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शनिवार, 11 सितंबर 2010

नई सुबह ---------भाग ६

शैफाली  ने पूछा , " अच्छा बताओ ये सब कैसे हुआ. १५ दिन में ही इतना सब कैसे बदल गया. कौन सा ऐसा चमत्कार हुआ कि तुम्हारे लेखन में इतनी उत्कृष्टता आ गयी "?


तब मैंने कहा ---------------
अब आगे ......................

तब मैंने कहा ," ये सब तुम्हारे ही कारण हुआ और उसे इतने दिन में क्या क्या महसूस किया सब बता दिया साथ ही उससे अपने प्यार का इज़हार कर दिया कि शैफाली ये सब तुम्हारे प्यार ने ही करवाया है. मुझे नहीं पता था कि प्यार में इतनी शक्ति होती है जो एक आम इंसान को खास बना देता है ".
मेरे इतना कहते ही शैफाली ने अचानक जोर से अपना हाथ खींचा और उठ खडी हुई और बोली ," माधव ये तुम क्या कह रहे हो ? मैंने कभी ऐसा नहीं सोचा. तुम और मैं तो सिर्फ अच्छे दोस्त हैं . तुमने ऐसा कैसे सोच लिया ".


तब मैंने कहा , "मुझे भी नहीं पता था कि मुझे तुमसे प्यार हो गया है . ये तो राकेश ने मुझे इसका अहसास करवाया. अच्छा बताओ , बिलकुल सच -सच बताना , कि क्या तुम्हें मैं कभी याद नहीं आया इतने दिनों में. क्या तुम्हारा वहाँ मन लगा मेरे बिना. क्या तुम मुझसे मिलने के लिए बेचैन नहीं थीं ".


इन बातों का तो शायद शैफाली के पास भी कोई जवाब नहीं था . वो मुझे बिना कुछ कहे चुप चाप वहाँ से चली गयी और मैंने भी उसे नहीं रोका ताकि वो भी इस अहसास को महसूस कर सके ..........कुछ देर इसमें भीग सके और फिर कोई फैसला करे. हाल बेशक दोनों तरफ एक जैसा था मगर वो अभी इसे स्वीकार नहीं कर पा रही थी . कई दिन शैफाली मुझसे बचती रही . सामने आने पर कोई  ना कोई काम का बहाना बनाकर चली जाती.और मैं उसका इंतज़ार कर रह था कि कब वो मेरे प्रेम को स्वीकारती है और अपने प्रेम का इज़हार करती है.


इसी बीच मैं घर से सीढियां उतरते समय गिर पड़ा और पैर की हड्डी तुडवा बैठा . अब तो उससे मिलना नामुमकिन हो गया. ना जाने अभी कितनी ही बातें अधूरी थीं मगर सब अधूरी ही रह गयीं. मगर एक दिन अचानक कॉलेज के सारे दोस्त मेरा हाल पूछने मेरे घर आ गए उनके साथ शैफाली भी थी . उस दिन तो वो सबके साथ जैसी आई थी वैसी ही चली गयी थी मगर उसके २ दिन बाद वो फिर आई और आते ही जब हम कमरे में अकेले थे , माँ चाय बनाने गयी हुई थी इसी बीच बोली , " माधव तुम जल्दी से ठीक हो जाओ . अब मेरी समझ में आ गया है कि तुम सही कह रहे थे . शायद हम दोनों एक दूसरे के लिए ही बने हैं. अब तुम्हारे बिना कॉलेज जाने का मन नहीं करता .हर तरफ तुम ही दिखाई देते हो . हमारी दोस्ती कब प्यार में बदल गयी ना तुम्हें पता चला ना मुझे मगर अब जब अहसास हो गया है तो स्वीकारोक्ति में देर क्यूँ करें".


