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मंगलवार, 29 सितंबर 2009

अमर प्रेम ---------भाग १०

गतांक से आगे ...........................

अर्चना और अजय की ज़िन्दगी न जाने किस मुकाम पर आ गई थी । दोनों एक दूसरे को समझते भी थे ,एक दूसरे को जानते भी थे मगर मानना नही चाहते थे। दोनों ही अपनी- अपनी जिद पर अडे थे । समय का पहिया यूँ ही खिसकता रहा और दोनों के दिल यूँ ही सिसकते रहे।
प्रेम का अंकुर किसी जमीं पर पलमें ही फूट जाता है और किसी जमीं पर बरसों लग जाते हैं । प्रेम हो तो ऐसा जहाँ शरीर गौण हों सिर्फ़ आत्मा का मिलन हो । शुद्ध सात्विक प्रेम हो जहाँ कोई चाह ही न हो सिर्फ़ अपने प्यारे के इशारे पर मिटने को हर पल तैयार हो। लगता है प्रेम की उस पराकाष्ठा तक पहुँचने के लिए अभी वक्त को भी वक्त की जरूरत थी। वक्त भी साँस रोके उस क्षण की प्रतीक्षा कर रहा था ------कब इन दोनों का प्रेम (जिसे एक मानता है मगर दूजा नही ) चरम स्थिति में पहुंचे और कब वो भी उस दिव्यता के दर्शन करे ।

वक्त इंतज़ार के साथ अपनी गति से चल रहा था। एक दिन अर्चना समीर और बच्चों के साथ घूमने गई । इत्तेफाक से उसी शहर में पहुँच गई जहाँ अजय रहता था। या नियति उसे वहां ले गई थी । एक दिन रेस्तरां में जब अर्चना अपने परिवार के साथ खाना खाने गई हुई थी वहीँ पर अजय भी अपने परिवार के साथ आया हुआ था। दोनों में से किसी को भी एक -दूसरे की मौजूदगी का पता न था। आज का दिन अर्चना की ज़िन्दगी का एक खास दिन था। उस दिन अर्चना की शादी की सालगिरह थी और उसके पति और बच्चे उस दिन को खास बनाना चाहते थे इसलिए समीर ने अर्चना से उसकी समीर के लिए लिखी एक खास कविता सुनाने को कहा -------जिस कविता पर अर्चना को अपने पाठकों से भी बेहद सराहना मिल चुकी थी। आज अर्चना मना भी नही कर सकती थी क्यूंकि समीर ने जिस अंदाज़ में उसे सुनाने को कहा था वो अर्चना के अंतस को छू गया। अर्चना कविता सुनाने लगी। कविता के बोल क्या थे मानो अमृत बरस रहा हो । आँखें मूंदें समीर कविता सुन रहा था और उसके भावों में डूब रहा था। जब अर्चना कविता सुना रही थी उसे मालूम न था कि ठीक उसके पीछे कोई शख्स बड़े ध्यान से उस कविता को सुन रहा है । जैसे ही कविता पूरी हुई समीर और बच्चों के साथ एक अजनबी की आवाज़ ने अर्चना को चौंका दिया। अर्चना ने सिर उठाकर ऊपर देखा तो एक अजनबी को तारीफ करते पाया। एक पल को देखकर अर्चना को ऐसा लगा कि जैसे इस चेहरे को कहीं देखा है मगर दूसरे ही पल वो सोच हकीकत बन गई जब उस शख्स ने कहा ----------"कहीं आप अर्चना तो नही"। अब चौंकने की बारी अर्चना की थी। इस अनजान शहर में ऐसा कौन है जो उसे नाम से जानता है। जब अर्चना ने हाँ में सिर हिलाया तो उस शख्स ने अपना परिचय दिया ---------मैं अजय हूँ ,चित्रकार अजय , जिसके चित्र आपकी हर कविता के साथ छपते हैं। ये सुनकर पल भर के लिए अर्चना स्तब्ध रह गई। एक दम जड़ हो गई------------आँखें फाड़े वो अजय को देख रही थी जैसे वो कोई अजूबा हो।वो तो ख्वाब में भी नही सोच सकती थी कि अजय से ऐसे मुलाक़ात हो जायेगी। अब समीर ने अर्चना को एक बार फिर मुबारकबाद दी कि आज का दिन तो खासमखास हो गया क्यूंकि आज तुम्हारे सामने तुम्हारा एक प्रशंसक और एक कलाकार दोनों एक ही रूप में खड़े हैं । एक ही पल में इतना कुछ अचानक घटित होना-----------------अर्चना को अपने होशोहवास को काबू करना मुश्किल होने लगा। जैसे तैसे ख़ुद को संयत करके अर्चना ने भी अपने परिवार से अजय का परिचय कराया और फिर अजय ने भी अपने परिवार से अर्चना के परिवार को मिलवाया। दोनों परिवार इकट्ठे भोजन का और उस खास शाम का आनंद लेने लगे। मगर इस बीच अर्चना और अजय दोनों का हाल 'जल में मीन प्यासी 'वाला हो रहा था।
आज दोनों आमने- सामने थे मगर लब खामोश थे . दोनों के दिल धड़क रहे थे मगर धडकनों की आवाज़ कानों पर हथोडों की तरह पड़ रही थी। सिर्फ़ कुछ क्षण के लिए नयन चोरी से दीदार कर लेते थे। सिर्फ़ नयन ही बोल रहे थे और नयन ही समझ रहे थे नैनो की भाषा को। बिना बतियाये बात भी हो गई और कोई जान भी न पाया। अपनी- अपनी मर्यादाओं में सिमटे दोनों अपने -अपने धरातल पर उतर आए।
ये शाम दोनों के जीवन की एक अनमोल यादगार शाम बन गई । अजय अपनी सारी नाराज़गी भूल चुका था . आज अजय पर वक्त मेहरबान हुआ था. अजय के लिए तो ये एक दिवास्वप्न था। वो अब तक विश्वास नही कर पा रहा था कि उसकी कल्पना साकार रूप में उसके सामने थी आज। उस दिन के लम्हे तो जैसे सांसों के साथ जुड़ गए थे हर आती-जाती साँस के साथ अजय का दिल धड़क जाता-----------वो सोचता --------वो स्वप्न था या हकीकत। अजीब हालत हो गई अजय की । कई दिन लगे अजय को पुनः अपने होश में आने के लिए। एक स्वप्न साकार हो गया था। बिना मांगे ही अजय को सब कुछ मिल गया था।अजय की खुशी का ठिकाना न था । इन्ही लम्हों की तो वो बरसों से प्रतीक्षा कर रहा था शायद उसकी चाहत ,उसका प्रेम सच्चा था तभी उसे उसके प्रेमास्पद का दीदार हो गया था।


