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गुरुवार, 12 अक्तूबर 2023

एक टुकड़ा चाँद का

 

उदासी की रेत से घरौंदे नहीं बना करते और मैंने तो पूरा महल बना लिया था जिसके हर कोने में,  हर झरोखे में सिवाय स्याह काली रातों के कहीं कोई रौशनी का टुकड़ा भी था फिर कैसे मेरे मन की मछरिया छनकर आते प्रकाश में उछलने को लालायित होती जिसने जाना ही नहीं प्रकाश होता है क्या?

 

नहीं, यूं ही नहीं बुना ये ताना बाना, एक घडियाली आंसू जज्ब है मेरी आँख में, औरत के आंसू घडियाली ही तो होते हैं इस सच से भला कौन वाकिफ नहीं तो खुद को भी संबोधन दे दूं तो क्या फर्क पड़ेगा, अंततः कटना मुझे ही है इसलिए छील रही हूँ खुद को खुद ही...आखिर देखूं तो सही कितनी बाकि बची हूँ अभी मैं.

 

वेदना के पाँव में पड़ी प्रेम की जंजीरें करती रहीं मोहताज ता-उम्र और मैं अपनी उदासियों के बनाती रही महल फिर कैसे संभव था जिंदा रहना मुझमें मुझसा कुछ...अब तुम्हारे सारे उपकरण धराशायी हो जायेंगे मगर बुत भी कभी भला सांस लिया करते हैं

 

मत खोलो अब झरोखों को...

रौशनी की अभ्यस्त नहीं रहीं अब मेरी आँखें...

 

नहीं सिमी नहीं, बस और नहीं...बहुत सह चुकीं, चलो आ जाओ इस ओर जहाँ एक चुटकी मुस्कान प्रतीक्षारत है, जहाँ एक जहान की मुट्ठी में है तुम्हारा सारा आकाश, तुम्हारी सारी जमीन और तुम्हारी सारी इच्छाएं, चाहतें और ख्वाब.

 

नहीं जुनैद , कुछ प्रतीक्षाओं का कभी अंत नहीं होता...जाओ, लौट जाओ, वापस अपनी दुनिया में फिर किसी जन्म शायद मिलन हो हमारा.

 

सिमी, रुको, ठहरो ... रुदन के गर्भ से ही तो जन्मेगा अब हमारा भविष्य, तुम्हारी छाती पर उगी पीड़ा की खरपतवार को जब तक उखाड़ कर न फेंक दूं, तुम्हें रुकना ही होगा, नहीं पता किसी अगले जन्म के बारे में. मेरा वर्तमान हो तुम और तुम्हारा मैं...बस मुझे इतना ही पता है.

 

जुनैद  ज़िन्दगी सुईं की नोक सी ही तो है, देखो चुभती ही रही, नासूर बनाती ही रही मगर तिल भर भी क्या कभी हिली. ये दो बंजारों की टोली है, बस मिलना बिछड़ना भर है जीवन, तो क्या हुआ जो हम न मिले?

 

नहीं सिमी, हमारा मिलन शरीरों का नहीं है, तुम्हें पता है, जिस्म तो कब का ख़त्म हो चुका है तुम जानती हो न

 

हाँ जुनैद  जानती हूँ, मगर दुनिया नहीं जानती ये भी पता है न तुम्हें?

वो हमें हमेशा उसी नज़र से देखेंगे, उन्हें नहीं दिखेगी हमारी पवित्रता, उनके चश्मों पर सिर्फ वासना का पानी चढ़ा है तो कैसे संभव है वासना के चश्मे से गंगा की पवित्रता आंकना...नहीं जुनैद, बस अब नहीं बची मुझमे हिम्मत...बहुत घुटन, बेबसी, बेजारी झेल चुकी हूँ और कुछ झेलने को कहीं मुझमें मेरा होना भी तो जरूरी है न और देखो मैं कहाँ हूँ? अब तो मिटटी में भी दरारें दिखने लगी हैं, कैसे पाटोगे?

