सुनो कृष्ण
बच्चे की चाँद पकड़ने की ख्वाहिश
जन्म ले रही है
अलभ्य को प्राप्त करने की चाह
है न कैसा अनोखा जूनून
जो असंभव है
उसे संभव करने का वीतराग
कलियों के चटखने के भी मौसम हुआ करते हैं
और ये बे- मौसमी आतिशबाजी
जाने कौन सा नगर रौशन करने की चाह है
जिस पर स्वयं ही प्रश्नचिन्ह लगाती हूँ
बार बार खुद को समझाती हूँ
मगर ये बेलगाम घोडा फिर
सरपट दौड़ लगाने लगता है
"मंजिल पता नहीं मगर तलाश जारी है "
का नोटिस बोर्ड टंगा है
कोशिश की तमाम बेलें
सिरे चढ़ा चुकी
पर ख्वाहिश है कि मानती ही नहीं
उपहास का पात्र बनाने को आतुर है
मगर मानने को नहीं
कि
सबको सब कुछ नहीं मिलता
सिर्फ एक चाह बलवती हो जाती है
"यदि चाहोगे तो मिलेगा जरूर "
सुना है तुम पूरा करते हो
जो कहा वो भी
और जो न कहा वो भी
बस इसी फेर में पड़ी ख्वाहिश
नित परवान चढ़े जाती है
देखो हँसना मत
जानती हूँ बचपना है
मैं वो कण हूँ
जिसका कोई अर्थ नहीं
कोई स्वरुप नहीं
फिर भी तुमसे न कहूं तो किस्से कहूं
सोच
आज कहने का मन बना ही लिया
तो मोहन
वैसे तो तुम जानते ही हो
लेकिन बच्चा जब तक स्वयं नहीं मांगता
माता पिता भी तब तक नहीं देते
वैसे ही जब तक तुम्हारे भक्त नहीं कहते
तब तक तुम भी उसकी
छटपटाहट का मज़ा लेते रहते हो
तो सुनो प्यारे
जानना है मुझे स्वरुप संसार का
अपने जीवन रहते ही
जानना है मुझे
मेरे बाद मेरे अस्तित्व की परिभाषा को
जानना है मुझे
जब सब जल समाधि ले ले
और तुम पत्ते पर
अंगूठा चूसे अवतरित हों
तब क्या होता है
और उसके बाद भी
तुम्हारा प्रगाढ़ निद्रा में सोना और जागना
सब कुछ देखने की चाह
सब कुछ जानना
तुम्हारे भीतर से भी
तुम्हारी इच्छा को भी
कैसे स्वयं को अकेला महसूसते हो
फिर कैसे सृष्टि निर्माण करते हो
कितने ब्रह्माण्ड में विचरते हो
कितने रूप धरते हो
सुनो
सुन और पढ़ तो बरसों से रही हूँ
मगर अब देखने की चाह है
यदि पा जाऊं जीवन में कोई मुकाम
तो मेरे बाद मेरा जीवन में क्या हश्र होगा
कैसे मेरा अस्तित्व जिंदा रहता है
मानती हूँ
सब झूठ है
नश्वर है जगत
और ये चाहना भी
मगर फिर भी चाहत का जन्म हुआ
और सुना है
तुम्हारे लिए कुछ भी असंभव नहीं
तो क्या कर सकोगे इस बार मेरी ये इच्छा पूरी
जिसमे तुम खुद एक चक्रव्यूह में घिरे हो
क्योंकि
तुमसे तुम्हारे सारे भेद खोलने की चाह रखना
बेशक मेरी बेवकूफी सही
मगर इतना जानती हूँ
असंभव नहीं तुम्हारे लिए कुछ भी