कालिय के सौ सिर थे
जिसे भी ना वो झुकाता था
उसी को प्रभु अपने पैरों से कुचलते थे
उसके मुख और सिर से
खून निकलता था
जो कान्हा के चरणों पर
लहू की बूंदें पडती थीं
ऐसा लगता मानो
रक्त पुष्पों से पूजा की जा रही हो
प्रभु के इस अद्भुत
ताण्डव रूप नृत्य से
जालिम के फ़णरूप छत्ते
छिन्न भिन्न जब हो गये
हर अंग चूर चूर हो गया
मूँह से खून की उल्टी होने लगी
तब उसे जगतपति प्रभु की स्मृति हुई
वह मन ही मन प्रभु की शरण गया
अपने पति की दशा देख नागपत्नी
बच्चों सहित प्रभु के चरणों मे गिर गयी
हाथ जोड प्रभु को प्रणाम किया
और कालिय को छोडने की
विनती करने लगी
इधर कालियनाग को
बैकुण्ठनाथ के दर्शन और स्पर्श से
ज्ञान उत्पन्न हुआ
और ब्रह्मा की बात का स्मरण हुआ
ब्रज गोकुल मे कृष्णावतार होगा
सो ये वो ही जान पडते हैं
दूसरे की क्या सामर्थ्य जो
मेरे विष से बच जाये
ये सोच कालिया नाग
अपने कृत्य पर लज्जित हुआ
मैने आपको ना पहिचाना
मुझ अधम दीन को
अब अपनी शरण मे लीजिये
इतना कह लज्जावश स्तुति ना कर सका
जब प्रभु ने देखा
कालिय का अभिमान है छूटा
तब अपने चतुर्भुज रूप का है दर्शन दिया
ये देख कालिय नाग की पत्नियाँ
विलाप करने लगीं
और प्रभु से निवेदन करने लगीं
प्रभु आप समस्त जगत के नियन्ता हैं
पापियों को मारने और
अधर्म का नाश करने के लिये
आपने निज इच्छा से है अवतार लिया
जो कोई तुम्हारी भक्ति करता
या शत्रुता से तुम्हारा ध्यान धरता
वो भी भव से है पार उतरता
जैसे अमृत को जान कर पिया जाये
या अनजाने मे
अमर ही बनाता है
वैसे ही तुम्हारा ध्यान
जीव का है कल्याण करता
जिन चरणों का ध्यान
जप –तप ,यज्ञ,दान से भी नही मिलता
उनका दर्शन सहज मे पाया है
आज हमारा भाग्य उदय हो आया है
आपने अभिमानी का दभ चूर किया है
पर ना जाने इसने ऐसा कौन सा
पुण्य किया है
जिन चरणों की सेवा को
लक्ष्मी भी तरसती है
आज उन्ही चरणों की रज
इसे मिली है
इसके समान बडभाती कौन होगा
सर्पयोनि पाकर भी
प्रभु दर्श किया
जिस चरण रज की महिमा
नारद , सनकादिक ,इन्द्रादि गाते हैं
और नित्य उसी मे वास करते हैं
उस समान तीनो लोक की
सम्पदा भी तुच्छ समझते हैं
आज इसने वो पारस पाया है
पर इसके दोष माफ़ करो
प्रभु इसको अभयदान दे, कृतार्थ करो
हम अबला शरण तिहारी हैं
स्तुति सुन कान्हा क्षमा कर
मस्तक से कूद पडे
तब कालिय को कुछ होश आया
और कर जोड विनय करने लगा
मेरा अपराध क्षमा करो
मै तामसी वृत्ति प्राणी हूँ
कैसे तुम्हारा भेद पाता
जब देवता ॠषि मुनि पार ना पाते हैं
मै मूर्ख कैसे तुम्हे पहचानता
आपने ही जातिगत मेरा स्वभाव बनाया है
जैसे गौ घास खाने पर दूध देती है
वैसे ही मै दूध पीने पर
ज़हर उगलता हूँ
ये मेरा स्वभाव आपका ही बनाया है
और स्वभाववश अनजाने ही
मैने आप पर फ़ण चलाया है
पर मेरा अपराध क्षमा कीजिये
मुझे अब अपनी शरण मे लीजिये
जिन चरणों को लक्ष्मी ह्रदय मे धारण करती हैं
देवता ध्यान लगाते हैं
गंगा जिनकी धोवन है
वो चरण कमल आज
मेरे सिर पर विराजे हैं
मेरे जन्मो के सब पाप ताप मिट गये हैं
जो शेषनाग इतनी बडाई पाता है
जब आप उस पर शयन करते हैं
पर मेरे शीश पर आपने जो नृत्य किया
अब अपने बराबर पुण्यभागी
मै किसी को ना समझता हूँ
अब मेरा सब डर छूट गया
स्तुति सुन श्यामसुन्दर ने कहा
अब तुम कालीदह छोड
रमणक द्वीप मे वास करो
यहाँ मै जलक्रीडा करूँगा
महाप्रलय तक तेरा नाम स्थिर रहेगा
जो तेरी मेरी कथा सुनेगा
उसे ना साँप काटे का भय रहेगा
अब जल्दी से एक करोड कमल के फूल लाकर दो
डरते काँपते कालिय नाग ने निवेदन किया
प्रभु फूल तो अभी पहुँचा देता हूँ
पर रमणक द्वीप मे जाने से डरता हूँ
वहाँ गरुड जी मुझे खा जायेंगे
उन्हीके डर से तो यहाँ मै आया हूँ
इतना सुन प्रभु बोल पडे
अब तुम निर्भय रहो
गरुड ना तुम्हारा कुछ बिगाडेगा
मेरे चरणचिन्ह देख
तुम्हारे मस्तक पर
प्रणाम कर चला जायेगा
इतना कह प्रभु ने उसे अभयदान दिया
तब कालिये ने हर्ष सहित
पत्नि सहित विधिपूर्वक
प्रभु का पूजन किया
रत्न मणियाँ भेंट चढाईं
तीन करोड कमल के फूल
अपने ऊपर लाद लिये
इतना सुन परिक्षित ने पूछा
कालिय नाग ने कौन सा
ऐसा अपराध किया
जो रमणक द्वीप छोड
गरुड भय से यमुना मे वास किया
तब शुकदेव जी बतलाने लगे
क्रमशः .........