 

तुम चिंता मत करो सिमी, बस एक बार इस ओर आ जाओ, सारे बंधन तोड़कर, सिर्फ मेरी होकर.

 

क्या अब तुम्हारी नहीं हूँ?

 

तुम तो सदा से मेरी ही रही हो. ये तो बीच में दुनिया आ गयी वर्ना तुम मुझसे कभी दूर हुई ही नहीं.

 

तो फिर आज ये क्यों कहा सिर्फ मेरी होकर?

 

इसलिए, इस बार दुनिया, उसके रिवाज़, उसकी बेड़ियाँ सब तोड़कर आ जाओ, कुछ साँसें मुझे भी जीने की दे जाओ.

 

उम्र के इस पड़ाव पर आकर क्या करुँगी, रुस्वाइयां घेर लेंगी, बदनामी डंसने लगेगी, फिर हमारा प्रेम बदनाम हो जायेगा जुनैद ... दो बच्चों की माँ होकर ये कदम उठा लिया?

 

नहीं सिमी, सब जानते हैं तुम्हारा सच, मेरा सच, हमारा सच. ये तो बीच में अमावस ने कुछ साल हमें दूर रखा वरना चांदनी में तो हमें ही भीगना था.

 

प्रेम रुसवाई का कारण कभी नहीं बनता जुनैद  

 

हाँ सिमी, नहीं बनता, तभी तो क्या कभी बना रुसवाई का कारण मेरा प्रेम? प्रेम के भवनों पर तो हमेशा ही ज़माने की कडकडाती बिजलियाँ गिरी हैं और हम पर भी गिरी मगर अब, अब कोई लक्ष्मण रेखा नहीं है जिसे तुम लांघ न सको जब रुसवाइयों ने खुद तुम्हें उम्र कैद सुनाई है फिर कहाँ जाओगी अब?

 

मैं और मेरा इंतज़ार आज भी तुम्हारे घर की चौखट पर सजदा कर रहे हैं, केवल तुम्हारे बाहर निकलने भर की देर है...कर दो अब अपना भी तर्पण, झूठे बेबुनियाद रिश्तों के साथ. इनके लिए तुम केवल एक मोहरा भर ही रहीं. प्रयोग किया और फेंक दिया. क्या औचित्य ऐसे रिश्तों को ढ़ोकर जिनके लिए तुम्हारा अस्तित्व ही नहीं है, जिनके लिए तुम हर रुसवाई, बेवफाई को सह गयीं उन्हीं की नज़रों में तुम्हारे त्याग बलिदान की कोई अहमियत नहीं. किसके लिए खुद को फ़ना कर रही हो? वहाँ कौन है जो तुम्हारी मिटटी पर भी आंसू बहाए?

 

जब जानते हो सब तो ये भी जानते हो न, मिटटी में मिलने का समय आ गया है मेरा.

 

तभी कह रहा हूँ कम से कम सुकून से तो मिटटी नसीब हो तुम्हें. आ जाओ इस ओर, यहाँ भी सूरज निकलता है, सुबह होती है, पंछी चह्चहाते हैं, यहाँ भी आसमान नीला है और धरती धानी. बस नहीं है तो तुम्हारी पायलों की रुनझुन जिसके सदके में उम्र गुजारी है मैंने. आज जाओ न इस बार कभी न जाने के लिए. मैं, मेरी आस, मेरी रूह इक अरसे से बेचैन हैं तुम्हारी कसम की मर्यादा में बंधी. न न न, गिला नहीं है कोई, बस अब तुम्हारा ये हाल नहीं देखा जाता.

 

क्या हुआ, जाना तो सबको है ही एक दिन. अब जाने दो मुझे सुकून से. जब ज़िन्दगी गुजार ली बिना करवट बदले तो अब कैसे पीठ पर इलज़ाम लूं. दामन तो वैसे ही राख हो चुका है बस उस राख को अब गंगा में प्रवाहित होने दो कहीं ऐसा न हो राख भी रुसवा हो जाए.

