कल्पना को साकार देखा तो जैसे होश खो बैठा। उसकी कल्पनाओं से भी सुंदर थी उसकी हकीकत । अपने ख्वाब को हकीकत में देखना --------आह ! एक चिराभिलाषा पूरी होना। अजय अब तो जैसे दीवाना हो गया और उसके चित्रों की नायिका का भी जीवन बदलने लगा , वहाँ अब प्रेम का सागर हिलोरें मारने लगा। अब अजय की अभिव्यक्ति और भी मुखर हो गई। उसकी नायिका और चित्रों के रंग और रूप दोनों ही बदलने लगे।
अजय की चित्रकारी देखकर अर्चना को भी एक नया अहसास होने लगा । उसे भी लगने लगा कि उसका भी एक आयाम है किसी के जीवन में । वो भी किसी की प्रेरणा बन सकती है ---------उसे कभी इसका विश्वास ही नही होता था। अर्चना के जीवन का ये एक नया मोड़ था । जहाँ उसके अस्तित्व को एक पहचान मिल रही थी जिसका उसे सपने में भी गुमान न था । उसके लिए ये एक सुखद अहसास था ..............अपने अस्तित्व की पहचान का ।


क्रमशः .................................

सोमवार, 21 सितंबर 2009

अमर प्रेम ----------भाग ६

गतांक से आगे ..............................

एक बार अजय को चित्रकारी के लिए राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हुआ उसे प्राप्त करने के लिए उसे अर्चना के शहर जाना था। जाने से पहले अजय ने ये खुशखबरी अर्चना को ख़त लिखकर पहुंचाई और साथ ही अर्चना से मिलने की इजाजत मांगी और अपना फ़ोन नम्बर दिया । उससे पूछा कि क्या वो उससे मिल सकती है सिर्फ़ एक बार या एक बार फ़ोन पर ही मुबारकबाद दे सकती है । मगर अपने संस्कारों और मर्यादाओं से बंधी अर्चना ने उससे मिलने से मना कर दिया।

जिस दिन अजय को सम्मान प्राप्त हुआ हर ओर उसकी चित्रकारी की ही प्रशंसा थी। हर टी वी के चैनल पर उसी का नाम था। चारों तरफ़ से अजय को बधाइयाँ मिल रही थीं मगर जिस आवाज़ को वो सुनना चाहता था या जिस चेहरे को वो देखना चाहता था उस भीड़ में बस वो ही एक चेहरा ,वो ही एक आवाज़ न थी । इतनी बड़ी सफलता पाकर भी अजय को वो खुशी न मिल सकी जिसकी उसे दरकार थी। जिस कल्पना को उसने अपने रंगों में ढाला था ,जो उसकी प्रेरणा थी वो इतने पास होकर भी इतनी दूर थी। एक कसक के साथ अजय अपने शहर वापस आ गया ।

उधर अर्चना को अजय की शोहरत पर गर्व हुआ। उसने अपने परिवार में सबको अजय की उपलब्धि के बारे में बताया। उसने बताया कि अजय उसका कितना बड़ा प्रशंसक है और वो भी उसकी चित्रकारी कितनी पसंद करती है । उसकी हर कविता के साथ अजय के ही चित्र छपते हैं। वो दिन अर्चना के लिए भी काफी खुशगवार था। मगर साथ ही उसे इस बात का भी अहसास था कि उसने अजय का दिल दुखाया है और शायद अजय को भी पता था कि कैसे दिल पर पत्थर रखकर अर्चना ने न कहा होगा। अपने इन्ही अहसासों को और अजय के दिल पर क्या गुजरी होगी ,कितना तडपा होगा उसे अर्चना ने अपनी कविताओं में ढालना शुरू कर दिया। शायद ये भी उस तड़प के इजहार का एक रूप था ।


क्रमशः .................................

शनिवार, 19 सितंबर 2009

अमर प्रेम --------------भाग ५

गतांक से आगे .......................................

