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रविवार, 29 अप्रैल 2012

कृष्ण लीला .........भाग 46




कालिय के सौ सिर थे
जिसे भी ना वो झुकाता था
उसी को प्रभु अपने पैरों से कुचलते थे
उसके मुख और सिर से
खून निकलता था
जो कान्हा के चरणों पर
लहू की बूंदें पडती थीं
ऐसा लगता मानो
रक्त पुष्पों से पूजा की जा रही हो
प्रभु के इस अद्भुत
ताण्डव रूप नृत्य से
जालिम के फ़णरूप छत्ते
छिन्न भिन्न जब हो गये
हर अंग चूर चूर हो गया
मूँह से खून की उल्टी होने लगी
तब उसे जगतपति प्रभु की स्मृति हुई
वह मन ही मन प्रभु की शरण गया
अपने पति की दशा देख नागपत्नी
बच्चों सहित प्रभु के चरणों मे गिर गयी
हाथ जोड प्रभु को प्रणाम किया
और कालिय को छोडने की
विनती करने लगी
इधर कालियनाग को
बैकुण्ठनाथ के दर्शन और स्पर्श से
ज्ञान उत्पन्न हुआ
और ब्रह्मा की बात का स्मरण हुआ
ब्रज गोकुल मे कृष्णावतार होगा
सो ये वो ही जान पडते हैं
दूसरे की क्या सामर्थ्य जो
मेरे विष से बच जाये
ये सोच कालिया नाग
अपने कृत्य पर लज्जित हुआ
मैने आपको ना पहिचाना
मुझ अधम दीन को
अब अपनी शरण मे लीजिये
इतना कह लज्जावश स्तुति ना कर सका
जब प्रभु ने देखा
कालिय का अभिमान है छूटा
तब अपने चतुर्भुज रूप का है दर्शन दिया
ये देख कालिय नाग की पत्नियाँ
विलाप करने लगीं
और प्रभु से निवेदन करने लगीं
प्रभु आप समस्त जगत के नियन्ता हैं
पापियों को मारने और
अधर्म का नाश करने के लिये
आपने निज इच्छा से है अवतार लिया
जो कोई तुम्हारी भक्ति करता
या शत्रुता से तुम्हारा ध्यान धरता
वो भी भव से है पार उतरता
जैसे अमृत को जान कर पिया जाये
या अनजाने मे
अमर ही बनाता है
वैसे ही तुम्हारा ध्यान
जीव का है कल्याण करता
जिन चरणों का ध्यान
जप –तप ,यज्ञ,दान से भी नही मिलता
उनका दर्शन सहज मे पाया है
आज हमारा भाग्य उदय हो आया है
आपने अभिमानी का दभ चूर किया है
पर ना जाने इसने ऐसा कौन सा
पुण्य किया है
जिन चरणों की सेवा को
लक्ष्मी भी तरसती है
आज उन्ही चरणों की रज
इसे मिली है
इसके समान बडभाती कौन होगा
सर्पयोनि पाकर भी
प्रभु दर्श किया
जिस चरण रज की महिमा
नारद , सनकादिक ,इन्द्रादि गाते हैं
और नित्य उसी मे वास करते हैं
उस समान तीनो लोक की
सम्पदा भी तुच्छ समझते हैं
आज इसने वो पारस पाया है
पर इसके दोष माफ़ करो
प्रभु इसको अभयदान दे, कृतार्थ करो
हम अबला शरण तिहारी हैं
स्तुति सुन कान्हा क्षमा कर
मस्तक से कूद पडे
तब कालिय को कुछ होश आया
और कर जोड विनय करने लगा
मेरा अपराध क्षमा करो
मै तामसी वृत्ति प्राणी हूँ
कैसे तुम्हारा भेद पाता
जब देवता ॠषि मुनि पार ना पाते हैं
मै मूर्ख कैसे तुम्हे पहचानता
आपने ही जातिगत मेरा स्वभाव बनाया है
जैसे गौ घास खाने पर दूध देती है
वैसे ही मै दूध पीने पर
ज़हर उगलता हूँ
ये मेरा स्वभाव आपका ही बनाया है
और स्वभाववश अनजाने ही
मैने आप पर फ़ण चलाया है
पर मेरा अपराध क्षमा कीजिये
मुझे अब अपनी शरण मे लीजिये
जिन चरणों को लक्ष्मी ह्रदय मे धारण करती हैं
देवता ध्यान लगाते हैं
गंगा जिनकी धोवन है
वो चरण कमल आज
मेरे सिर पर विराजे हैं
मेरे जन्मो के सब पाप ताप मिट गये हैं
जो शेषनाग इतनी बडाई पाता है
जब आप उस पर शयन करते हैं
पर मेरे शीश पर आपने जो नृत्य किया
अब अपने बराबर पुण्यभागी
मै किसी को ना समझता हूँ
अब मेरा सब डर छूट गया
स्तुति सुन श्यामसुन्दर ने कहा
अब तुम कालीदह छोड
रमणक द्वीप मे वास करो
यहाँ मै जलक्रीडा करूँगा
महाप्रलय तक तेरा नाम स्थिर रहेगा
जो तेरी मेरी कथा सुनेगा
उसे ना साँप काटे का भय रहेगा
अब जल्दी से एक करोड कमल के फूल लाकर दो
डरते काँपते कालिय नाग ने निवेदन किया
प्रभु फूल तो अभी पहुँचा देता हूँ
पर रमणक द्वीप मे जाने से डरता हूँ
वहाँ गरुड जी मुझे खा जायेंगे
उन्हीके डर से तो यहाँ मै आया हूँ
इतना सुन प्रभु बोल पडे
अब तुम निर्भय रहो
गरुड ना तुम्हारा कुछ बिगाडेगा
मेरे चरणचिन्ह देख
तुम्हारे मस्तक पर
प्रणाम कर चला जायेगा
इतना कह प्रभु ने उसे अभयदान दिया
तब कालिये ने हर्ष सहित
पत्नि सहित विधिपूर्वक
प्रभु का पूजन किया
रत्न मणियाँ भेंट चढाईं
तीन करोड कमल के फूल
अपने ऊपर लाद लिये
इतना सुन परिक्षित ने पूछा
कालिय नाग ने कौन सा
ऐसा अपराध किया
जो रमणक द्वीप छोड
गरुड भय से यमुना मे वास किया
तब शुकदेव जी बतलाने लगे



