आज जन्मदिन है तुम्हारा 
मना रहे हैं सब 
अपने अपने ढंग से 
जिसके पास जो है 
कर रहा है तुम पर न्यौछावर 
मगर 
वो क्या करे 
जिसके पास अपना आप भी न बचा हो 
मेरे पास तो बचा ही नहीं कुछ 
और जो तुमने दिया है 
वो ही तो तुम्हें दे सकती हूँ 
विरह की अग्नि से दग्ध 
मेरा मन 
स्वीकार सको तो स्वीकार लेना कान्हा 
नहीं देखी होगी कभी तुमने कोई ऐसी गोपी 
नहीं मिली होगी कभी 
तोहफे में ऐसी सौगात 
वो भी जन्मदिन पर ... है न 
मेरे जैसी एक निर्मोही 
जो बन रही है कुछ कुछ तुम सी ही 
और तुम्हें लाड लड़वाने
माखन मिश्री खाने की आदत ठहरी 
क्यूँ स्वीकारोगे मेरी वेदना की रक्तिम श्वांसें
आह ! कृष्ण ......... जाओ जीयो तुम 
अपनी ज़िन्दगी 
अपनी खुशियाँ 
कि
ये पल है तुम्हारा , तुम्हारे चाहने वालों का 
और मैं कौन ?
प्रेम की देग में दहकना है मेरी अंतिम नियति 
कभी मिलोगे 
इस आस पर नहीं गुजरती अब ज़िन्दगी ...

1 टिप्पणी:
सुन्दर कविता ... वंदना बाजपेयी
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