नदी के दो किनारों से दोनों चल रहे थे मगर एक कसक साथ लिए । जैसे नदी के किनारे चाह कर भी नही मिल पाते मगर फिर भी मिलने की कसक हर पल दिल में पलती रहती है कुछ ऐसा ही हाल दोनों का था। अजय की तड़प मिलने की चाह बार- बार अर्चना को बेचैन कर जाती । वो बार- बार समझाती ,हर बार कहती ये क्या कम है कि हम एक दूसरे की भावनाओं को समझते हैं ,जो तुम कह नही पाते या जो मैं सुन नही पाती वो भी हम दोनों के दिल समझते हैं,हमसे ज्यादा हमारे दिल एक दूसरे को जानने लगे हैं ,बिना कहे भी हर बात पहचानने लगे हैं,तो क्या वहां वाणी को मुखर करना जरूरी है ?हर चीज़ की एक मर्यादा होती है और जो मर्यादा में रहता है वहां दिखावे को जरूरत नही होती,अपनी अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करना कहाँ ठीक है-----------क्या जीने के लिए इतना काफी नही । जब शब्दों से ज्यादा मौन बोलने लगे तब वाणी को विराम देना ही उचित है । कुछ अनकही बातें मौन कह जाता है और मौन की भाषा कभी शब्दों की मांग नही करती। मगर अजय वो तो अपनी कल्पना के साथ जीना चाहता था ------------तन से नही मन से , शरीर से नही आत्मिक प्रेम के साथ और उसी प्रेम की स्वीकारोक्ति अर्चना से भी चाहता था इसीलिए अजय हर बार अर्चना से पूछता ------------क्या वो उसे प्रेम करती है ? मगर अर्चना हर बार मना कर देती । अजय का उन्माद अर्चना को हकीकत लगने लगा था इसीलिए वो अजय को हर बार सच्चाई के धरातल पर ले आती । अपने और उसके जीवन का सच समझाती मगर अजय तो जैसे इन सबसे दूर अपनी कल्पनाओं के साथ ही जीने लगा था , बेशक शारीरिक प्रेम नही था मगर वो कहते हैं ना प्रेम के पंछी ये कब सोचते हैं ---------वो तो बस उड़ना जानते हैं । कुछ ऐसा ही हाल अजय का था । मगर अर्चना -------उसका तो आत्मिक प्रेम हो या शारीरिक या मानसिक जो कुछ था वो सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने समीर के लिए था । वो तो कभी ख्वाब में भी ऐसा ख्याल दिल में लाना ही नही चाहती थी । मगर अजय के रूप में मिला दोस्त खोना भी नही चाहती थी । अजय का अर्चना के जीवन में एक अलग ही स्थान था मगर वो प्रेम नही था अर्चना का। वो शायद उससे भी ऊंचा कोई स्थान था अर्चना के जीवन में जहाँ उसने अजय को बिठाया था मगर अजय के लिए स्वीकारोक्ति जरूरी थी और ये अर्चना के लिए एक कठिन राह.........................


तुमने दर्द माँगा माँगा
मैं दे ना सकी
तुमने दिल माँगा
मैं दे ना सकी
तुमने आंसू मांगे
मैं दे ना सकी
तुमने मुझे चाहा
मैं तुम्हें चाह ना सकी
दिल की बात कभी
होठों पर ला ना सकी
ना जाने किस मिटटी के बने हो तुम
जन्मों के इंतज़ार के लिए खड़े हो तुम
ये कैसी खामोशी है
ये कैसा नशा है
ये कैसा प्यार है
क्यूँ ज़हर ये पी रहे हो
क्यूँ मेरे इश्क में मर रहे हो
मैं इक ख्वाब हूँ, हकीकत नही
किसी की प्रेयसी हूँ , तेरी नही
फिर क्यूँ इस पागलपन में जी रहे हो
इतना दीवानावार प्यार कर रहे हो
अगले जनम में मिलन की आस में
क्यूँ मेरा इंतज़ार कर रहे हो


क्रमशः .....................................

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

अमर प्रेम ------------भाग ४

गतांक से आगे .................................