 

नहीं सिमी, बस बहुत हुआ. आज यदि तुम नहीं मानी तो मुझे तोडनी होगी अपनी कसम और हाथ पकड़ कर ले आऊँगा इस बार इस ओर. वहाँ कौन है तेरा जो तुझे आवाज़ देगा, वहाँ किसे है तेरी जरूरत, अवांछित है तू फिर क्या फर्क पड़ता है कहाँ गयी और क्या हुआ तेरा... तो क्या ये आखिरी लम्हा भी नहीं दोगी मुझे, डाल दो ये भीख मेरी झोली में सिमी, शायद जिंदा हो जाऊं कुछ पलों के लिए वर्ना तो अब तक मेरी लाश को ही देखा है तुमने.

 

क्या होगा इससे जुनैद? जब उम्र गुजार दी तो कुछ पल और सही.

 

सिमी, तुमने कहा था जिस दिन मुक्त हो जाऊंगी बेड़ियों से, रिवाजों से तुम्हारी ही चौखट पर दस्तक दूँगी और मैंने उस दिन से पलकें नहीं झपकी हैं. कर दो न मेरे इंतज़ार को मुकम्मल, कहीं ऐसा न हो अगली सांस आने से इनकार कर दे और मैं अधूरी हसरत लिए कूच कर जाऊं.

 

नहीं, नहीं, ऐसा मत कहो जुनैद, अब तो ये भी नहीं कह सकती तुम्हें मेरी उम्र लग जाए.

 

किसके लिए जीयूं अब सिमी? जीने का कौन सा बहाना बचा है? तुम भी अपनी जिद पर अड़ी हो तो आज मैं भी अपनी जिद पर अड़ गया हूँ या तो तुम आ जाओ इस ओर, नहीं तो चलूँगा तुम संग, जहाँ तुम जाओगी, तुम्हारी छाया बनकर, तुम्हारा विश्वास बनकर, तुम्हारी उम्मीद बनकर.

 

बहुत जिद्दी हो गए हो जुनैद. इतने वक्त से किसी ने कान नहीं मरोड़े न तुम्हारे. लेकिन मैं थक चुकी हूँ जुनैद, सोना चाहती हूँ. मुझे अपनी गोद में सुला दोगे न. दे दोगे न मुझे एक टुकड़ा चाँद का जो सिर्फ मेरे हिस्से का है. आ रही है तुम्हारी सिमी तुम्हारी गोद में जुनैद. इस ज़माने के हर बंधन को तोड़कर. वैसे भी बंधन बचे कहाँ हैं? सभी तो किनारा कर गए. अब किसी के लिए मैं जिंदा हूँ भी या नहीं, किसी को फर्क नहीं पड़ता. कल मैं लापता भी हो जाऊं तो कोई पता करने नहीं आएगा. जो बंधन है मेरे मन का ही है शायद. तुम तो जानते ही हो न, बेटे को स्टेट्स गए अट्ठारह साल हो गए. पहले तो कुछ साल हाल चाल लेता भी रहा मगर अब तो पिछले पांच साल से कोई खैर खबर नहीं लेता. जानता है न, हाल पूछ लिया और माँ ने कहा, सेहत खराब है तो क्या जवाब देगा. और बेटी वो भी ऑस्ट्रेलिया में बसी है अपने परिवार के साथ. उससे भी कहाँ बात होती है. साल में एक आध फोन भर आ जाये तो गनीमत. सबने भुला दिया मुझे जुनैद, मगर जाने तुम किस मिटटी के बने हो, ज़िन्दगी गुजार दी एक इंतज़ार में. मेरा तुम्हारा आखिर रिश्ता ही क्या था?