क्रमशः .........

बुधवार, 25 अप्रैल 2012

कृष्ण लीला ........भाग 45



टकटकी लगाये सब देख रहे हैं
कब आवेंगे मनमोहन सोच रहे हैं
इधर कान्हा नटवर रूप धरे
कालीदह में पहुंचे हैं
मोहिनी मूरत की सुन्दरता देख
नागिन मोहित हो कहने लगीं
हे स्वरूपवान कोमल तन 
तुम यहाँ क्यों आये हो
अभी तो कालियनाग सोया है
जल्दी यहाँ से तुम जाओ
उसके विष से जल जाओगे
कोमल तन तुम्हारा है
तुम पर तरस मुझे आता है
इतना सुन केशव मूर्ति बोल पड़े
तुम अपने पति को जगा दो
मैं एक करोड़ कमलफूल लेने आया हूँ 
उससे क्या बात करोगे
उसकी विषभरी फुंफकार से ही जल मरोगे
तुम्हारा सुन्दर रूप देख 
दया मुझे आती है 
बालक जान तुझे कहती हूँ
क्यों अपने माता पिता को दुःख देते हो
उस कंस का नाश हो जाये
जिसने तुम्हें यहाँ भेजा है
मुझे तुम्हारी अवस्था पर
बहुत दुःख होता है
नागिन प्रेमभरी ये बोल पड़ी
तब कान्हा ने उपदेश दिया
सोये को मारना ना धर्म होता है
इसलिए जगाने को कहता हूँ
सुन नागिन बोल पड़ी
क्यों छोटे मुँह बड़ी बात करता है
ये कालीनाग गरुड़ तक से लड़ा है
लगता है तेरी मृत्यु 
तुझे यहाँ लायी है
जो मेरी बात तुझे 
समझ ना आई है
तुझमे सामर्थ्य हो तो 
स्वयं जगा ले
इतना सुन वृन्दावन बिहारी ने
नाग की पूँछ पर पाँव धरा 
गरुड़ के डर से वैसे ही
चौंक कर उठ खड़ा हुआ
मगर सामने एक बालक को देख
उसे अचरज हुआ
और बोल उठा
मेरे विष की गर्मी तो
अक्षयवट ना सह पाता है
कोसों तक के पशु पक्षी 
भस्म हो जाते हैं 
फिर ये कैसा बालक है
जो अब तक मेरे सामने खड़ा है
और मुझे नींद से जगाने का 
जिसने दुस्साहस किया है
इतना सोच कालियनाग 
प्रभु की तरफ दौड़ पड़ा 
और अपने सौ फनों से 
उनको काटने लगा



