चालीस पार की औरत
के पास वक्त नज़ाकत नहीं भरता। थोक के भाव बिना मोल भाव के फर्शी सलाम ठोंकता है
।दिन रुपहले सुनहरे नहीं रहते, छा जाती हैं उन पर भी केशों की सफेदी ।सारा काम कर
लो फिर भी वक्त मानो सांस रोके खड़ा हो और कहता हो अभी तो मैंने कदम ही रखा है ,
अभी तो मेरा जन्म ही हुआ है कैसे बिसरा दिया जाऊँ ,अभी तो मेरे पंखों ने परवाज़ भी
नहीं भरी है फिर कैसे सांझ की चौखट पर सज़दा करूँ और बैठ जाती है
चालीसपार की औरत वक्त के किनारों पर हाशिये खींचने , उसकी पेशानी पर एक
इबादत लिखने और ढाल देती है खुद को वक्त के नए सांचे में , गढ़ लेती है खुद के लिए
एक नया खाँचा और करने लगती है खुद को उसमे फिट बिना किसी जोड़ तोड़ के , बिना वक्त
की नब्ज़ को जाने चलने लगती है , बहने लगती है वक्त के साथ बहते रेले में।
उनमें से कुछ आ
जाती है आभासी दुनिया का हिस्सा बनने और गढ़ने लगती है नए शाहकार। फूँक देती
है उम्र भर की जलती - सुलगती तीलियों में प्राण , डूबा देती है खुद को लेखन में ,
लिखने लगती है दर्द के सीने पर वक्त की तहरीरें जिनमे ज़िन्दगी कम मगर पल - पल की
मौत के फूल कढ़े होते हैं। यूँ बना देती है शाहकार जो उम्र सा खर्चीला तो नहीं मगर
गर्वीला जरूर होता है और इसी सफ़र में बनने लगते हैं बहुत से नए नाज़ुक आभासी
रिश्ते , जीने लगती है वो इन रिश्तों को भी।
मिल जाते हैं इन्ही
में कुछ साँसों की तरह दर्द के हमसफ़र और एक कश्ती के सवारों में आत्मीयता का
होना ही उनका सम्बल बन जाता है एक का दर्द दूजे को अर्थ दे जाता है और तंग मोड़ों
से गुजरते हुए भी आभास का आभास बना रहता है जो दर्द की तहरीर पर अपने दर्द के फाहे
रख सुकून की मरहम लगा देता है बस कुछ ऐसा ही आत्मीय रिश्ता बन गया था करुणा और
श्री नवीन का।
श्री नवीन की रचनाये, उसकी कवितायेँ
, उसकी ग़ज़लें , उसके शेर और कहानियाँ सब मानो किसी ने दर्द के तालाब से डुबोकर
निकाले हों और इश्क का जाम घूँट - घूँट पीया हो और ज़ख्मों की दलदल में मानो कोई
तिनका डूबकर जिया हो कुछ ऐसी लेखनी के मालिक थे श्री नवीन। जो पढता उन्ही का
हो जाता , उन्ही के शब्द उसके कानों में घंटियाँ सी बजा रहे हों , एक हलचल मचा रहे
हों, एक अनाम सी दस्तक दे रहे हों। ऐसा सा हाल करुणा का भी हो जाता जब भी वो श्री
नवीन को पढ़ती और फिर उन्हें सराहती और कभी - कभी उनके लेखन से उसे भी खुद के लेखन
की एक नयी राह मिलती। बातचीत भी शुरू हो गयी आखिर कैसे न होती कोई आपका
प्रशंसक हो तो आप उससे बात किये बिना कैसे रह सकते हैं तो करुणा और श्री नवीन के
मध्य कैसे ये दूरी रहती।
‘क्यों इतना दर्द समाया है तुम्हारे
लेखन में?’
