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बुधवार, 18 नवंबर 2015

तुम क्या हो ...एक द्वन्द



मैं स्वार्थी
जब भी चाहूँगी
अपने स्वार्थवश ही चाहूँगी

तुम्हारे प्रिय भक्तों सा नहीं है मेरा ह्रदय
निष्काम निष्कपट निश्छल
जो द्रवित हो उठे तुम्हारी पीड़ा में
और तुम उनके लिए नंगे पाँव दौड़े चले आओ

जो तुम्हें दुःख न पहुंचे
इसी सोच के कारण साँस लेते भी डरे 
या फिर तुम्हारे मानवीय अवतार लेने से
पृथ्वी पर दुःख सहने से
खुद भी अश्रु बहाने लगें 
और कहने लगें
प्रभु ! मुझे अधम , पापी के कारण बहुत दुःख पाया आपने

न , न , मोहन ऐसा नहीं चाह सकती तुम्हें
नहीं है मुझमे मेरी चाहतों से परे कुछ भी
जानते हो क्यों
क्योंकि
ज्ञान की डुगडुगी सिर उठाने लगती है
कि तुम तो निराकार , निस्पृह , निर्विकार परम ब्रह्म हो
तो तुम्हें कैसे कोई दुःख तकलीफ पीड़ा छू सकती है
तुम कैसे व्यथित हो सकते हो
और मैं दो नावों में सवार हो जाती हों
जब भी तुम्हारे दो रूप पाती हूँ
साकार और निराकार
और हो जाती हूँ भ्रमित

बताओ ऐसे में कैसे संभव है
तार्किक और अतार्किक विश्लेषण
कैसे संभव है
एक तरफ तुम्हें चाहना
तुम्हारी मोहब्बत में बेमोल बिक जाना
तो दूसरी तरफ
तुम्हारे निराकारी निर्विकारी स्वरुप को आत्मसात करते हुए चाहना

क्योंकि
हूँ तो अज्ञानी जीव ही न
जो तुम्हारा पार नहीं पा सकता
और मेरा प्रेम स्वार्थी है
पहले भी कह चुकी हूँ
आदान प्रदान की प्रक्रिया ही बस जानती हूँ
एकतरफा प्रेम करना और निभाये जाना मेरे लिए तो संभव नहीं
उस पर तुम दो रूपों में विराजमान हों
ऐसे में तुम्हारे भ्रमों की उलझन में उलझे
मेरे दिल और दिमाग दोनों ही
द्वन्द के सागर में अक्सर डूबते उतरते रहते हैं
और मैं इस भंवर में जब खुद को घिरा पाती हूँ
सच कहती हूँ
तुम्हारे अस्तित्व से ही निष्क्रिय सी हो जाती हूँ
कभी तुम्हें तो कभी खुद को बेगाना पाती हूँ
तभी तो कहती हूँ मोहन
तुम्हें चाहना मेरे वश की बात नहीं ..

तुम क्या हो 

एक द्वन्द 
या उससे इतर भी कुछ और 
बता सकते हो ?

बुधवार, 4 नवंबर 2015

यदि आज मैं मर जाऊँ

यदि आज मैं मर जाऊँ
कुछ भी तो नहीं बदलना
सिवाय कुछ जिंदगियों के
जहाँ कुछ वक्त एक खालीपन उभरेगा
वो भी वक्त के साथ भर जाएगा
अक्सर मन में उठते इस विचार से
होती है जद्दोजहद
तो फिर जीवन का आखिर क्या है औचित्य ?

क्या सिर्फ इतना भर
पैदा होओ , कमाओ धमाओ
बच्चे पैदा करो
उनका पालन पोषण करो
और फिर एक दिन
तिरस्कृत हो जीवन से कूच कर जाओ
क्या सिर्फ इसीलिए
एक पूरे जीवन की जद्दोजहद ?

कभी छल प्रपंच
कभी बेईमानी , कभी झूठ
कभी अत्याचार के परचम तान
खुद को सर्वेसर्वा सिद्ध करना
जबकि अंत तो एक ही है
मृत्यु से कौन बचा है
फिर किसलिए डर आतंक का साम्राज्य
जब कुछ भी स्थायी नहीं
यहाँ तक कि खुद का होना भी ?

चाहतों के अम्बार लगा
आखिर किस आसमान पर उगायें उपवन और क्यों ?
जबकि
नश्वरता ही है अंतिम सत्य

मुझे मेरा होना प्रश्नों के कटघरे में अक्सर खड़ा कर देता है
और उत्तर में सिर्फ एक आश्रय
या तो कीर्ति की पताका ऐसी फहराओ
जन्म जन्मान्तरों तक न मिटे
या फिर
गिरधर से प्रीत लगा मीरा सूर कबीर तुलसी बन जाओ
जो आवागमन ही छुट जाए
या फिर
ज्ञान का दीप जला लो
हर तम मिट जाए
खुद का आभास हो जाए

और मैं बावरिया
किसी भी आन्तरिक तर्क से
खुद को नहीं कर पाती संतुष्ट
क्योंकि
येन केन प्रकारेण
नश्वरता ही है जब अंतिम सत्य
तो फिर किसलिए इतना उद्योग ?

खाली हाथ आना जाना
तो मध्य में क्यूँ खुद को भरमाना ?

उत्तर जानते हुए भी हो जाती हूँ अक्सर निरुत्तर
और खोज के पर्याय फिर निकल पड़ते हैं प्यास के रेगिस्तान को खोदने ...