कभी कभी कुछ रिश्ते अनजाने में ही बन जाते हैं । पता नही ये रिश्ता था या प्रेम या सिर्फ़ अहसास ...............मगर अनजाने ही ज़िन्दगी का एक नया मोड़ बन गया।
अजय ने एक बार अपनी तस्वीर भेजी और अर्चना से भी आग्रह किया मगर अर्चना ऐसा कुछ नही चाहती थी जिससे उसकी खुशहाल गृहस्थी में कोई ग्रहण लगता,इसलिए उसने मना कर दिया । अजय जब भी ख़त लिखता हर बार एक तस्वीर भेजने का अनुरोध करता और अर्चना हर बार उसका आग्रह ठुकरा देती । अजय जानना चाहता था कि उसकी कल्पना दिखने में कैसी लगती है ........क्या बिल्कुल वैसी जैसा वो सोचता था या उससे भी अलग। मगर अर्चना अपनी किसी भी मर्यादा को लांघना नही चाहती थी।

अजय का भी एक हँसता खेलता खुशहाल परिवार था । उसकी पत्नी और दो बच्चे । पूर्ण रूप से संतुष्ट । मगर वो कहते हैं ना कहानीकार हो ,कवि हो,लेखक हो या चित्रकार ---------एक अलग ही दुनिया में विचरण करने वाले प्राणी होते हैं। दुनिया की सोच से परे एक अलग ही दुनिया बसाई होती है जहाँ ये ख़ुद होते हैं और इनकी कल्पनाएं । कल्पनाएं भी ऐसी जो हकीकत से परे होती हैं मगर फिर भी उसी में विचरण करना इनका स्वभाव बन जाता है । शायद ऐसा ही ह्रदय अजय का भी था। उसके चित्रों में सिर्फ़ प्रेम ही प्रेम बरसा करता था। शायद प्रेम का कोई रूप ना था जो उसने बयां ना किया हो प्रेम की तड़प,प्रेम की पराकाष्ठा इतनी गहन होती कि देखने वाला कुछ पलों तक सिर्फ़ उसी में विचरण करता रहता था । ठगा सा वहीँ खड़ा रह जाता। ऐसा कोमल ह्रदय था अजय का और ऐसी थी उसकी कल्पनाएँ। अब उसे उसकी प्रेरणा भी मिल गई थी अर्चना के रूप में । अर्चना में वो अपनी कल्पना की नायिका को देखने लगा । एक अनदेखा रिश्ता कायम हो गया था अजय की तरफ़ से । अब अजय अपनी नायिका के ख्वाबों में विचरण करने लगा था। मिलने की उत्कंठा तीव्र होने लगी थी। मगर शहरों की दूरियां थी साथ ही समाज की बेडियाँ ।
दोनों ही एक दूसरे के प्रेरणास्पद बन गए । मगर अर्चना के लिए अजय सिर्फ़ एक अहसास था एक सुखद अहसास----------जो उसके जज्बातों को ,उसकी भावनाओं की गहराइयों को समझता था और वो अपने इन्ही अहसासों के साथ जीना चाहती थी । कुछ इस तरह ---------------

इक हसीन अहसास बना
आ तुझे पलकों में बसा लूँ
अहसास जो सिमट जाए अंखियों में
तुझे दिल के आसन पर बिठा लूँ
दिल जब खो जाए अहसासों में
तुझे रूह के दामन में झूला लूँ
रूह जब मिल जाए तेरी रूह से
फिर तेरे मेरे अहसासों को खुदा बना लूँ



क्रमशः ..........................................

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

अमर प्रेम -------------भाग ३

गतांक से आगे ...............................

वक्त ने एक बार फिर करवट बदली। अर्चना के पास असंख्य ख़त आने लगे । लोग उसकी कविताओं की सराहना करने लगे। उन्ही में एक दिन उसे एक ख़त मिला जिसमें लिखा था :---------------

अर्चना जी ,

आप कैसे इतना गहन लिख लेती हैं ? आपकी हर रचना में ज़िन्दगी की सच्चाइयाँ छुपी होती हैं । आपके लेखन को नमन है। अर्चना जी आपकी हर कविता के साथ मेरी बनाई कोई न कोई फोटो छपती है या यूँ कहो मेरी बनाई हर फोटो के जज़्बात ,उसकी गहनता को आप कैसे अपनी कविताओं में ढाल देती हैं।
जो मैं अपनी चित्रकला के माध्यम से कहना चाहता हूँ उसके भाव सिर्फ़ और सिर्फ़ आप ही कैसे समझ लेती हैं । कौन सा रिश्ता है आपकी कविताओं और मेरी चित्रकला के बीच।