 

बस तुम्हारा और मेरा ही तो रिश्ता था सिमी. जहाँ एक दूसरे से हमने कुछ नहीं चाहा. बचपन के रिश्ते जड़ों के रिश्ते होते हैं. तो क्या हुआ धर्म के बोझ तले दब गए लेकिन कुचले मसले नहीं गए. हम दोनों ने ही जिंदा रखी अपनी मोहब्बत अपने अपने सीने में, तभी तो जड़ें मज़बूत हैं और जानती हो सिमी, जो वृक्ष जड़ पकड़ लेते हैं किसी आंधी तूफ़ान में नहीं गिरते. सब सह लेते हैं. बस ऐसा ही है हमारा रिश्ता. एक दूजे के साथ भी हैं और एक दूजे के बिन भी. अब देखो न तुम्हारा पति रहा. न और कोई पास है. अब तो दे दो मुकाम मेरे इंतज़ार को. अब कौन सी जंजीर जकड़े है तुम्हें? इतने पहाड़ से घर में अकेली रहती हो. कुछ हो जाए तो किसी को पता भी न चले तुम जिंदा भी हो या नहीं. ऊपर से कोई देखभाल को नहीं.

 

हाँ, जुनैद, आज ऐसा लगता है जैसे एक निर्वासित जीवन जी रही हूँ. जैसे मिली हो उम्रकैद. जहाँ कोई नहीं जिससे दो घडी बतिया लूँ, सिवाय तुम्हारे. तुम हो न, तो यही लगता है, बची है इक आस, इक उम्मीद. ‘कोई है’ का अहसास उम्मीद के सिरहाने बैठा थपकी देता रहता है.

 

तो फिर आओ सिमी, आ जाओ इस ओर...वक्त के बेरहम नदियाँ, पर्वत, खाइयां सब हमारी ज़िन्दगी से दूर हो चुके हैं. अब तुम हो, मैं हूँ और हमारा पवित्र प्रेम है. जानती हो न प्रेम पवित्र कब होता है? जब वो विरह की आंच पर तपता है और आज हम अपने पवित्र प्रेम को मुकाम दें.

 

हाँ, जानती हूँ...और जानते हो...वो प्रेम तुमने किया है.

 

तो फिर देर किस बात की? कब आ रही हो?

 

मैं तो कब की आ चुकी हूँ जुनैद. ज़रा मुड़कर देखो. और दोनों ने फिर मोबाइल को एक तरफ रख दिया.

 

आह! सिमी....आज मेरा जीना सार्थक हो गया. आज जैसे मुझे मेरा हिस्सा मिल गया, आज जैसे मैं पूरी ज़िन्दगी जी गया. आओ, बैठो, ज़रा कुछ देर निहार लूं अपने चाँद को, जो आज मुझे पूरा मिला है. इससे पहले तो सिर्फ और सिर्फ एक दीवार थी जिसके उस तरफ तुम और इस तरफ मैं. हमेशा अधूरी हसरतों का जिंदा ताजमहल बन गुजारते रहे जीवन...

 

हाँ, जुनैद , बहुत थक गयी हूँ मैं. बस अब और नहीं. यूँ लग रहा है जैसे अब इस रात की कोई सुबह न हो. बस तुम्हारी गोद में सर रखकर एक भरपूर नींद ले लूँ.

 

आओ मेरी गोद में रखो सिर सिमी, मैं सहला दूं, भुला सको तुम उम्र भर का जेहनी सितम. पा सको कुछ पल का सुकून तो शायद मुझे भी सुकून मिल सके. मैं भी खुद को तसल्ली दे सकूँ, कुछ काम आ सका तुम्हारे...ये रात तारों की छाँव तले छत पर अपने-अपने चाँद को निहारते हुए आओ बिताएं...मेरी थपकियाँ तुम्हें लोरी सुनाएँ और तुम्हारी रूह को करार आ जाए...और थपकी देते हुए जुनैद की बांह एक ओर को लुढ़क गयी और सिमी की निगाह में आखिरी हसरत सी जुनैद की तस्वीर हमेशा के लिए ठहर गयी.

