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मंगलवार, 30 सितंबर 2014

माँ की महिमा




छटा दिवस कात्यायनी धारे अद्भुत स्वरूप 
दिव्य अलौकिक तेज से हो जाओ भरपूर 

हो रिद्धि सिद्धि के साथ से जीवन भरपूर
आज्ञा चक्र की जागृति का ये अद्भुत प्रभाव

नित माँ की महिमा का करो तुम गुणगान
फिर रोग शोक संताप का हो जाता है नाश

सोमवार, 29 सितंबर 2014

स्कन्ध रूप लिया धार



पञ्च दिवस माँ ने स्कन्ध रूप लिया धार 
तब भक्तों में किया एकाग्रता का संचार 

अच्छे और बुरे का खुद ही करो ध्यान 
बन खुद के सेनापति निर्णय करो तत्काल 

परम सुख और शांति का अनुभव जब हो जाए 
शक्ति की कृपा को तब हर प्राणी मान जाए 

रविवार, 28 सितंबर 2014

आओ करें आराधना



चतुर्थ दिवस चतुर्थ रूप कू्ष्मांडा का अनूप 
धन धान्य सम्पदा से जीवन भरती भरपूर 

माँ की आराधना करे रोग शोक का नाश  
आयु यश और बल से भरा रहे भण्डार 

माँ की दिव्यता का नित्य करो गुणगान 
भवसागर से बिन प्रयास हो जाओगे पार 

शनिवार, 27 सितंबर 2014

चन्द्रघंटा की टंकार



तृतीय दिवस तृतीय रूप माँ शिवदूती कहलाए 
जो भी नतमस्तक हो सर्व सिद्धि पा जाए 

काम क्रोध लोभ मोह अहंकार शत्रु जब सताये 
चन्द्रघंटा की टंकार से हर अमंगल मिट जाए 

दिव्य स्वरूप दिव्य ज्योति जगमग चमकी जाए 
सच्चे दिल से करो अराधना दिव्य दर्शन हो जाए

शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

पूजा वही होती सार्थक



द्वितीय दिवस द्वितीय रूप का आओ करें आह्वान 
माँ की दिव्य ज्योति से पायें परम विश्राम

पूजा वही होती सार्थक जो देती ये संदेश 
जब जीवन में तुम उतारो माँ का ये उपदेश 

श्रम परिश्रम बिना न होते सफ़ल अभियान 
ब्रह्मचारिणी के इस रूप की यही महिमा महान


गुरुवार, 25 सितंबर 2014

वन्दन बारम्बार



प्रथम दिवस प्रथम रूप का दर्शन 
कर बने सम्पूर्ण जगत  खुशहाल 

शक्ति  औ दृढता करो माँ प्रदान 
जो दे जीवन को स्थिरता का आधार 

माँ के अदभुत रूप को करें वन्दन बारम्बार
तेजोमयी के तेज से प्रकाशित हो जाए संसार 

 नवरात्रि सभी के लिए मंगलमय हों 

रविवार, 21 सितंबर 2014

प्रेम -- एक प्रश्नचिन्ह -- आखिर क्यों ?

जाने कितने युग गुजर गये व्यक्त करते करते मगर क्या कभी हुआ व्यक्त ?पूरी तरह क्या कर पाया कोई परिभाषित ? नहीं , प्रेम- विशुद्ध प्रेम परिभाषाओं का मोहताज नहीं होता तो कैसे उसे उल्लखित किया जा सकता है ? कैसे उसके बारे में दूसरे को समझाया जा सकता है ? 

जब आप प्यार में होते हो तो वो शारीरिक होता है प्यार इंसान सभी से करता है फिर वो अपने हों या पराये या पेड पौधे , पशु या पक्षी । इंसान की फ़ितरत है प्यार करना । प्यार में भी अन्तर आ जाता है कहीं वो दयाभाव से होता है तो कहीं करुणा से तो कहीं किसी अपने के प्रति अपार स्नेह के रूप में मगर प्रेम उससे बहुत आगे की श्रृंखला में आता है जहाँ पहुँचने के बाद और कुछ पाना शेष न रहे , कोई आपमें इच्छा न रहे , सब एक में ही समाहित हो जाए या आप का" मैं " मिट जाए बस एक वो ही नज़र आए आप उसके अक्स में ऐसे सिमट जाएं कि दो होने का अहसास ही गुम हो जाए वो होता है अलौकिक प्रेम जो कम से कम इंसानों के बीच तो नहीं दिखता या मिलता। इंसान तो वशीभूत होता है अपनी जरूरतों के और जब आप किसी के साथ रहते हैं तो वो आपकी आदत बन जाता है और जो आदत बन जाए अगर उससे आपको बिछडना पडे हमेशा के लिए तो वहाँ एक ऐसा ज़ख्म बन जाता है जो जल्दी से नहीं भरता मगर एक दिन भरता जरूर है क्योंकि ये इंसान का स्वभाव है या उसकी स्मृति ऐसी है कि उसे उन संबंधों और रिश्तों को भुलाना पड जाता है क्योंकि जो चला गया वो वापस नहीं आ सकता जानता है वो ये सत्य इसलिए उसे उस सत्य को स्वीकारने में वक्त लगता है लेकिन जब स्वीकार लेता है तो स्मृति पर भी धूल गिरने लगती है और अब उसकी याद की वेदना इतना नहीं कचोटती । कोई याद दिलाए तो याद आता है तब भी उस स्तर तक नहीं उतरता जिस पर वो उससे बिछडते वक्त होता है जो यही सिद्ध करता है कि इंसान का प्रेम सिर्फ़ शारीरिक स्तर तक ही होता है और वो भी किसकी उसके जीवन में कितनी अहमियत है या थी सिर्फ़ उस स्तर तक ही लेकिन ये कहा जाए कि दो इंसानों में अलौकिक विशुद्ध प्रेम होता है तो एक नामुमकिन सा ख्याल भर लगता है क्योंकि आज के भौतिक युग में कहाँ इतना वक्त है इंसान के पास , उसे आगे बढना है , जीवन चलता रहता है तो वो नहीं बँधा रह सकता निराशा के एक ही खूँटे से और आगे बढने के लिए जरूरी होता है अतीत की परछाइयों से खुद को मुक्त करना । 