सादर आभार
अजय


इस ख़त का जवाब अर्चना ने कुछ यूँ दिया :-----------------

अजय जी ,
सादर धन्यवाद ................आपको मेरी लिखी कवितायेँ पसंद आती हैं। आपकी बनाई कलाकृति हर कोमल ह्रदय इंसान को ख़ुद -ब-ख़ुद कोई न कोई कविता गढ़ने को विवश कर दे .............इतनी जीवन्तता होती है आपकी कलाकृति में।
फिर भी इतना कहना चाहूंगी शायद हम दोनों की राशि एक है------------हो सकता है इसलिए समझ सकती हूँ आपकी गहन भावनाएं जो हर कृति में छुपी होती हैं।

सादर आभार
अर्चना

उस वक्त अर्चना ने न जाने किन भावनाओं के वशीभूत होकर या यूँ कहो दिल्लगी करने के लिए इस प्रकार की बातें कह दीं । उस वक्त अर्चना ने सोचा भी न था कि हल्के से कही बात अजय के जीवन को एक नया मोड़ दे देगी। बस उसके बाद तो अर्चना और अजय के खतों का सिलसिला चल ही पड़ा । दोनों के बीच एक अनोखा दोस्ती का रिश्ता कायम हो गया। अजय जब तक अर्चना कि कविता पढ़ न लेता या अर्चना जब तक अजय की चित्रकला पर कविता न गढ़ लेती दोनों में से एक दूसरे को चैन ही न पड़ता। अजय के लिए तो अर्चना जैसे भोर का नया उजाला बन कर आई थी। धीरे धीरे रिश्ता आकार लेने लगा। सबसे अहम बात इस रिश्ते की कि अब तक दोनों कभी एक दूसरे से मिले भी न थे .....................एक दूजे को देखा भी न था। कितना सुखद अहसास था इस रिश्ते का।शायद कुछ इस तरह :---------------
न तुमने मुझे देखा
न कभी हम मिले
फिर भी न जाने कैसे
दिल मिल गए
सिर्फ़ जज़्बात हमने
गढे थे पन्नों पर
और वो ही हमारी
दिल की आवाज़ बन गए
बिना देखे भी
बिना इज़हार किए भी
शायद प्यार होता है
प्यार का शायद
ये भी इक मुकाम होता है
मोहब्बत ऐसे भी की जाती है
या शायद ये ही
मोहब्बत होती है
कभी मीरा सी
कभी राधा सी
मोहब्बत हर
तरह से होती है
क्रमशः .............................................

शनिवार, 12 सितंबर 2009

अमर प्रेम ------------भाग -2

गतांक से आगे ..........

हर नारी के जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जब वो सिर्फ़ अपने लिए जीना चाहती है या सिर्फ़ अपने लिए जीती है। अब अर्चना की ज़िन्दगी भी अपना रूप बदलने लगी थी । परिवार को समर्पित अर्चना के पास, अब वक्त ही वक्त था। अब उसके बच्चे बड़े हो गए थे । अपनी अपनी पढाई में व्यस्त रहने लगे । पति व्यापार में व्यस्त और अर्चना ..............उसके लिए अब वक्त पाँव पसारने लगा । दिन का एक -एक लम्हा एक -एक युग बनने लगा। उसे समझ नही आ रहा था कि क्या करे.ऐसे में उसकी सहेली ने उसकी सहायता की.उसे उसके पुराने शौक की याद दिलाई.हाँ .............जिस शौक को वो भूल चुकी थी । अब वो ही शौक उसके तन्हा लम्हों का साथी बनने लगा. अर्चना को बचपन से ही कवितायेँ लिखने का शौक था.मगर घर की जिम्मेदारियां निभाते-निभाते वो अपने शौक को भूल ही चुकी थी।

