प्रभो
ना जाने कौन सा खेल खेल रहे हो
क्यों मन में सवालों के भंवर उठा रहे हो
ये तो तुम ही जानो
क्या है तुम्हारी माया
मैं तो जीव परवश हूँ
इसलिए जो प्रश्न रूप में तुम
अवतरित हुए हो
उसे ही तुम्हारे सम्मुख रखता हूँ
आखिर शब्द "मै" ने फिर एक प्रश्न उठाया
लो फिर प्रश्नों की गंगा लेकर
मै तुम्हारे सम्मुख आया
इस बार तुम जरूर अनुत्तरित होंगे
तुम्हें हराना मेरा मंतव्य नही
बस ये भी तुम्हारी ही
कोई माया दिखती है
जिसे तुम्हारे सम्मुख
तो लाना होगा और
खुद को प्रश्न जाल से
बाहर निकालना होगा
तुम कहते हो
मैंने जीव को धरती पर भेजा
सिर्फ भगवान को पाने के लिए
और ये आकर यहाँ
विषय विकारों
घर गृहस्थी के चक्कर में
मुझको भूल गया
इसलिए इसे अपने पास बुलाने को
अपनी याद दिलाने को
कभी कभी विपदाएं देता हूँ
और अपनी याद कराता हूँ
अरे भगवन ये कैसा तुम्हारा कृत्य हुआ?
ऐसे तो तुमने खुद को ही
महिमामंडित किया
अपने "मैं " को प्रधान बताया
सिर्फ अपने को ही
पुजवाना चाहा
दूसरी बात
तुम कहते हो
जीव तुम्हारा ही अंश है
या कहो
हर रूप में तुम ही विराजते हो
तो बताओ तो जरा
यदि जीव रूप में तुम ही हो
और जीव भी "मैं मैं "
ही करता है
अपने लिए ही जीता है
तो क्या बुरा करता है
जब तुम "मैं हूँ एक ब्रह्म"
इस सत्य को उद्घाटित करते हो
तो क्या तुम खुद नहीं
"मैं" के भंवर में फंसते हो
और अपने " मैं " को संतुष्ट करने के लिए
ये अजीबो गरीब चक्रव्यूह रचते हो
जब घर गृहस्थी में फंसाया है
तो जीविकोपार्जन हेतु
कार्य तो उसे करना होगा
जीवन सञ्चालन के लिए
उद्योग भी करना होगा
और उसमे झूठ सच का
सहारा भी लेना ही पड़ता है
हर काम सिर्फ तुम्हारे नाम पर ही
तो नहीं चल सकता है ना
फिर जब सब तुम्हारा है
सब में तुम हो
तो बताओ
भिन्नता कैसी ?
कौन किससे भिन्न हुआ ?
जीव रूप में भी तुम
ईश्वर तो हो ही तुम
तो जीव ने "मैं" कहा
तो क्यों तुम्हें बुरा लगा
क्या वो "मैं" कहने वाला
तुम ना हुए?
क्या वो "मैं" तुमसे भिन्न हुआ ?
और खुद को खुद से पुजवाना
अपनी याद दिलाना
ये तो सब तुम्हारे ही
क्रियाकलाप हुए ना
फिर कैसे जीव इनका कर्ता और भोक्ता हुआ ?
जब हर रूप में तुम ही
विराजते हो
जब तुम कहते हो
तुम्हारी इच्छा के बिना
पत्ता तक हिलता नहीं
फिर यहाँ किसे किससे भिन्न कर रहे हो ?
