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बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

अब इसको कहूँ गज़ल या दिल के उदगार


अब इसको कहूँ गज़ल या दिल के उदगार
कान्हा कान्हा रट रही सांसो की हर तार

मुरली वारो सांवरो बैठो मन के द्वार
मै बैरन बैठी रही करके बंद किवार

श्रद्धा पूजा अर्चना सब भावों के विस्तार
पूर्ण होते एक मे जो मिल जाते सरकार

एक बूँद एक घट एक ही आकार प्रकार
दृष्टि बदलने पर ही व्यापता ये संसार

मधुर मिलन की आस पर जीवन गयो गुज़र
कब आवेंगे श्यामधनी मिटे ना मन की पीर

श्याम रंग की झांई परे श्यामल तन मन होय
मेरी मन की भांवरों मे श्याम श्याम ही होय

शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

मेरा प्रेम स्वार्थी है …


मैने तो सीखा ही नही
मैने तो जाना ही नहीं
क्या होता है प्रेम
मैने तो पहचाना ही नहीं
क्योंकि
मेरा प्रेम तुम्हारा होना माँगता है
तुमसे मिलन माँगता है
तुम्हारा श्रंगार मांगता है
तुमसे व्यवहार माँगता है
मेरा प्रेम भिखारी है
मेरा प्रेम दीनहीन है
मेरा प्रेम बलहीन है
मेरा प्रेम छदम नहीं
मेरा प्रेम सिर्फ़ विरह नही
मेरा प्रेम सिर्फ़ रुदन नही
मेरा प्रेम सिर्फ़ मौन नहीं
मुखरता में भी मौन हुआ जाता है
और मौन मे भी मुखरता होती है
मगर उसके लिये प्रेमी की जरूरत होती है
और तुम सिर्फ़ आभास हो
कहो फिर कैसे सिर्फ़ अपने में जीयूँ तुम्हें
जिसे देखा नहीं , जाना नहीं ,व्यवहार नहीं किया जिससे
कहो कैसे तुम्हारे प्रेम में स्वंय को भुला दूँ
कहो कैसे तुम्हारे प्रेम मेंशब्दहीन, स्पंदनहीन ,भावहीन
सारहीन ,संज्ञाशून्य हो जाऊँ और गंध सी बह जाऊँ
देह से परे होना , देह को भुला देना
दूसरे के लिये जीना
खुद को मिटा देना
अस्तित्वहीन हो जाना
कहाँ जाना मैने
क्योंकि
कोई अस्तित्वबोध तो होता
कोई स्वप्न में तो मिला होता
कोई सलोना मुखडा तो दिखा होता
ये आभासी प्रेम की संज्ञायें और उनका अस्तित्व तब तक शून्य ही है
किसी के लिये खुद को मिटाने के लिये
कम से कम उनका एक बार साक्षात्कार तो जरूरी है ना
इसलिये कहती हूँ
तब तक कम से कम मेरे लिये तो……मेरा प्रेम स्वार्थी है …मोहन!
अगर इसे भी प्रेम की संज्ञा दी जाती है तो
अगर ऐसे भी प्रेम परिभाषित किया जाता है तो?

बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

विरही राधे देख तेरे श्याम बुलाते



विरही राधे
देख तेरे श्याम बुलाते
यूँ ही नहीं वो बंसी बजाते
सबके मनों को हैं लुभाते
चंचल नैना यूँ मटकाते
विहग भी पथ भूल जाते
बस श्याम दरस मे अटके जाते
अपनी सुध भी हैं बिसराते 

ये बंसी बैरन अधरों पर सजाते
मोहन की संगिनी बनाते

देख गोपि्यों के जी जल जाते
देख मोहन भी भाव हैं खाते
तब चन्द्रावली के हत्थे चढ जाते
ग्वाल बाल तब खूब चिढाते
दूध दही माखन खा जाते
बस श्याम ऐसे ही तो मन को लुभाते
तभी तो श्याम तेरे दरस बिन  

विरही गोपियों के ह्रदय ना आधार पाते………



सुन गोपियन की करुण पुकार
मोहन प्रकट कियो निधिवन में
अपना मनमोहिनी रूप मनोहर
देख गोपियाँ हुयी निहाल
गल डाले बाहों के हार
झूठ मूठ के रूठ गयीं
मोहन संग ठिठोली में
अपना स्वरूप भी भूल गयीं
बस यही तो प्रेम की पुकार
जिसे ना अनदेखा कर पाते श्याम सुकुमार
बस यूँ ही वो रास रचाते
सखी तभी तो तुझे भरमाते
कभी दिख दिख जाते
कभी छुप छुप जाते
यही तो श्याम अपने रंग दिखाते
जो जिया को हैं हर्षाते
हर गोपिन के मन को भाते

विरही राधे
देख तेरे श्याम बुलाते…………


शनिवार, 9 फ़रवरी 2013

ओह प्यारे! यूँ मन को मोहना कोई तुमसे सीखे





ओह प्यारे! यूँ मन को मोहना कोई तुमसे सीखे

ये मनमोहक छवि तुम्हारी
देख - देख मैं तो दिल हारी

सांवरिया ! ये मधुर मुस्कान तुम्हारी
जैसे हो कोई तीखी कटारी

कितने सहज, सरल ,
सलोने रूप हैं तिहारे 
इस मधुर रूप रस का पान
करते नैन हमारे 

निश्छल , निर्मल रूप धारे 
कैसे बैठे हो मधुबन में प्यारे 

इस लजीली , रसीली 
बाँकी छवि पर तिहारी
मैं तो खुद को वारूँ प्यारे 

ओ नटखट चितचोर हमारे
कैसे सुन्दर रूप तुम्हारे  
हम तो अपना सब कुछ हारे ………