अब अर्चना की ज़िन्दगी कल्पना की उड़ान पर एक बार फिर रंग भरने लगी। उसने एक बार फिर कवितायेँ लिखना शुरू किया और पत्रिकाओं में छपवाने लगी। अब अर्चना का भी अपना एक मुकाम बनने लगा। लोग उसे जानने लगे और वो भी बेजोड़ कवितायेँ लिखने का प्रयास करने लगी। धीरे- धीरे उसके अनेक प्रशंसक बनने लगे.उसकी अपनी एक अलग पहचान बनने लगी । लोग उसे सराहते और वो भी औरों की कवितायेँ पढ़ती और उन्हें सराहती। ज़िन्दगी अपनी ही धुन में गुजरने लगी।

और अब कुछ इस तरह अर्चना अपनी कल्पनाओं में रंग भरने लगी.

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

अमर प्रेम

अर्चना और समीर की खुशहाल बगिया और उसके दो महकते फूल .................हर तरफ़
ज़िन्दगी में बहार ही बहार । दोनों खुशहाल जीवन जीते हुए । प्रेम का सागर चहुँ ओर ठाठें
मार रहा हो जहाँ । समीर एक सौम्य नेकदिल इंसान ,अपने व्यवसाय में व्यस्त ,पारिवारिक
जिम्मेदारियों के प्रति पूर्णतया समर्पित और अर्चना एक पढ़ी लिखी ,सुशील ,सुंदर घर परिवार
की जिम्मेदारियां निभाती हुई पति के कंधे से कन्धा मिलकर चलती हुई एक संपूर्ण नारी
का प्रतिरूप।
उन्हें देखकर लगता ही नही कि वक्त ने कोई लकीर छोडी हो उनकी ज़िन्दगी पर। वैवाहिक
जीवन के २० साल बाद भी यूँ लगता है जैसे विवाह को कुछ वक्त ही गुजरा हो । दोनों ज़िन्दगी
को भरपूर जीते हुए यूँ प्रतीत होते जैसे एक दूजे के लिए ही बने हों।

ओ मेरे प्रियतम
प्रेम मल्हार गाओ तुम
प्रेम रस में भीगूँ मैं
मेघ बन नभ पर छा जाओ
मयूर सा नृत्य करुँ मैं
वंशी में स्वर भरो तुम
और रस बन बहूँ में
वीणा के तार जगाओ तुम
सुरों को झंकृत करुँ मैं
शरतचंद्र से चंचल बनो तुम
चांदनी सी झर झर झरूँ मैं
तारागन के मध्य , प्रिये तुम
और नीलमणि सी , खिलूँ मैं

ऐसा अद्भुत प्रेम अर्चना और समीर का ।

क्रमश .........................................
दोस्तों
ज़िन्दगी में कभी नही सोचा था कहानी लिखने का ।
एक प्रयास कर रही हूँ जिसमें आप सबके सहयोग की
आकांक्षी हूँ । मेरे दो ब्लॉग हैं ------'ज़िन्दगी' और 'ज़ख्म'
उन पर अपने ह्रदय के उदगार प्रगट करती हूँ ।
अब यह एक नया प्रयास है जिसमें प्रेम और विरह को
नमन है ।





प्रेम और विरह का स्वरुप

प्रेम ----एक दिव्य अनुभूति --------कोई प्रगट स्वरुप नही,
कोई आकार नही मगर फिर भी सर्व्यापक ।
प्रेम के बिना न संसार है न भगवान । प्रेम ही खुदा है और खुदा ही प्रेम है --------सत्य है।
प्रेम का सौन्दर्य क्या है ------विरह । प्रेम का अनोखा अद्भुत स्वरुप विरह(वियोग)है ।
बिना विरह के प्रेम अधूरा है और बिना प्रेम के विरह नही हो सकता ।
दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । एक के बिना दूसरे की गति नही ।
प्रेम के वृक्ष पर विकसित वो फल है विरह जिसका सौंदर्य
दिन-ब-दिन बढ़ता ही है । जो सुख मिलन में नही वो सुख विरह में है
जहाँ प्रेमास्पद हर क्षण नेत्रों के सामने रहता है और इससे बड़ा
सुख क्या हो सकता है । बस इसी विरह और प्रेम का सम्मिश्रण है ये
अमर प्रेम ।