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रविवार, 8 नवंबर 2009

यादों के झरोखों से भाग ३..........................

रवि और निशा की शायद यही परिणति है ...............मिलकर भी न मिलना। यही तसल्ली दिल को देकर आगे के बारे में सोचना शुरू किया। अब मैं अपने पुराने घावों को भूल एक नए सिरे से आजाद पंछी की भांति जीवन- यापन करने की सोचने लगी। पिता के घर में किसी बात की कमी तो थी नही और साथ ही मैं इतना अच्छा कमाती थी तो आर्थिक स्थिति तो सुदृढ़ थी ही । मैं अपने हिसाब से जीने की कोशिश करने लगी मगर मुझे पता नही था कि एक तलाकशुदा का जीवन कोई फूलों की डगर नही। बहुत ही जल्द वक्त ने मुझे यथार्थ का धरातल दिखा दिया । मुझे अपनी कमाई पर गर्व था और सोचती थी कि धन से सब कुछ ख़रीदा जा सकता है ,सिर्फ़ रवि ही मेरी भावनाएं नही समझ सका मगर घर में भाई भाभी भी थे उन्हें मेरी कमाई से कोई फर्क नही पड़ता था मैं उनके या उनके बच्चों के लिए कितना भी कुछ करने की कोशिश करती मगर उन पर असर नही होता। उनके लिए तो मैं अब एक आजीवन बोझ ही थी । मैं अपनी खुशी से कुछ भी करती मगर सब बेकार ,किसी को भी मेरी खुशी से कुछ लेना देना नही होता,एक अनचाहा बोझ समझते थे सब। इस बात का अहसास अब मुझे भी होने लगा था। इसलिए मैंने अलग रहने की सोची और जब घर देखने निकली तब तो और भी मुश्किलों ने घेर लिया। कोई भी एक तलाकशुदा को जल्द ही घर देने को राजी न होता। जैसे ही तलाकशुदा होने का पता चलता यूँ देखते जैसे संसार का आठवां अजूबा मैं ही हूँ या जैसे मैं इंसान न होकर उनके घर को उजाड़ने वाली कोई चीज़ हूँ या फिर हर कोई चाहता की ये तो तलाकशुदा है तो जैसे इस पर अपना अधिकार है । हर कोई ग़लत नज़रिए से ही देखता। आज के युग में भी इंसानी सोच कितनी जड़ थी.........मैं यही सोचकर परेशान हो जाती मगर कर कुछ नही सकती थी। ऐसे जीवन की तो मैंने कल्पना भी नही की थी न ही कभी सोचा था कि हालत ऐसे भी हो सकते हैं। तलाक लेने से पहले सबने कितना समझाया था मगर उस वक्त मैं कल्पनाओं के आकाश पर विचर रही थी तो कैसे यथार्थ बोध होता। जब भी कहीं रहती कोई न कोई समस्या मुहँ बाये खड़ी रहती। जिंदगी को जितना आसान समझा था वो उतनी ही राहों में कांटे बोती जा रही थी। अब तो अकेलेपन का दर्द बहुत ही सालने लगा था । कोई कंधा ऐसा न था जिसपे अपना सिर रखकर रो पाती या किसी से अपना हाल-ए-दिल कह पाती। कभी कोई बीमारी होती तो उस वक्त इतनी लाचार महसूस करने लगती कि सोचती कि क्या ऐसी ही जिंदगी की मैंने कल्पना की थी ।ऐसे वक्त पर रवि की बहुत याद आती। वो मेरा कितना ख्याल रखता था अगर मुझे ज़रा सा भी कुछ हो जाता तो रात भर आंखों में ही काट देता था मगर मेरे सिरहाने से नही हिलता था। क्या हालात और वक्त ऐसे बदलता है। जो न सोचा हो वो होता है। धीरे -धीरे मेरा दंभ मरना लगा था । अब मुझे लगने लगा था कि शायद तलाक लेने में मैंने बहुत जल्दी कर दी थी । कुछ वक्त दिया होता अपने रिश्ते को । अब रवि की बहुत सी बातें मुझे याद आने लगी थी। अब मुझे सिर्फ़ उसकी अच्छी बातें ही याद आती । उधर रवि का भी मेरे से कम बुरा हाल न था । उसका भी कमोबेश यही हाल था। एक ही शहर में होने के कारन उसके बारे में मुझे जानकारी मिलती रहती थी। मगर अब क्या हो सकता था। जिंदगी दोनों के लिए दुश्वार होने लगी थी । जब साथ थे तो साथ नही रहना चाहते थे और अब जब अलग हो गए तब भी दोनों को सुकून नही मिल रहा था। जिंदगी का न जाने ये कौन सा मुकाम था जहाँ एक अजीब सी बचैनी बढती ही जा रही थी। क्या करें और क्या न करें की अजीब सी कशमकश में उलझते जा रहे थे। अब हमारा वो हाल था न हम आगे बढ़ पा रहे थे और न ही पीछे लौट कर जा सकते थे। अब तो सिर्फ़ यादें थी जो हमारी तन्हाई की साथी थी । अब सिर्फ़ सुखद यादें ही याद आती। दुखद यादें तो जैसे न जाने कौन से परदे में छुप गई थीं। और हम जिंदगी जीने को मजबूर इसी ऊहापोह में जिए जा रहे थे मगर बिना लक्ष्य का जीवन भी कोई जीवन होता है। दुनिया के हँसते खिलखिलाते चेहरे देख , उनके परिवारों को देख दिल में एक कसक सी उठती । शायद इससे बड़ी सजा और क्या मिलती अपनी नादानियों की .....................

क्रमशः .........................

6 टिप्‍पणियां:

श्यामल सुमन ने कहा…

यथार्थपरक कहानी श्रृंखला। अगली कड़ी के इन्तजार में।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

jee...mujhe aapke is kahani ka intezaar rehta hai.....

aapne bahut sahi chitran kiya hai ek talaakshuda ki vyatha ko...... kai baar hum khud hi rishton ko nahi samajh paaatey hain....... aur false ego mein zindagi tabaah kar lete hain......

bahut hi achchi lag rahi hai yeh kahani...... ab aage ka intezaar hai.....

M VERMA ने कहा…

शायद इससे बड़ी सजा और क्या मिलती अपनी नादानियों की .....................
रिश्तो के उहापोह और सामाजिक सम्वेदनाओ की शून्यता और अंतर्द्वन्द को बखूबी समेटा है आपने.
अगले भाग का इंतजार

Unknown ने कहा…

achha taartamya...........

maalika badhiya chal rahi hai

badhaai !

मनोज कुमार ने कहा…

इस तरफ भी मुश्किलें हैं, उस तरफ भी मुश्किलें,
ज़िंदगी तू ही बता अब, किस तरह तुझसे मिलें।
आगे की प्रतीक्षा है।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

"यादों के झरोखों से"
कछा अच्छे प्रवाह में चल रही है।