तो एक ही जवाब आता -- बहुत अकेला हूँ
मैं।
घर परिवार होते हुए भी अकेलापन आज हर
दूसरे इंसान की कहानी है तो करुणा के लिए नयी बात नहीं थी मगर अपनी तन्हाई को दूर
करने के लिए उसने तो वक्त की आँख में आँख डाल दी थी मगर श्री नवीन की
सोच कुछ जुदा थी।
क्या
कारण है जो तुम ऐसा कहते हो, अच्छा भला घर परिवार है , कोई कमी नहीं फिर किस चीज़
की जरूरत है नवीन तुम्हें, जो यूँ शब्दों के अरण्य में भटक कर अपने गम को गलत करते
हो ? कौन सी ऐसी चाहत है जो पूरी नहीं हुयी कुछ तो बताओ । यूँ पहेलियों सा मत बने
रहो । जब दोस्त बने हैं तो इतना जानने का हक तो बनता ही है न ।
करुणा
मैने बताया न मुझे एक साथ की जरूरत है , एक साथी
जो जब पुकारुँ , आवाज़ दूँ वो दौड़ा चला आये।मेरे दर्द में शरीक हो , मेरे साथ कुछ बेशकीमती पल गुजारे । मेरी तन्हाइयों में मुझे संवारे । मेरी रूह में अपनी रूह
उतारे । जो मेरी खामोशी को सुन सके और उसे व्यक्त कर दे । आह ! करुणा तुम नहीं
समझोगी मेरी चाह को ।
और ये बात कितनी बार करुणा को कह
चुके थे , उससे उसका फोन नंबर मांगते , मिलने को कहते , अपनी तन्हाई का वास्ता
देते , अपनी नज़मों में दर्द का शाहकार गढ़
करुणा को करुण करने की कोशिश करते और जब देखा कि इन तिलों से
तेल नहीं निकलेगा तो करुणा से किनारा करने का इरादा बताने लगे --------
कई दिन
हो गए जब और वो करुणा को दिखाई नहीं दिये तो उसने मैसेज मे पूछा कि कहाँ गायब हैं
?
करुणा ,
तुम्हारी
और मेरी दोस्ती का कोई औचित्य नही जिसमे जब दोस्त को जरूरत हो सबसे ज्यादा
तुम्हारी तो तुम तक न पहुँच सके, न बात कर सके , हमारी दोस्ती का कोई मतलब ही नहीं
जिसमें आत्मीयता न हो , जिसमे दोस्त की आँख में आँख डाल कर कुछ कहा न जा सके , जो
मेरे गम का साथी न बन सके ऐसी दोस्ती किस काम की ।
आप जब चाहें मुझसे बात कर सकते है ,
अपने दर्द को मेरे संग बाँट सकते हैं मैने कब मना
किया ।
नहीं
करुणा इस तरह क्या फ़ायदा । तुम एक वर्जित फ़ल सी अपने किनारों में सिमटी रहो और मैं
एक प्यासा कुयें की जगत पर खडा रहूँ ।
नहीं
मुझे ऐसे साथी की तलाश नहीं ।
तो फिर
कैसे साथी की तलाश में हो ।
किसी ऐसे साथ की तलाश है जो मुझे समझ सके ,
मेरी तकलीफ़ों में मेरा हाथ पकडकर सहला सके , जिसके घुठने पर सिर रख मैं कुछ देर सो सकूँ , जो साथ बैठने पर झिझके नहीं , जिसके सीने पर कुछ देर सिर रख खुद को भुला सकूँ क्योंकि यहाँ प्रेम शारीरिक नही बल्कि आत्मिक होगा , एक ऐसा साथ जो मेरे होठों से
झरे शब्दों को ओक भर पी ले और मुस्कुरा दे ।
समझ रही हूँ तुम्हें क्या चाहिए । तुम्हें एक
ऐसा साथ चाहिए जो स्वतंत्र हो मगर तुम्हारी आत्मीयता
में परतंत्र , जो मोहब्बत का समन्दर हो मगर हर किनारे पर एक प्यास हो , सूखी रेत
पर कश्ती बह रही हो और वो हाथ में हाथ लिये उनके पास बैठी हो एक गज़ल बनकर । प्यार
