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बुधवार, 6 मई 2015

हो तुम खुद की चाहतो में लिपायमान






बहुत उलटफेर किये तुमने
और हमने सब सह लिए
उह आह उफ़ करते करते
ज़िन्दगी के सितम सह लिए
मगर अब शक के घेरे में हो तुम !

हाँ तुम .........जिस पर अति विश्वास किया
उसने ही विश्वास का दोहन किया
तो कहो भला कैसे मुक्त करूँ तुम्हें इल्ज़ामात से

सुनो
तुम कहते हो
सृष्टि का आधार कर्म है
कर्म के अनुसार फल है
मैं तो कर्तुम अकर्तुम अन्यथा कर्तुम हूँ
यानी मैं कुछ नहीं करता
निर्लेप रहता हूँ
लेकिन नहीं लगता ऐसा
जानते हो क्यों ?

क्योंकि
जब कोई चल रहा हो सही राह पर
अचानक तो पथभ्रष्ट नहीं हो सकता न
हमें तो लगता है
कहीं न कहीं तुम ही डाल देते हो खाने में कीड़ा
नहीं देख पाते चलते हुए चक्की को सीधा
और डाल देते हो राह में रोड़े
तो बता सकते हो क्या
यहाँ कौन से कर्मों का लेखा जोखा आ गया ?


वैसे भी सुनो
जब सृष्टि निर्माण तुमने किया
तो अच्छी और बुरी शक्तियां भी तो तुमने ही बनायी न
किसी को अच्छा बनाया और किसी को बुरा
तो सोचो जरा किसने ?
तुमने ही न ........मानव के हाथ तो कुछ नहीं था
सारा सृष्टि विलास तुम्हारी चाहत की पूर्ति ही तो है
तो जिम्मेदार कौन हुआ कभी विचारना इस पर

मानव एक सीधी सच्ची राह चलना चाहता है
जन्म से या माँ के पेट से तो दुनियादारी सीख कर नहीं आता न
मगर तुम उसकी राह में अचानक जाने कितने तूफ़ान खड़े कर देते हो
वो उन्हें भी अपने हौसलों के बल पार कर जाता है जब
तब भी न तुम्हें चैन आता है
जो चल रहा होता है तुम्हारी बताई राह पर
और सुनो तुमसे भी कुछ नहीं चाहता
चाहत होती है तो सिर्फ इतनी
तुझसे मिलन होता रहे
और जब आस्था पहुँचती है अपने चरम पर
तब एक बार फिर तुम लक्ष्य संधान को उद्द्यत हो उठते हो
उत्पन्न कर देते हो भ्रम की सी स्थिति
जहाँ वो समझ नहीं पाता
कौन सी राह सही रही और कौन सी गलत ?
आस्था और विश्वास
की नैया हो उठती है डाँवाडोल
और ये सब यूँ ही नहीं होता
सीधी राह चलने वाला क्यों चाहेगा गलत राह पकड़ना
...... सोचना जरा

हाँ, कारण हो तुम
तुम फैला देते हो मायाजाल
परीक्षा के नाम का
और किंकर्तव्यविमूढ़ मानव फंसता जाता है
जहाँ ले चलते हो चलता जाता है
क्योंकि सम्मोहन की स्थितिओं में
विवेक धराशायी हो जाता है
ऐसे में बताना जरा
कहाँ कर्म की महत्ता रही ?

तुम जो चाहो करते हो
सच तो यही है
नहीं देख सकते तुम सीधा सादा सपाट जीवन जीते किसी को
या फिर साधनारत होते किसी को
कर ही देते हो
उंगल और बदल देते हो तस्वीर

बनाने को दुनिया को मूढ़
रच रखा है तुमने कर्मों का लेखा जोखा रचने का
विधान
सच तो यही है
तुम जो चाहते हो करते हो
क्योंकि
खेल तुम्हारा है और मोहरे भी
जब चाहे जिस भी खाने में जिस भी मोहरे को फिट कर देते हो
और जीत के पांसे सदा अपने हाथ में रखते हो

मुझे तो नहीं दिखते तुम कहीं से भी निर्लेप
हो तुम खुद की चाहतो में लिपायमान
जिनसे तुम खुद मुक्त नहीं हो ..........केशव

वैसे भी किसे पता तुम्हारे सत्य का
सुना है श्रुतियाँ भी नेति नेति कह शीश को झुकाती हैं
ऐसे में कैसे संभव है
आम मानव का तुम्हें रेखांकित करना
तुम्हारे सच और झूठ का पर्दाफाश करना
क्योंकि
उस तरफ सिर्फ तुम ही तुम हो ........एकल खिलाड़ी
और अकेला किसी भी रेस में हो .......जीतेगा ही

मत मढो हम पर कर्म और भाग्य की कुंठाएं
ये तो हैं बस तुम्हारे ह्रदय की विडंबनायें
जिनसे कुंठित हो तुम थोप देते हो परिणाम
और परवश हो भुगतने को होते हैं हम मजबूर

काश ! एक बार परवशता का जीवन तुमने जीया होता तो जान पाते हमारे दर्द को मोहन
विवशताओं की ड्योढ़ी पर माथा रगड़ना क्या होता है शायद जान पाते


एक सच ये भी है
नहीं हो सकते तुम कभी पूर्णतः मुक्त इन इल्जामों से
फिर चाहे देते रहो कितनी ही दुहाई अपनी निर्लेपता की .........
मोहन!

5 टिप्‍पणियां:

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

achhi kavita vandana ji

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 7 - 5 - 2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1968 में दिया जाएगा
धन्यवाद

Sanju ने कहा…

Very nice post ...
Welcome to my blog.

रश्मि शर्मा ने कहा…

मत मढो हम पर कर्म और भाग्य की कुंठाएं
ये तो हैं बस तुम्हारे ह्रदय की विडंबनायें
जिनसे कुंठित हो तुम थोप देते हो परिणाम
और परवश हो भुगतने को होते हैं हम मजबूर ...बहुत ही सुंदर मन के भाव प्रगट कि‍ए आपने

विभूति" ने कहा…

खुबसूरत अभिवयक्ति.....