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बुधवार, 4 नवंबर 2015

यदि आज मैं मर जाऊँ

यदि आज मैं मर जाऊँ
कुछ भी तो नहीं बदलना
सिवाय कुछ जिंदगियों के
जहाँ कुछ वक्त एक खालीपन उभरेगा
वो भी वक्त के साथ भर जाएगा
अक्सर मन में उठते इस विचार से
होती है जद्दोजहद
तो फिर जीवन का आखिर क्या है औचित्य ?

क्या सिर्फ इतना भर
पैदा होओ , कमाओ धमाओ
बच्चे पैदा करो
उनका पालन पोषण करो
और फिर एक दिन
तिरस्कृत हो जीवन से कूच कर जाओ
क्या सिर्फ इसीलिए
एक पूरे जीवन की जद्दोजहद ?

कभी छल प्रपंच
कभी बेईमानी , कभी झूठ
कभी अत्याचार के परचम तान
खुद को सर्वेसर्वा सिद्ध करना
जबकि अंत तो एक ही है
मृत्यु से कौन बचा है
फिर किसलिए डर आतंक का साम्राज्य
जब कुछ भी स्थायी नहीं
यहाँ तक कि खुद का होना भी ?

चाहतों के अम्बार लगा
आखिर किस आसमान पर उगायें उपवन और क्यों ?
जबकि
नश्वरता ही है अंतिम सत्य

मुझे मेरा होना प्रश्नों के कटघरे में अक्सर खड़ा कर देता है
और उत्तर में सिर्फ एक आश्रय
या तो कीर्ति की पताका ऐसी फहराओ
जन्म जन्मान्तरों तक न मिटे
या फिर
गिरधर से प्रीत लगा मीरा सूर कबीर तुलसी बन जाओ
जो आवागमन ही छुट जाए
या फिर
ज्ञान का दीप जला लो
हर तम मिट जाए
खुद का आभास हो जाए

और मैं बावरिया
किसी भी आन्तरिक तर्क से
खुद को नहीं कर पाती संतुष्ट
क्योंकि
येन केन प्रकारेण
नश्वरता ही है जब अंतिम सत्य
तो फिर किसलिए इतना उद्योग ?

खाली हाथ आना जाना
तो मध्य में क्यूँ खुद को भरमाना ?

उत्तर जानते हुए भी हो जाती हूँ अक्सर निरुत्तर
और खोज के पर्याय फिर निकल पड़ते हैं प्यास के रेगिस्तान को खोदने ...

2 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना, वन्दना जी।

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

जीवन ऐसे ही चलता रहता है। निरंतर। अच्छी कविता के लिए शुभकामनायें।