की प्यास की कशिश तो वो ही जान सकता है जो खुद प्यास के मुहाने पर बैठा हो सामने
दरिया हो मगर प्यास बुझाने की जरूरत ही न हो । एक आल्हादिक प्रेम की ताबीर बनाना
ही जिसका मकसद हो यही कहना चाहते हो न
हाँ
करुणा जहाँ स्पर्श वर्जित प्रदेश का बादशाह बन उम्रकैद की सज़ा न सुना सके , जहाँ
तुम हो मैं हूँ , तन्हाई हो , एक जाम हो , सिगरेट का कश लेते हुए जहाँ कुछ देर जी
सकूँ , अपना गम हल्का कर सकूँ …… करुणा तुम्हें नहीं पता मेरे सीने में कितने
ज्वालामुखियों ने विस्फ़ोट किया हुआ है , मैं एक जलता सुलगता वो सूरज हूँ जो सबको
तो रोशनी दे सकता है मगर जिसकी किस्मत में खुद उम्र भर जलना ही लिखा है
जब उन्होने बताया तो
करुणा समझ तो गयी मगर वो उसके ज़मीर को गंवारा न था , वो उसकी सीरत न थी , वो उसके
संस्कार न थे ।
गैर मर्द
का स्पर्श गर नज़रों से भी हो तो जान जाती है एक स्त्री फिर यहाँ तो खुला आमन्त्रण
था रुई और चिंगारी का । एक मीठा ज़हर दर्द की चाशनी में लिपटा आमन्त्रित कर रहा था
। उम्र का जंगल उसने यूँ ही पार नहीं किया था और अब तो ऐसे मोड पर खडी थी जहाँ यौवन
ने अपने सारे वसन्त समेट लिए थे और पतझड की चौखट अभी दूर थी । एक वय:संधि काल जैसी
अवस्था जहाँ हिलोरें मारने को एक सूखा सावन साँस भरा करता है मगर अपनी मर्यादा की
लकीरों में सिमट कर ।
देखो
नवीन , यदि तुम ये सब मुझसे अपेक्षा रखते हो तो मत रखना । मैं उस तरह की औरत नहीं
हूँ । हाँ , एक स्वस्थ दोस्ती का रिश्ता जरूर कायम रह सकता है यदि तुम्हें दोस्ती
के सही अर्थ पता हों तो ।
नहीं
करुणा , ऐसे रिश्ते तो बहुत मिल जाते हैं । मुझे तो कोई ऐसा चाहिए जिसे आगोश में
भर लूँ तो भी नागवार न गुजरे , जिसे छू लूँ तो भी नाहक न पेशानी पर बल पडें , वो
जो सिर्फ़ मेरी हो एक ऐसी अपनी जिसमें जिस्म होते हुए भी न हों और न होते हुए भी
हों ।
ओह ! तो
तुम्हें एक रखैल चाहिए ?
नहीं
नहीं करुणा तुम गलत समझ रही हो । वो तो बाज़ार में बहुत मिल जायेंगी । तुम समझ नहीं
रहीं मैं क्या चाहता हूँ ।
नहीं
नवीन , इतनी अन्जान नहीं तुम्हारी चाहतों से , सब समझ रही हूँ वो जो तुम कह रहे हो
और वो भी जो तुम नहीं कह रहे हो । माफ़ी चाहती हूँ , मेरे लिए दोस्ती एक पवित्र
रिश्ता है और मैं उसकी गरिमा को कभी भंग नहीं कर सकती ।
ठीक है
करुणा , इसीलिए मैने पहले ही कहा कि अब तुम्हारा मेरा निभाव संभव नहीं , मैं
तुम्हें अनफ़्रैंड कर रहा हूँ ।
मर्ज़ी
तुम्हारी ।
और हो
गया पटाक्षेप आभासी दुनिया के एक आभास का ।
चाहे कोई कितना ही लबादा ओढे शब्दों
का मगर इतनी भी अंजान न थी जो समझ न पाती कहे का अर्थ या मंशा प्रेम के नाम पर
मानसिक दोहन की , आखिर चालीस पार की औरत थी कैसे न समझ पाती अनकहे शब्दों के
अर्थों को , कोई शोड्ष वर्षीया नवांगना नही थी जो बह जाती चाशनी में लिपट कर ।
बेशक प्रेम की प्यास के दीवाने सिर्फ़ डूबा ही करते हैं मगर करुणा में कहीं न कहीं
