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सोमवार, 21 अगस्त 2017

प्रीत की भाँवरें

मुझ सी हठी न मिली होगी कोई
तभी तो
तुमने भी चुनी उलट राह ... मिलन की
दुखी दोनों ही
अपनी अपनी जगह

दिल न समंदर रहा न दरिया
सूख गए ह्रदय के भाव
पीर की ओढ़ चुनरिया
अब ढूँढूं प्रीत गगरिया
और तुम लेते रहे चटखारे
खेलते रहे , देखते रहे छटपटाहट
फिर चाहे खुद भी छटपटाते रहे
मगर भाव पुष्ट करते रहे

कभी कभी सीधी राहें रास नहीं आतीं
और तुम
'उल्टा नाम जपत जग जाना
वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना'
के समान राह आलोकित करते रहे
उसमे भी तुम्हारा प्रेम छुपा था
आर्त स्वर कौन सुनता है सिवाय तुम्हारे
आर्त कौन होता है सिवाय तुम्हारे
एक ही कश्ती में सवार हैं दोनों
आओ खोजें दोनों ही मिलन की कोई स्थली

शायद
मौन का घूँट पीयूँ
और सुहाग अटल हो जाए
ये प्रीत की भाँवरें इस बार उल्टी ली हैं हमने...है न साँवरे

2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-08-2017) को "सभ्यता पर ज़ुल्म ढाती है सुरा" (चर्चा अंक 2704) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

pushpendra dwivedi ने कहा…

badhiya bahut behtareen rachna





http://www.pushpendradwivedi.com/%E0%A5%9E%E0%A4%BF%E0%A5%9B%E0%A4%BE%E0%A4%93%E0%A4%82-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%9C%E0%A5%8B-%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%B9%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%AC%E0%A4%A4-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%AA/