उसके विष से यमुना जल
अदहन सम खौलता है
पर वैकुन्ठनाथ पर ना
कोई असर होता था
जब काली ने देखा
मेरे विष का ना
इस पर असर हुआ
जरूर कोई मंत्र जानता है
तभी ना इसको
इतना भीषण विष
व्यापता है
 ये सोच काली ने
मोहन को अपने
शरीर से कसकर
लपेट लिया
ये देख नागिन
व्याकुल हुई
इतना सुन्दर बालक
बेमौत मारा जायेगा
इसका बचना कठिन
दिखाई देता है
काली मद मे चूर हो बोला
मै सर्पों का राजा हूँ
यहाँ से बचकर ना
तुम जाने पाओगे
इतना सुन मनमोहन ने
अपना शरीर बढाया
जिसके कारण नाग का
अंग अंग टूट गया
और उसने घबराकर
मनमोहन को छोड दिया
फिर आग बबूला हो
फ़ण ऊँचा कर
फ़ुंफ़कार भरी
नथुनों से उसकी विष की
फ़ुहारें निकल रहीँ थीं
आँखें लाल भट्टी सी तप रही थीँ
मूँह से आग की लपटें निकल रही थीं
श्री कृष्ण उसके साथ खेलते हुये
पैंतरे बदलने लगे
नाग भी उन पर चोट करने को
पैंतरे बदलता रहा
जब पैंतरे बदलते बदलते
नाग का बल क्षीण हुआ
तब कान्हा ने उसके
बडे बडे सिरों को
अपने पैर से दबा दिया
और उछल कर उस पर सवार हुये
कालिये के मस्तक पर
लाल लाल मणियाँ चमकती थीं
जिसकी आभा से कान्हा के
तलुवों की आभा और बढती थी
कान्हा उस पर नृत्य करने लगे
ये देख देवता समझ गये
प्रभु नृत्य करना चाहते हैं
इसलिये ढोल नगाडे मृदंग
पुष्प लेकर आ गये
अद्भुत  नृत्य प्रभु का
सबको लुभाता है
शिव समाधि बिसराते हैं
और प्रभु के दिव्य नृत्य को देखने
दौडे चले आते हैं
और मुदित मन नेत्रों को पावन करते हैं
उस दृश्य के आत्मिक आनन्द मे
डूबते उतराते जाते हैं
पर प्रभु के बेजोड नृत्य के आगे
स्वंय के नृत्य को भी तुच्छ पाते हैं
आज प्रभु का अद्भुत श्रृंगार हुआ है
हर मन प्रभु रंग मे रंगा हुआ है
किसी को ने अपना भान रहा है
सिर्फ़ विश्वरूप ही विश्वरूप दिख रहा है


क्रमशः ...........

बुधवार, 18 अप्रैल 2012

कृष्ण लीला ........भाग 44



उस दिन कान्हा गौ चराने नहीं गए
बस गोप वृन्दों संग यमुना तट पर खेलते रहे
नंदबाबा सुन चिंता में पड़ गए
कालीदह से फूल लाना कैसे हो संभव
इस उलझन में उलझ गए
वृन्दावन वासी भी चिंतित हो गए
अपने प्राणों का ना किसी को मोह था
बस कंस श्याम बलराम को कैद करेगा
जान सबको कष्ट हुआ
नन्द यशोदा बैठे रोते थे
उन्हें देख कान्हा बोल पड़े
मैया काहे रोती हो
बाबा क्यूँ व्याकुल होते हो
इतना सुन नंदबाबा ने 
सारा हाल सुनाया है
कंस का सारा सन्देश बताया है
हर बार तो कुलदेवता की कृपा से
तुम बच जाते थे
अब क्या होगा 
सोच- सोच गहराते हैं
ये सुन कान्हा बोले
अब भी वो ही देवता रक्षा करेंगे
जिसने पहले बचाया है
इतना कह सबको ढांढस बंधाया है