ज़िन्दा थी एक औरत और उसकी मर्यादा ।
एक कसक
, एक वितृष्णा से भर उठी करुणा और सोचने लगी
मेरे लिये आभासी दुनिया कोई दिल
बहलाने का सामान नही था मैं तो खुद को जी रही थी अपने लेखन में , खुद को अभिव्यक्त कर रही थी
खुद के सामने ऐसे मे कुछ संजीदा दोस्त ही मेरी धरोहर थे और श्री नवीन से एक
वैचारिक लगाव भर था , एक दर्द का रिश्ता था इससे इतर कुछ भी नहीं मगर मेरी आत्मीयता , संजीदगी ने शायद श्री नवीन को कुछ और
ही सोचने पर मजबूर कर दिया और वो रिश्ता जो अभी घुठने के बल सरकना ही शुरु हुआ था
सिर्फ़ दोनो की अपनी - अपनी चाहतों की वजह से सागर के किनारे प्यासा ही दम तोड गया
।
एक अच्छे दोस्त को खोने की फ़ाँस करुणा के
ज़ख्मों मे दर्द की एक और टीस में इज़ाफ़ा कर गयी और उसे बतला गयी आभासी और
वास्तविक दुनिया में रहने वाले किरदारों में कोई फ़र्क नहीं होता । दर्द देना उनकी
फ़ितरत में शुमार होता है , सिर्फ़ अपनी चाहतों की पूर्ति के लिये एक संजीदा
रिश्ते को तोडना उनके लिये आसान होता है और अब करुणा को सिर्फ़ एक ही प्रश्न खाये
जाता था इसलिए जब बहुत बेचैन हो गयी तो अपनी एक सहेली
से उसने अपने मन की सारी उद्वेलना कही क्योंकि निजात पाने को आखिर एक सहारा तो
चाहिए होता है तब उसकी सहेली मीना ने कहा कि जो भी तुमने महसूसा है और जो भी
प्रश्न तुम्हारे मन में उठ रहे हैं करुणा उन पर एक आलेख लिखो और पोस्ट के रूप में
लगा दो फिर देखना एक तो तुम्हारे सारे प्रश्नों के उत्तर मिल जायेंगे दूसरी बात तुम
खुद को बेहद हल्का महसूस करोगी जब बातचीत द्वारा तुम इस आभासी दुनिया से परिचित हो
जाओगी और फिर करुणा ने मीना के कहे अनुसार अपने मन की सारी भडास इस प्रकार निकाली
:
आखिर क्यों पुरुष स्त्री की तरह
रिश्ता कायम नहीं रख सकता ? स्त्री जो अपने घर परिवार के लिये हमेशा समर्पित होती
है चाहे कितनी ही चोटें खायी हों फिर भी जी लेती है पूरे समर्पण से तो पुरुष ऐसा
क्यों नही कर सकता ?क्यों बुझी हुयी सिगरेट में चिंगारियाँ ढूँढा करता है , क्यों
नये आयाम गढना चाहता है वो भी सिर्फ़ अपनी शर्तों पर ही , अपने कायदों के अनुसार और
अगर उसकी चाहत को नही मिलता आयाम उसके मनमुताबिक तो कैसे दूसरी राह पर बढ लेता है
, कैसे नयी तलाश में जुट जाता है जबकि स्त्री तो हर रिश्ता पूरी शिद्दत से निभाती
है फिर वो घर परिवार का हो या दोस्ती का , वास्तविक हो या आभासी । क्या चालीस पार की औरत सहज सुलभ होती है ऐसी उसकी मानसिकता
होती है या वो सोचता है इस उम्र तक आकर उकता चुकी होती है एक स्त्री अपने साथी से
या ऊब पसर चुकी होती है उनके रिश्तों में तो उसका फ़ायदा उठाया जाए ।
जाने
क्यों पुरुष को हमेशा स्त्री सहज सुलभ चाहिए हर जिम्मेदारी से मुक्त होकर , देह के
साथ , मन के साथ अपने घर परिवार और रिश्तों को ताक पर रखकर सिर्फ़ उसकी चाह को आकार