 

इस बेदर्द दुनिया से दूर, जहाँ था उनका आस्मां उनके इंतज़ार में, लेने को अपने हिस्से का एक टुकड़ा चाँद का, पंछी उड़ान भर चुके थे...




 

कहानी - प्रतिष्ठित 'पुरवाई' पत्रिका में कहानी "एक टुकड़ा चाँद" का प्रकाशित हुई है।

लिंक : https://www.thepurvai.com/story-by-vandana-gupta-2/?fbclid=IwAR1_KFNMfms7Ga5ItLaLZWir9Mfpu4mosDnuiLgj_1YNgjhpG5E5THtoOH4


१० सितम्बर २०२३ के नवभारत में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के सभी संस्करणों में कहानी 'एक टुकड़ा चाँद का' प्रकाशित हुई है।







 


शनिवार, 21 मई 2022

तुलसी शालिग्राम संयोग .....एक प्रश्नचिन्ह

1
जार जार है अस्मिता मेरी आज भी
व्यथित हूँ , उद्वेलित हूँ , मर्मान्तक आहत हूँ
करती हूँ जब भी आकलन
पाती हूँ खुद को ठगा हुआ

मेरा क्या दोष था
आज तक न कहीं आकलन हुआ
तप शक्ति से वरदान पा भविष्य सुरक्षित किया
तो क्या बुरा किया
हर स्त्री का यही सपना होता है
जीवनसाथी का संग जन्म जन्म चाहिए होता है

अपनी तपश्चर्या से आप्लावित हो
जब गृहस्थ में प्रवेश हुआ
अपने समय के शक्तिशाली वीर से मेरा विवाह हुआ
मेरी शक्ति जान वो और मदमस्त हुआ
‘अब मैं नहीं मर सकता’ इसका उसे भ्रम हुआ
तो बताओ जरा
इसमें मेरा क्या दोष हुआ

2
तुम्हें कृष्ण कहूं या विष्णु
दोनों रूप में तुम ही तो समाये हो
इसलिए संबोधन मैं तो तुम्हें कृष्ण का ही दूँगी
और तुम्ही से प्रश्न करूंगी
क्योंकि मूल में तो तुम ही हो सृष्टि के आधार 
फिर कैसे तुमसे तुम्हारा कोई रूप भिन्न हो सकता है 

जाने कृष्ण तुमने कहा या समाज के ठेकेदारों ने 
तुम्हें ये वीभत्स रूप दिया
लेकिन एक कटघरा जरूर बना 
और उसमे तुम्हें खड़ा किया 
जानते हो क्यों 
क्योंकि तुम्हारे नाम पर ही तो दोहन हुआ 

हाँ अबला थी या सबला 
कभी आकलन नहीं कर सके तुम 
जबकि कितनी सबल थी
जिसे तुम भी न डिगा सके 
तब तुमने धोखे का मार्ग अपनाया 
और करके शीलहरण  
कौन सा ऐसा मार्गदर्शक कार्य किया 
जिससे समाज सुसंस्कृत हुआ 
कभी विचारा इस पर ?

बेशक शापित हुए 
दंड भी भोगा 
और मुझे महिमामंडित भी किया 
बिना मेरे खुद का पूजन न स्वीकार कर 
कौन सा अहसान किया 
ये तो तुमने सिर्फ खुद को अपराधबोध से मुक्त करने को स्वांग धरा 
तुलसी और शालिग्राम का रिश्ता बना लिया 
मगर बताना ज़रा 
कैसे तुम्हारा कृत्य उचित हुआ ?