श्यामसुंदर यमुना किनारे
ग्वालबालों संग गेंद खेलने लगे
और जानबूझकर श्रीदामा की गेंद 
कालीदह में फेंक दी 
जिसे देख श्रीदामा मचल गया
मुझे वो ही गेंद लाकर दो 
कह अकड़ गया
कन्हैया बोले दूसरी ला दूँगा
पर श्रीदामा पर तो 
अपनी गेंद लेने का ही भूत चढ़ा था
श्रीदामा अपनी हठ नहीं छोड़ता था
सबने कितना जोर लगाया
पर श्रीदामा को अडिग पाया 
सौ - सौ बातें सुनाता है
होंगे तुम बड़े अपने घर के
खेल में तो सभी बराबर होते हैं
बिना गेंद के हमारी तुम्हारी नहीं निभेगी
तुमने राक्षसों को मारा तो
कौन सा बड़ा काम किया
जब कंस को कालीदह के 
फूल पहुँचाओ तो जानूंगा
इतना सुन कान्हा को 
गुस्सा चढ़ गया
वो कमर में फेंटा बांध वृक्ष पर चढ़ गए
ये देख गोपवृंद तालियाँ बजने लगे
वो समझे कान्हा श्रीदामा से डर गए
उधर रोता - रोता श्रीदामा बोला
मैं तुम्हारी शिकायत मैया से करता हूँ
सुन ब्रजनाथ ने ललकार कहा
मैं तेरी गेंद अभी लाता हूँ
कह श्यामसुंदर कालीदह में कूद पड़े
 जब कान्हा ना ऊपर आये
ये देख ग्वालबाल श्रीदामा को
गालियाँ देने लगे 
ग्वालबाल हाय - हाय चिल्लाने लगे
दो बालक बृज की तरफ दौड़ पड़े

उधर अपशकुन भी होने लगे
ये देख मैया बाबा डरने लगे
हमारा प्रानप्यारा  कुशल रहे
यही कामना करने लगे
तभी गोपों ने सारा वृतांत जा सुनाया
जिसे सुन मैया को चक्कर आया
व्याकुल होकर गिर पड़ी
जिसने सुना सभी
छाती पीटते यमुना की तरफ दौड़ पड़ा 
नन्द यशोदा व्याकुल हो 
यमुना में कूदने को उद्यत हुए 
पर गोप गोपियों ने उन्हें थाम लिया 
मैया बौरायी जाती है 
रोते - रोते व्याकुल हो उठती है
बेटा कहाँ विलम्ब लगाते हो
रोटी - माखन खाने क्यों नहीं आते हो
साँवली सूरत मोहिनी मूरत की
तोतली वाणी कैसे अब सुन पाऊंगी 
तरह तरह से मैया विलाप करती है
ब्रजवासी कालीदह के किनारे खड़े रोते हैं
तन की सुधि सबने बिसरायी है
बस मोहन से ही प्रीत लगायी है
ब्रजबाला छाती पीटकर रोती है
प्यारे कहाँ छुप गए
सारा ब्रज सूना हुआ है
तुम बिन माखन कौन चुराएगा
हम उलाहना देने 
यशोदा निकट कैसे जाएँगी
तुम्हारे विरह में प्राण 
गले में अटके हैं
आकर प्राण बचा जाओ
मोहन अब तो आ जाओ
नन्द  बाबा विलाप करते हैं
तुझ बिन जगत अँधियारा हुआ
मुझे छोड़ तू कहाँ चला गया
जैसे राक्षसों को मार सुख दिया
वैसे ही अब भी आ जाओ
अपनी मोहिनी मूरत दिखला जाओ वरना
प्राण नहीं रुकते हैं
रोते - रोते यशोदा अचेत हुए जाती है
बलराम जी पानी का छींटा लगाते हैं
जैसे ही होश में आई है
मैया फिर बिलखाई है
बलराम ,बेटा ,कान्हा तुझ बिन 
ना अकेला रहता था
तूने कहाँ उसे छोड़ दिया
सुबह से ना कुछ खाया है
प्राण प्यारे  को बुला लाओ 
इतना सुन बलराम जी
 ढाँढस बंधाते हैं 
क्यों इतना सोच तुम करती हो
कमल फ़ूल लाने कालीदह में गए हैं
उसका कुछ ना बिगड़ेगा
देखना मैया जैसे पूतना आदि
राक्षसों को मारा है
वैसे ही इस बार भी करेगा
बलराम जी की बातों से 
कुछ धैर्य हुआ
और बलराम जी का हाथ 
मैया ने पकड़ लिया