दे और एक तरुणी सा व्यवहार करे उम्र के उस मोड पर जहाँ जाकर वैसे ही औरत की
ज्यादातर इच्छायें तिरोहित हो चुकी होती हैं । शायद डरता है उनके अन्दर का मर्द कि
कहीं किसी तरुणी को आमन्त्रित किया तो कहीं वो ही न उसे ठग कर निकल जाए या वो उसकी
अपेक्षाओं पर खरा ही न उतरे या वो सिर्फ़ उसके पैसे के लिए ही उससे रिश्ता जोडे
जबकि चालीस पार की औरत गुजरी होती है ज़िन्दगी के इतने मोडों से कि कहीं न कहीं एक
कुंठित ग्रंथि उसके अन्दर भी पनपा करती है इसलिए आसान होता है उसकी सोच के धरातल
को अपनी चाहतों की इबारत तक लाना । पुरुष सोच के पलडे में हमेशा स्त्री की देह ही
क्यों हो्ती है उससे इतर उसके सम्पूर्ण वजूद पर क्यों नहीं उसकी दृष्टि पडती ।
क्यों उसे लगता है कि जो सोशल साइटस पर
आती हैं वो स्त्रियाँ सहज सुलभ हैं या किसी न किसी हीन ग्रंथि का शिकार इसलिए आसान
है उसके लिए अपना जाल बिछाना और फ़ंसाना ।
आज जाकर
समझ आया पुरुष के लिये औरत सिर्फ़ औरत ही होती है फिर वो चाहे चालीस पार
की हो या बीस पार या अस्सी पार की । वहाँ मायने नही रखती
मर्यादायें , मायने रखती है तो सिर्फ़ चाहतें । पुरुष और स्त्री के नज़रिये में
आखिर ये अन्तर होता क्यों है जबकि एक ही मिट्टी से दोनो पैदा होते हैं , एक जैसी
शिक्षा उन्होने पायी होती है फिर कैसे मानसिक धरातल पर दोनो की सोच और
ख्यालों में इतना फ़र्क होता है जो अपनी कटिबद्धता को नहीं पहचानता या दुनिया में
सिर्फ़ एक ही रिश्ता होता है -----------औरत और मर्द का रिश्ता , जिस्म से शुरु
होकर जिस्म पर ही खत्म होता है ………
एक ऐसा प्रश्न जिसे हर औरत सदियों से
खोज रही है मगर जाने किस मिट्टी में उत्तर के बीज दबे हैं जो किसी भी हल से खोदे
,बाहर निकलते ही नहीं ।
और याद
आती है ये कविता जो शायद इस कुंठित मानसिकतावासियों के लिए काफ़ी है एक जवाब बनकर
क्योंकि हल तो जरूर होते हैं कहीं न कहीं यदि प्रश्न है तो :
उम्र के विभाजन और तुम्हारी कुंठित सोच
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स्त्रियां नहीं होतीं हैं
चालीस , पचास या अस्सी साला
और न ही होती हैं सोलह साला
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स्त्रियां नहीं होतीं हैं
चालीस , पचास या अस्सी साला
और न ही होती हैं सोलह साला
यौवन धन से भरपूर
हो सकती हैं किशोरी या तरुणी
प्रेयसी या आकाश विहारिणी
हर खरखराती नज़र में
गिद्ध दृष्टि वहाँ नहीं ढूँढती
यौवनोचित्त आकर्षण
वहाँ होती हैं बस एक स्त्री
और स्खलन तक होता है एक पुरुष
हो सकती हैं किशोरी या तरुणी
प्रेयसी या आकाश विहारिणी
हर खरखराती नज़र में
गिद्ध दृष्टि वहाँ नहीं ढूँढती
यौवनोचित्त आकर्षण
वहाँ होती हैं बस एक स्त्री
और स्खलन तक होता है एक पुरुष
प्रदेश हों घाटियाँ या तराई
वो बेशक उगा लें
अपनी उमंगों की फ़सल
मगर नहीं ढूँढती
कभी मुफ़ीद जगह
