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सोमवार, 14 जुलाई 2014

तुम्हारा " मैं "


सुना है 
माता पिता के गुणसूत्रों से ही 
शिशु का निर्माण होता है 
और आ जाते हैं उसमें 
मूलभूत गुण अवगुण स्वयमेव ही 

और हम हैं 
तुम्हारी ही रचना 
तुम्हारा ही प्रतिरूप 
तो कैसे संभव है 
तुम्हारे गुणों अवगुणों से 
मुक्त होना हमारा 

क्योंकि तुम्ही ने कहा है गीता में 
प्राणिमात्र का बीज हूँ " मैं " 
मैं ही सभी प्राणियों 
स्थावर , जंगम जड़ चेतन 
सभी का आदि मध्य व् अंत हूँ 
मैं ही मैं व्याप्त हूँ 
हर रूप में हर कण में 
फिर दैत्य हों या दानव 

हर जगह गीता में तुमने बस 
खुद को ही सिद्ध किया 
हर सोच में " मैं " 
हर  विचार में " मैं " 
हर क्रिया कलाप में " मैं " 
सिद्ध कर स्वयं के होने को 
प्रतिपादित किया 

यहाँ तक की ब्रह्मा को जब 
चतुश्श्लोकी भागवत सुनाई 
वहां भी इसी सिद्धांत का प्रतिपादन किया 
ब्रह्मा जब तुम नहीं थे 
तब भी मैं था 
जब तुम नहीं रहोगे 
तब भी मैं रहूँगा 
और ये जो तुम सब तरफ देख रहे हो 
ये है मेरी माया 
अर्थात मेरी इच्छा से उत्पन्न सृष्टि 
उसके भी तुम कर्ता नहीं 
इस सब में भी " मैं " ही व्याप्त हूँ 
हर जगह तुमने सिर्फ 
अपने मैं को  पोषित किया 

यहाँ तक कि 
जिसने तुम्हें अपना सर्वस्व माना 
अपना मैं भी तुम्हारे चरणों में 
समर्पित किया 
और जिसने तुम्हारी सत्ता नकारी 
तुम्हारा " मैं " न स्वीकार किया 
जिन्होंने माना और  जिन्होंने नकारा 
दोनों का तभी उद्धार किया 
जब तुम्हारा " मैं " पोषित हुआ 

तभी तो गीता के अंत में कह देते हो 
तू सरे धर्म छोड़ मेरी शरण  में आ जा 
" मैं " मुक्त पापों से करूंगा 
तू न कोई चिंता कर 
अर्थात 
जिसने तुम्हारे " मैं " रुपी दासता को स्वीकारा 
उसे तुमने उसकी भक्ति और प्रेम नाम दे उद्धार किया 
या जिसने  मैं को पोषित किया 
अपने बल और बुद्धि को ही सर्वस्व माना 
फिर वो रावण हो , हिरण्यकशिपु हो या कंस 
उनका तुमने संहार कर 
खुद के  " मैं " को पोषित किया 

अर्थात 
जब माधव 
तुम ही अपने " मैं " से मुक्त नहीं 
जब तुम ही अपनी " प्रशंसा " चाहते हो 
बस सब तुम्हारे होने को ही स्वीकारें 
तो बताओ भला कैसे संभव है 
आम मानव या प्राणी का 
" मैं " के व्यूह्जाल से मुक्त होना 
क्योंकि 
आखिर बीज तो तुम ही हो 
फिर फसल तो वैसी ही उपजेगी 
" मैं " का पोषण चाहने वाली 
आखिर तुम्ही हो माता पिता तुम तुम्ही हो 
तो कैसे मुक्त हो सकते हैं हम 
तुम्हारे द्वारा हस्तांतरित 
गुणसूत्रों के अवगुणों से भी 

एक अपने अहम के पोषण के लिए 
कितना बड़ा संसार रच देते हो 
सोचना ज़रा तो कैसे मुक्त हो सकता है 
मानव तुम्हारी दी इस सौगात से 
जिसके अंदर शामिल हैं 
इन्द्रियजनित काम क्रोध लोभ मोह भी अहंकार के साथ 

जब तुम सृष्टि निर्माण और विध्वंस का 
खेल बना सकते हो 
फिर मानव तो जो इस गंदले  सलिल में अटा पड़ा है 
 कैसे हो सकता है मुक्त 
या सोच सकता है कुछ अच्छा 
क्योंकि 
फर्क है तुममे और उसमें 
जैसा तुम कहते हो 
तुम निर्विकार हो और वो विकारी 
जबकि अहम के विकार से तो तुम भी नहीं हो मुक्त 
तब वो तो पांच पांच विकारों से ग्रस्त है 
और तुम एक से 
तुम्हारा एक विकार 
जन्म जन्मांतरों तक बंधन में 
भटकाए रखता है 
तो फिर जिसके अंदर पांच हों 
उसकी क्या हो सकती है 
कोई सीमा तय 
सोचना ज़रा 
तब पाप पुण्य आदि की 
परिभाषा तय करना 
तुम्हारे " मैं " से हमारे " मैं " तक के सफर में !!!