क्रमशः ..............

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012

कृष्ण लीला .........भाग 43




एक दिन बलरामजी घर पर रहे
और कान्हा गोपों संग गौ चराने गए 
वन में चरते चरते गौ छिटक गयीं
ग्वालबाल कान्हा से विलग हो 
गायों को ढूँढने निकले 
और अति व्याकुल हो 
गौओं संग यमुना का जल पीया
होनहार वश ना उन्हें
यमुना के विषैले जल का याद रहा
पीते ही सब प्राणहीन हुए
जब काफी देर तक
ग्वाल बाल नहीं आये
तब उन्हें ढूँढने 
कान्हा निकल पड़े
यमुना तट पर ग्वालों सहित
गौओं को मृत पाया
पर अपनी दिव्य अमृत दृष्टि से
उन्हें जिलाया 
इस तरह जब सब उठ खड़े हुए
जैसे नींद से जगे हों
जब सारा कारण जाना
तब कान्हा से लिपट गए
तुम ही हमारे खिवैया हो
तुमने प्राण बचाए हैं
हम तुम पर जीवन हारे हैं
ब्रज में आकर सबको हाल बताया है 
ये सुन मैया बाबा प्रसन्न हुए
इधर कान्हा ने सोचा
कालिया का यमुना में रहना ठीक नहीं
जो भी जल पीता था
मर जाता था 
उस नाग के विष की ज्वाला से
चार कोस तक जल खौलता रहता था
कोई पशु पक्षी ना 
वहाँ जा पाता था 
कोई धोखे से जाता भी था
तो जीवित ना बच पाता था
इसे यहाँ से हटाना होगा
काली नाग के रहने से
यमुना को भी दोष लगता है
वहाँ पर ना कोई वृक्ष 
घास फूस उगती है
बस एक कदम्ब का वृक्ष ही
वहाँ अविनाशी दिखता था 
ये सुनकर परीक्षित ने पूछा
ऐसा क्या कारण हुआ
जो ना उस वृक्ष का नाश हुआ
सुन शुकदेव जी बताने लगे
किसी युग में गरुड़ जी 
अपने मुख में अमृत ले
उस वृक्ष पर आ बैठे थे
सो एक बूँद वृक्ष पर 
गिर पड़ी थी
इसलिए ही तो वृक्ष हरा रहता है
कालिया का विष ना उसमे
प्रवेश कर सकता था 



जब श्याम सुन्दर ने यमुना को
कालिय नाग से मुक्त करने का निश्चय किया
तब प्रभु प्रेरणा से नारद जी ने
कंस के महल का रुख किया
राजन क्यों उदास बैठे हो ?
नारद जी ने पूछ लिया
हाथ जोड़ कंस ने अपना हाल बयां किया
नन्द के दो बेटा बड़े बलशाली हैं
उन्होंने मेरे कई राक्षस मार डाले हैं
लगता है वो ही मेरे 
प्राण लेने वाले हैं 
तब नारद जी ने इक उपाय बताया
और प्रभु का भी काज बनाया 
तुम नन्द जी से कालीदह से 
कमल पुष्प मंगवा  लेना
जब लेने वो बालक जायेगा
कालीदंश से मर जायेगा
इतना कह नारद जी चले गए 
और कंस ने संदेसा भिजवाया है
एक करोड़ कमल के फूल 
कालीदह से मँगा कर भेजो
अन्यथा घर बार लूटा जायेगा
ब्रज से सबको निकाला जायेगा
तुम्हारे बेटों को बंदी बनाया जायेगा


क्रमशः ...........