क्योंकि जानती हैं
बंजरता में भी
उष्णता और नमी के स्रोत खोजना
इसलिये
मुकम्मल होने को उन्हें
नहीं होती जरूरत उम्र के विभाजन की
स्त्री , हर उम्र में होती है मुकम्मल
अपने स्त्रीत्व के साथ
वो बेशक उगा लें
अपनी उमंगों की फ़सल
मगर नहीं ढूँढती
कभी मुफ़ीद जगह
क्योंकि जानती हैं
बंजरता में भी
उष्णता और नमी के स्रोत खोजना
इसलिये
मुकम्मल होने को उन्हें
नहीं होती जरूरत उम्र के विभाजन की
स्त्री , हर उम्र में होती है मुकम्मल
अपने स्त्रीत्व के साथ
भीग सकती है
कल- कल करते प्रपातों में
उम्र के किसी भी दौर में
उम्र की मोहताज नहीं होतीं
उसकी स्त्रियोचित
सहज सुलभ आकांक्षाएं
देह निर्झर नहीं सूखा करता
किसी भी दौर में
लेकिन अतृप्त इच्छाओं कामनाओं की
पोटली भर नहीं है उसका अस्तित्व
कल- कल करते प्रपातों में
उम्र के किसी भी दौर में
उम्र की मोहताज नहीं होतीं
उसकी स्त्रियोचित
सहज सुलभ आकांक्षाएं
देह निर्झर नहीं सूखा करता
किसी भी दौर में
लेकिन अतृप्त इच्छाओं कामनाओं की
पोटली भर नहीं है उसका अस्तित्व
कदम्ब के पेड ही नहीं होते
आश्रय स्थल या पींग भरने के हिंडोले
स्वप्न हिंडोलों से परे
हकीकत की शाखाओं पर डालकर
अपनी चाहतों के झूले
झूल लेती हैं बिना प्रियतम के भी
खुद से मोहब्बत करके
फिर वो सोलहवाँ सावन हो या पचहत्तरवाँ
पलाश सुलगाने की कला में माहिर होती हैं
उम्र के हर दौर में
आश्रय स्थल या पींग भरने के हिंडोले
स्वप्न हिंडोलों से परे
हकीकत की शाखाओं पर डालकर
अपनी चाहतों के झूले
झूल लेती हैं बिना प्रियतम के भी
खुद से मोहब्बत करके
फिर वो सोलहवाँ सावन हो या पचहत्तरवाँ
पलाश सुलगाने की कला में माहिर होती हैं
उम्र के हर दौर में
मत खोजना उसे
झुर्रियों की दरारों में
मत छूना उसकी देहयष्टि से परे
उसकी भावनाओं के हरम को
भस्मीभूत करने को काफी है
उम्र के तिरोहित बीज ही
झुर्रियों की दरारों में
मत छूना उसकी देहयष्टि से परे
उसकी भावनाओं के हरम को
भस्मीभूत करने को काफी है
उम्र के तिरोहित बीज ही
तुम्हारी सोच के कबूतरों से परे है
स्त्री की उड़ान के स्तम्भ
जी हाँ ……… कदमबोसी को करके दरकिनार
स्त्री बनी है खुद मुख़्तार
अपनी ज़िन्दगी के प्रत्येक क्षण में
फिर उम्र के फरेबों में कौन पड़े
स्त्री की उड़ान के स्तम्भ
जी हाँ ……… कदमबोसी को करके दरकिनार
स्त्री बनी है खुद मुख़्तार
अपनी ज़िन्दगी के प्रत्येक क्षण में
फिर उम्र के फरेबों में कौन पड़े
अब कैसे विभाग करोगे
जहाँ ऊँट किसी भी करवट बैठे
स्त्री से इतर स्त्री होती ही नहीं
फिर कैसे संभव है
सोलह , चालीस या पचास में विभाजन कर
उसके अस्तित्व से उसे खोजना
जहाँ ऊँट किसी भी करवट बैठे
स्त्री से इतर स्त्री होती ही नहीं
फिर कैसे संभव है
सोलह , चालीस या पचास में विभाजन कर
उसके अस्तित्व से उसे खोजना
ये उम्र के विभाजन तुम्हारी कुंठित सोच के पर्याय भर हैं
………ओ पुरुष !!!