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शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

अमर प्रेम -----------भाग ८

गतांक से आगे ..........................

वक्त पंख लगाकर उड़ रहा था । ऐसे सुखद अहसासों के साथ दोनों जी रहे थे । कई साल गुजर गए । फिर एक दिन अजय ने अर्चना से मिलने की इच्छा जाहिर की । अजय जब भी ख़त लिखता उसमें अपने आत्मिक प्रेम का भव्य वर्णन करता और चाहता अर्चना भी उसके प्रेम को स्वीकारे।उसका प्रेम तो सिर्फ़ आत्मिक था हर बार अर्चना को समझाता । कहीं कोई वासना नही थी उस प्रेम में । सिर्फ़ एक बार देखने की चाह ,एक बार मिलन की चाह...............सिर्फ़ एक छोटी सी चाह अपने जज्बातों को बयां करने की । मगर अर्चना -----वो तो सिर्फ़ अहसासों के साथ जीना चाहती थी क्यूंकि उसकी मान्यताएं , उसकी मर्यादाएं उसे कभी ऐसा सोचने पर मजबूर ही नही करती थी। उसे कभी वो कमी महसूस ही नही होती थी जो अजय को हो रही थी । अर्चना अपनी सम्पूर्णता में जी रही थी इसलिए कभी भी अजय के प्रेम को स्वीकार ही नही कर पाई क्यूंकि उसके लिए अजय का प्रेम न आत्मिक प्रेम था न ही कुछ और , वो सिर्फ़ एक सुखद अहसास था जिसे वो अपनी रूह से महसूस करती थी ।
अब इसी बात पर अजय अर्चना से नाराज़ हो गया। आए दिन दोनों की इसी बात पर बहस होने लगी और नाराज़गी बढ़ने लगी । अब अजय ने धीरे धीरे अर्चना को ख़त लिखना ,उसकी कविताओं की सराहना करना बंद कर दिया । शायद वो सोचता था कि उसके इस कदम से अर्चना आहत होगी तो उसके प्रेम को स्वीकार कर लेगी ।इक तरफा प्रेम का अद्भुत मंज़र था । मगर अर्चना के इरादे पर्वत के समान अटल थे । उसका विश्वास ,उसकी मर्यादाएं सब अटल। लेकिन अर्चना ने कभी भी अजय के चित्रों की प्रशंसा करना नही छोडा। वो उसके लिए आज भी वैसा ही था जैसा कल। अर्चना बेशक अजय की ऐसी आदतों से आहत होती थी और तब फिर एक नई कविता का जन्म होता था । अपने उदगारों को अर्चना कविता के माध्यम से व्यक्त करती रहती मगर अजय पर तो जैसे अपनी जिद मनवाने की धुन सवार रहती । इसलिए उसने भी अपने चित्रों की नायिका के रंग और रूप बदलने शुरू कर दिए । उसकी इस दीवानगी से अर्चना परेशान हो जाती । शायद इसीलिए वो उससे कभी मिलना नही चाहती थी।
जहाँ अपूर्णता होती है वहां मिलन की चाह होती है मगर जहाँ पूर्णता होती है वहां कोई चाह बचती ही नही। अर्चना शायद उसी प्रकार की नारी थी।

क्रमशः.........................................

3 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

"जहाँ अपूर्णता होती है वहां मिलन की चाह होती है मगर जहाँ पूर्णता होती है वहां कोई चाह बचती ही नही। अर्चना शायद उसी प्रकार की नारी थी।"

कहानी के साथ यह सन्देश बहुत बढ़िया रहा।
अगली कड़ी का इन्तजार है।

ओम आर्य ने कहा…

बेहद खुबसूरत .........बधाई!एक सुन्दर सन्देश भी बाहर आ रहा है !

Mumukshh Ki Rachanain ने कहा…

कहानी की यह कड़ी एक अच्छे सन्देश के साथ रोचक भी रही. अगली कड़ी का इंतजार है, पर हाँ, इसकी सूचना मेरे E-Mail Adderess : cm.guptad68@gmail.com पर देना मत भूलियेगा, ताकि भविष्य में क्रमशः में भी निरंतरता लगातार बनी रहे और कडियाँ समय पर पढ़ सकूँ.

हार्दिक आभार.

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com