क्रमशः ..........................................

4 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

"उस शख्स ने कहा ----------"कहीं आप अर्चना तो नही"। अब चौंकने की बारी अर्चना की थी। इस अनजान शहर में ऐसा कौन है जो उसे नाम से जानता है। जब अर्चना ने हाँ में सिर हिलाया तो उस शख्स ने अपना परिचय दिया ---------मैं अजय हूँ ,चित्रकार अजय , जिसके चित्र आपकी हर कविता के साथ छपते हैं। ये सुनकर पल भर के लिए अर्चना स्तब्ध रह गई। एक दम जड़ हो गई------------"

कथा के सम्वाद बहुत अच्छे हैं, दिनके कारण कहानी में रोचकता भरपूर है।
बहुत बधाई!

ओम आर्य ने कहा…

बहुत ही खुबसूरती से आप कहानी को आगे बढा रही है ........बहुत ही सुन्दर ..........रोचक!

Udan Tashtari ने कहा…

पढ़ना जारी है...समीर तो खुद पात्र हो लिए..:)

जारी रहिये, अच्छा प्रवाह है.

SELECTION - COLLECTION SELECTION & COLLECTION ने कहा…

मै अभी तक आप़की कहानी पुरी तरह से पढ नही पा रहा हू। पढने के बाद विस्तृत टिप्पणी करुगा।
आभार/ मगलभावनाओ के साथ
मुम्बई टाईगर

हे प्रभु यह तेरा-पथ