क्यों ये भेद बुद्धि बनाई तुमने
जो जीव और ब्रह्म में फंसाई तुमने
पहले तुम ही सही निर्णय कर लो
कि तुम जीव हो या ब्रह्म
कि तुम ही हर जीव में समाये हो ना नहीं
कि हर रूप में तुम ही तुम होते हो
सब कल्पना विलास हो या यथार्थ
हर रूप , भाव , शब्द, कथन
सबमे तुम्हारा ही तो रूप समाया है
फिर बताओ तो जरा
कौन किससे जुदा है
फिर कौन ये नट का खेल खेलता है
भोले भक्त की बातें सुन
प्रभु मुस्काते हैं
मन ही मन हर्षित होते हैं
जानते हैं ना
ये प्रश्न हर दिल में उठता है
शायद तभी आज
इसे कहने की इसने हिम्मत की है
जो हर कोई नहीं कर पाता है
यदि करता है तो उसके
प्रश्नों का ना सही उत्तर मिलता है
प्रभु बोले
प्यारे भक्त मेरे
क्यों तू भूलभुलैया में फंसता है
एक तरफ तू खुद ही कह रहा है
कि सब करने वाला मैं ही हूँ
तो सोच जरा
तेरे मन में उठने वाला प्रश्न
भी मैं ही हूँ
और जवाब देना वाला भी मैं ही हूँ
मेरी शक्ति अदम्य है
मुझसे ना कुछ भिन्न है
जब नटवर कहा है तो
उसकी जादूगरी में भी
तो फंसना होगा
गर उसका हर खेल जान लिया
तो बताओ तो जरा
वो कैसा जादूगर हुआ
फिर भी बतलाता हूँ
हाँ .........मैं हूँ रचयिता
मैं ही हर रूप में समाया हूँ
सब मेरा ही क्रियाकलाप है
कुछ भी ना मुझसे भिन्न है
मैंने ही ये खेल रचा है
मैं ही कार्य, कारण और कर्ता, भोक्ता हूँ
मैं ही जगत नियंता हूँ
क्या मैं खेल नहीं रच सकता हूँ
बस खेल ही तो खेल रहा हूँ
फिर तू क्यों उलझन में पड़ता है
क्यों नही निर्विकार होकर रहता है
जब तू जान गया
मेरे सत्य रूप को पहचान गया
फिर क्यों भेद बुद्धि में फंसता है
बस सब आशा, तृष्णा ,अहंता, ममता
राग- द्वेष, जीवन- मृत्यु, हानि -लाभ
सब को छोड़ एक मेरा निरंतर ध्यान धर
मुझमे ही अपने स्वरुप का विलय कर
बस एक बार अपने सब कर्म
मुझको अर्पण कर दे
फिर मुझमे ही तू मिल जायेगा
सारे कर्म बंधनों से मुक्त हो जायेगा
बात तो प्रभु फिर वहीँ आ गयी
जब सब तुम्हारा है
तुम ही कर्ता भोक्ता हो
फिर मेरी क्या हस्ती है ?
कैसे मैं खुद को नियंत्रित कर सकता हूँ
सब तुम्हारा रचाया तो खेल है
उसमे मैं कैसे विघ्न उत्पन्न कर सकता हूँ
क्या मेरे हाथ में तुमने कुछ दे रखा है
क्या मैं अपनी मर्जी से कुछ कर सकता हूँ
नहीं ना ..........तो ये अर्पण समर्पण भी
सब तुम्हारा है
तुम ही जानो
कराओ तो सही ना कराओ तो सही
क्योंकि मेरी दृष्टि में तो
तुम ही सब करने वाले हो
मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि सबमे
तुम ही तो समाये हो
और सबके नियंत्रणकर्ता भी तुम ही हो
तो भला मैं कैसे स्वतंत्र हुआ
मैं तो तुम्हारे हाथ की वो कठपुतली हूँ
जिसे जैसे चाहे नचाते हो
अब ये प्रश्न रूप में भी तुम ही हो
और उत्तर रूप में भी तुम ही हो
फिर भला मेरी क्या हस्ती है
अब मान भी जाओ
अपने " मैं " के पोषण के लिए
तुम ही भिन्न रूप रखते हो
स्वयं को महिमामंडित करते हो
मानो प्रभु ..........तुम भी "मैं " के जाल से ना मुक्त हो
ज्ञान के शिखर पर पहुँच कर भी
अज्ञानता के तम में फँस जाता है
जीव ऐसे ही तो उसके
चक्रव्यूह में फँस जाता है
जब ये अजीबो गरीब प्रश्न
उसके मन में उठते हैं
उफ़ ! ये कैसा अजब जाल बिछाया है
आज तो जग नियंता पालनकर्ता भी
अपने जाल में फँस गया
मंद मंद मुस्काता है
मगर कह कुछ ना पाता है
बस यही तो भक्त और भगवन की
अजब गज़ब लीलाएं चलती हैं
जो नए नए रूप बदलती हैं
मगर सत्य हर युग
हर काल मे एक ही रहता है
करने कराने वाला तो
सिर्फ़ वो ही होता है
हम तो सिर्फ़ माध्यम बनते हैं
और इसी बल पर ऐंठे फ़िरते हैं
जरा सी ढील देता है तो
पतंग लहराने लगती है
और जरा सी खींच दे तो
सही राह पर चलने लगती है
बस कटने से पहले तक ही
ये प्रश्न मन मे उठते हैं
जिनके उत्तरों मे हम
जनम जनम भटकते हैं
जो उत्तर पा जाता है
वो निरुत्तर हो जाता है
ये भी कोई माया है
ये भी कोई खेल होगा
यूँ ही तो नही बिना कारण प्रश्नोत्तरी रूप धरा होगा
हाँ , आज तुम्हें एक नया नाम दे दिया …………मेरे प्रश्नोत्तर!
शायद ये भी प्रीत का ही कोई रंग होगा
यूँ ही तो नही ये नाम तुम्हें मिला होगा ……खुश तो हो ना !!!!!!