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शनिवार, 19 सितंबर 2009

अमर प्रेम --------------भाग ५

गतांक से आगे .......................................

नदी के दो किनारों से दोनों चल रहे थे मगर एक कसक साथ लिए । जैसे नदी के किनारे चाह कर भी नही मिल पाते मगर फिर भी मिलने की कसक हर पल दिल में पलती रहती है कुछ ऐसा ही हाल दोनों का था। अजय की तड़प मिलने की चाह बार- बार अर्चना को बेचैन कर जाती । वो बार- बार समझाती ,हर बार कहती ये क्या कम है कि हम एक दूसरे की भावनाओं को समझते हैं ,जो तुम कह नही पाते या जो मैं सुन नही पाती वो भी हम दोनों के दिल समझते हैं,हमसे ज्यादा हमारे दिल एक दूसरे को जानने लगे हैं ,बिना कहे भी हर बात पहचानने लगे हैं,तो क्या वहां वाणी को मुखर करना जरूरी है ?हर चीज़ की एक मर्यादा होती है और जो मर्यादा में रहता है वहां दिखावे को जरूरत नही होती,अपनी अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करना कहाँ ठीक है-----------क्या जीने के लिए इतना काफी नही । जब शब्दों से ज्यादा मौन बोलने लगे तब वाणी को विराम देना ही उचित है । कुछ अनकही बातें मौन कह जाता है और मौन की भाषा कभी शब्दों की मांग नही करती। मगर अजय वो तो अपनी कल्पना के साथ जीना चाहता था ------------तन से नही मन से , शरीर से नही आत्मिक प्रेम के साथ और उसी प्रेम की स्वीकारोक्ति अर्चना से भी चाहता था इसीलिए अजय हर बार अर्चना से पूछता ------------क्या वो उसे प्रेम करती है ? मगर अर्चना हर बार मना कर देती । अजय का उन्माद अर्चना को हकीकत लगने लगा था इसीलिए वो अजय को हर बार सच्चाई के धरातल पर ले आती । अपने और उसके जीवन का सच समझाती मगर अजय तो जैसे इन सबसे दूर अपनी कल्पनाओं के साथ ही जीने लगा था , बेशक शारीरिक प्रेम नही था मगर वो कहते हैं ना प्रेम के पंछी ये कब सोचते हैं ---------वो तो बस उड़ना जानते हैं । कुछ ऐसा ही हाल अजय का था । मगर अर्चना -------उसका तो आत्मिक प्रेम हो या शारीरिक या मानसिक जो कुछ था वो सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने समीर के लिए था । वो तो कभी ख्वाब में भी ऐसा ख्याल दिल में लाना ही नही चाहती थी । मगर अजय के रूप में मिला दोस्त खोना भी नही चाहती थी । अजय का अर्चना के जीवन में एक अलग ही स्थान था मगर वो प्रेम नही था अर्चना का। वो शायद उससे भी ऊंचा कोई स्थान था अर्चना के जीवन में जहाँ उसने अजय को बिठाया था मगर अजय के लिए स्वीकारोक्ति जरूरी थी और ये अर्चना के लिए एक कठिन राह.........................


तुमने दर्द माँगा माँगा
मैं दे ना सकी
तुमने दिल माँगा
मैं दे ना सकी
तुमने आंसू मांगे
मैं दे ना सकी
तुमने मुझे चाहा
मैं तुम्हें चाह ना सकी
दिल की बात कभी
होठों पर ला ना सकी
ना जाने किस मिटटी के बने हो तुम
जन्मों के इंतज़ार के लिए खड़े हो तुम
ये कैसी खामोशी है
ये कैसा नशा है
ये कैसा प्यार है
क्यूँ ज़हर ये पी रहे हो
क्यूँ मेरे इश्क में मर रहे हो
मैं इक ख्वाब हूँ, हकीकत नही
किसी की प्रेयसी हूँ , तेरी नही
फिर क्यूँ इस पागलपन में जी रहे हो
इतना दीवानावार प्यार कर रहे हो
अगले जनम में मिलन की आस में
क्यूँ मेरा इंतज़ार कर रहे हो


क्रमशः .....................................

4 टिप्‍पणियां:

समयचक्र ने कहा…

बढ़िया रोचक पोस्ट. नवरात्र पर्व की हार्दिक शुभकामना

निर्मला कपिला ने कहा…

बहुत सुन्दर ऐ क्हानी भी और कविता भी आभार अगले भाग का इन्तज़ार रहेगा

Prem Farukhabadi ने कहा…

वंदना जी ,
कहानी में रोचकता है मगर अर्चना को इतना कठोर नहीं होना चाहिए.कोई मर्यादा में इतना रहे की प्यार जिन्दा रहे.ऐसा न हो की अजय दूर चला जाये.थोडी मर्यादा कम करें.फिर जैसी मर्जी आपकी.मज़ा तो आ ही रहा है कहानी में.बधाई ! !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

वन्दना जी।
आपके धारावाहिक में रोचकता के साथ
नये-नये मोड़ भी आ रहे हैं।
कथानक बढ़िया चल रहा है।
बधाई!