3
मांग लेते मेरा बलिदान सहर्ष दे देती
मानवता के कल्याण हेतु
खुद को समर्पित कर देती
ऋषि दधिची सम
मैं भी अपना उत्सर्ग कर देती
तो आज मैं भी गौरान्वित होती
अपने होने का कुछ मोल समझ लेती
मगर तुमने तो छल प्रपंच का मार्ग अपनाया
धोखे से मेरा सतीत्व भंग किया
भला इसमें कौन सा नया इतिहास तुमने रचा
मगर तुम्हें तो सदा धोखा छल प्रपंच ही भाया
ये कौन सा नया चलन तुमने चलाया
हाथ काटने वाले का हाथ काट गिराया
उन्मत्त मदमस्त दंभ से ग्रस्त हो
अत्याचार यौनाचार गर जालंधर करता था
तो उसके कृत्य की सजा मैंने क्यों पायी
क्यों मातृतुल्य पार्वती पर कुदृष्टि रखने वाले की पत्नी का
शीलभंग करने की नयी प्रणाली तुमने चलायी

अब शीलभंग करने को जरूरी नहीं किसी भी स्त्री का
तप की शक्ति से आप्लावित हो किसी जालंधर सम योद्धा की पत्नी होना  
बस जरूरी है उसका स्त्री होना भर
शीलभंग का अधिकार स्वयमेव पा लिया है पुरुष ने

4
ये कैसा न्याय था तुम्हारा
जो अन्याय बन पीढ़ियों को रौंद रहा है
तुम दोषमुक्त नहीं हो सकते कृष्ण
बेशक तुमने मुझे पूज्य बना
खुद को अपराधबोध से मुक्त किया
फिर भी मेरा पदार्पण न
किसी घर के अन्दर हुआ

आज भी देहरी तक ही है प्रवेश मेरा
अन्दर आना वर्जित है
तुम्हारा ये दोगला आचरण
न मुझे कृतार्थ कर पाया
शोषित परित्यक्ता सी मैं
आज भी सिर्फ देहरी की शोभा बनती हूँ
एक शापित जीवन जीती हूँ

5
कृष्ण तुम्हारी बिछायी जलकुम्भियों में 
आज हर स्त्री जल रही है , डर रही है , लड़ रही है 
मगर बाहर नहीं निकल पा रही 
हर डगर , हर मोड़ पर तुम्हारा सा वेश धरे खलनायक खड़े हैं 
उसकी अस्मिता से खेलने को 
उसका शीलहरण करने को 
और जानते हो 
अब तुम्हारी तरह महिमामंडित नहीं की जाती वो 
बल्कि पेड़ों पर टांग दी जाती है 
या फिर अंतड़ियाँ बाहर खींच मार दी जाती है 

सुनो 
कितना और दोष लोगे खुद पर 
क्या शर्मसार नहीं होते होंगे ये सोच 
तुम्हारे बोये काँटों की फसल कैसी लहलहा रही है 
कि घर बाहर हर जगह चुभ कर 
न केवल शरीर आत्मा भी रक्तरंजित हुए जा रही है 
और हल के नाम पर 
कोई तस्वीर न नज़र आ रही है 
आज शोषित का ही जीवन दूभर हुआ है
अनाचारी व्यभिचारी महिमामंडित हुआ है
क्या खुश हो इतनी स्त्रियों के शोषण का दोष सिर पर लेकर ?
क्या चैन से जी पाते होंगे तुम ?

6
एक सत्य से और अवगत करा दूं तुम्हें
बेशक अपने साथ पुजवाया तुमने
मगर तुम आये तो इंसान बनकर ही थे न
तो कैसे संभव था इंसानों का तुम्हारे
पदचिन्ह पर न चलना
नहीं मानते वो तुम्हें भगवान्
नहीं हुआ मेरा उद्धार
क्योंकि आज भी
शोषित हूँ मैं
ये जो सम्पूर्ण स्त्री जाति देखते हो न ......प्रतीक है मेरी
और तुम प्रतीक हो ......समस्त पुरुष वर्ग के
उनके लिए भगवान् नहीं हो ............



शीलहरण कर कौन सी देवस्तुति तुल्य परंपरा के वाहक बने ........बताना तो ज़रा !!!