ऐसे में कैसे आज के भौतिक युग में इंसान विशुद्ध प्रेम के सहारे जीवनयापन कर सकता है और यदि विशुद्ध प्रेम किसी का होगा भी तो वो सिर्फ़ प्रभु से होगा इंसान से नहीं । अब प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव में प्रभु से विशुद्ध प्रेम होना ही प्रेम की उच्चतम अवस्था है ? क्या प्रेम को मिल जाता है उसका स्वरूप ? क्या इस तरह हो जाता है प्रेम पूरी तरह व्यक्त ? क्या 'प्रेम ही खुदा है और खुदा ही प्रेम' को चरितार्थ किया जा सकता है इस तरह ? क्योंकि कभी कभी लगता है कि प्रेम भी जीवनयापन के लिए मात्र एक उपकरण है ताकि इंसान इसका अवलम्बन ले जीवन जी सके वरना देखा जाए तो ये जानने की प्रक्रिया का अंत तो खुद पर ही होता है जब इंसान अपने अन्तस में उतरता है , खुद को पहचानने की कोशिश करता है और जिस दिन खुद को जान लेता है प्रेम , ईश्वर , संसार सब मिथ्या हो जाते हैं उसके लिए क्योंकि तब उसे लगता है जो कुछ है सिर्फ़ वो ही है , सब उसी की दृष्टि का विलास है उससे इतर कुछ भी तो नहीं है और जब ये बोध हो जाता है तो खत्म हो जाता है संसार ,प्रेम व  उसका अस्तित्व । जो यही सिद्ध कर रहा है कि प्रेम भी मात्र एक उपकरण भर है जब तक कि इंसान को बोध न हो जाए फिर एक अलौकिक आनन्द में समाया इंसान अपने मौन में ऐसा समाहित हो जाता है जहाँ दो का भास खत्म हो जाता है और अपनी नैसर्गिक आनन्दानुभूति में डूब जाता है मगर जब तक न इस हद तक पहुँचता है तब तक जीवन जीने के लिये प्रेम और प्यार के उपकरणों का प्रयोग करता है और एक भटकाव में जीता रहता है । 

गुरुवार, 18 सितंबर 2014

किससे करूँ जिद

किससे करूँ जिद 
कोई हो पूरी करने वाला तो करूँ भी 
और तुम , तुमसे उम्मीद नहीं 
क्योंकि बहुत जिद्दी हो तुम 
मुझसे भी ज्यादा 
और मुझसे क्या 
इस दुनिया में सबसे ज्यादा 
फिर भला कैसे संभव है मेरा पानी पर दीवार बनाना 
देखा है तुम्हारी जिद को 
और देख ही रही हूँ जाने कब से 
कितने युग बीते तुम न बदले 
और न ही बदली तुम्हारी परिभाषा , तुम्हारे मापदंड 
वैसे भी सुना है 
जहाँ चाहत होती है वहाँ ही जिद भी होती है 
मगर मुझे तो पता ही नहीं 
तुम्हारी चाहत मैं कभी बनी भी या नहीं 
तो बताओ भला किस आस की पालकी पर चढूँ 
और करूँ एक जिद तुमसे तुम्हारे दीदार की ……ओ मोहना !!!

शनिवार, 13 सितंबर 2014

तुम्हें पाने और खोने के बीच


तुम्हें पाने और खोने के बीच 
तुम्हारे होने और न होने के बीच 
डूबती उतराती मेरे विचारों की नैया 
मेरा भ्रम नहीं तुम्हारा निर्विकल्प संदेश है 
जो मैने गुनगुनाया तब तुम्हें पाया ………ओ कृष्ण ! 

अखण्ड समाधिस्थ की स्थिति में स्थितप्रज्ञ से तुम 
हो जाते हो कभी कभी आत्मसात से 
तो कभी विलीन इतने दूर 
कि असमंजस की दिशायें 
कुलबुलाकर छोडने लगती हैं धैर्य के संबल 

निष्ठा श्रद्धा विश्वास और प्रेम के तराजू पर 
काँटे कभी समस्तर पर नही पहुँचते 
तुम्हारा ज्ञान हो जाता है धराशायी प्रेम के अवलंबन पर 
कहो तो कैसे तुममें से तुम्हें जुदा करूँ 
कैसे खुद को फ़ना करूँ 
जो निर्बाध गति हो जाए 
प्रेम प्रेम में समाहित हो जाए .......कहो तो ओ कृष्ण !

शनिवार, 6 सितंबर 2014

एक शून्यता और मैं

कोई उन्माद नहीं

कोई जेहाद नहीं


मन मौन के प्रस्तरों को


छिद्रित करने को आतुर नहीं


फिर विचार श्रृंखला


ध्वस्त हो या बिद्ध


मौसम ऊष्ण हो या शीत


जीवन की क्षणभंगुरता में


मोह के कवच और लोभ के कुण्डल


कितने ही आकर्षित करें



एक शून्यता और मैं निर्बाध विचरण कर रहे हैं

फिर किस्म किस्म के कुसुम अब कौन चुने और क्यों ?