मुझे तो यूँ लगा जैसे मेरी टांग पहले क्यूँ नहीं टूटी कम से कम ये ख़ुशी पहले नसीब हो जाती . अब तो ज़िन्दगी एक अलग ही राह पर बह निकली थी. अब हर दिन एक नया दिन बन कर आता. जैसे खुदा ने सारे जहाँ की खुशियाँ समेट कर मेरे दामन में डाल दी हों .मेरे पैर तो जैसे किसी ने फूलों की मखमली चादर पर रख  दिए हों और वक़्त अपनी रफ़्तार से उडा जा रहा हो .मेरे माता पिता तो उसी में खुश थे जिसमे मेरी ख़ुशी थी मगर मैं अभी तक ना शैफाली के घर जा सका  था और ना ही उसके पिता से मिल पाया था. ना ही कभी शैफाली ने चाहा कि मैं उनसे मिलूँ. कभी इस तरफ ध्यान ही नहीं गया था. उसकी माँ नहीं थी और वो भी अपने पिता की  इकलौती संतान थी. दिन सपनो की तरह रोज  नए रंग के साथ गुजर रहे थे और हम आसमान की रंगीनियों में विचरण कर रहे थे बिना सोचे कि वक्त जितना इन्सान पर मेहरबान होता है उतना ही बेरहम भी होता है...........कब अपनी दी हर सौगात एक ही झटके में छीन लेता है पता भी नहीं चलता और उस पल इंसान बेबस , खाली हाथ सिर्फ वक़्त को कोसता रह जाता है. 


जैसे किसी को एक ही दिन में अचानक सारे जहाँ की दौलत मिल गयी हो और एक ही पल में वो कंगाल हो गया हो ऐसा एक हादसा मेरी ज़िन्दगी को बदलने के लिए काफी था. दुर्भाग्य ने मेरी किस्मत का दरवाज़ा खटखटा दिया था . मेरे माता पिता का एक एक्सिडेंट में देहांत हो गया. मेरी तो सारी दुनिया ही उजड़ गयी  . मैं तो जैसे भरे बाज़ार में लुट गया था. एक दम पागल सा हो गया था मैं . इतना गहरा सदमा लगा था मुझे कि मेरा अपने होशो हवास पर काबू ही नहीं रहा. मेरा तो सब कुछ मेरे माँ बाप थे , उनके बिना मैं अधूरा था .मुझे नहीं पता कब और कैसे मेरे माता पिता की अंत्येष्टि हुई. कितने महीने , साल मेरी ज़िन्दगी के शून्य में खो गए मुझे नहीं पता. जब ८ साल बाद होश आया तो खुद को सड़क पर भटकता पाया. मैं एक भिखारी के रूप में दर- दर भटक रह था.दो लोगों  के झगडे की चपेट में आने से एक डंडा मेरे सिर पर ऐसा पड़ा कि जो मैं भूल गया चुका था वो सब  याद आ गया और मैं अपने घर की और चीखते -चिल्लाते हुए दौड़ा. मेरे पीछे -पीछे एक भिखारी दोस्त भी भागा मुझे आवाज़ देते हुए -रूक जाओ भैया, रूक जाओ लेकिन मुझे तो होश ही नहीं था. मुझे तो वो ही याद था कि मेरे माँ बाप इस दुनिया में नहीं रहे और मुझे उनका अंतिम संस्कार करना है ................


क्रमशः ..........


 

10 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

ओह ..गहरे सदमें ने ८ साल तक याददाश्त को खत्म कर दिया ....बहुत मार्मिक चित्रण ....

सारी ज़िंदगी ही बदल गयी ...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आज का धारावाहिक बहुत ही
बढ़िया और शिक्षाप्रद रहा!
--
यब तो साबित ही हो गया कि
हर कामयाब पुरुष के पीछे एक महिला होती है!

Renu Sharma ने कहा…

hi, vandana ji
kya bat hai ,bahut hi mast likha hai,ek sans main hi padh gai ,
aage ka intjar hai .

निर्मला कपिला ने कहा…

वक्त भी कितना बेरहम होता है पल मे जीवन बदल देता है। देखते हैं आगे क्या होता है। गणेश चतुर्थी की शुभकामनाएं !

मनोज कुमार ने कहा…

बहुत दर्दनाक स्थिति में कहानी पहुंच चुकी है।
अगली कड़ी की प्रतीक्षा।

आपको और आपके परिवार को तीज, गणेश चतुर्थी और ईद की हार्दिक शुभकामनाएं!
फ़ुरसत से फ़ुरसत में … अमृता प्रीतम जी की आत्मकथा, “मनोज” पर, मनोज कुमार की प्रस्तुति पढिए!

ASHOK BAJAJ ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति .आभार

राजभाषा हिंदी ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति।

हिन्दी, भाषा के रूप में एक सामाजिक संस्था है, संस्कृति के रूप में सामाजिक प्रतीक और साहित्य के रूप में एक जातीय परंपरा है।

देसिल बयना – 3"जिसका काम उसी को साजे ! कोई और करे तो डंडा बाजे !!", राजभाषा हिन्दी पर करण समस्तीपुरी की प्रस्तुति, पधारें

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

अभी पहले की सिरीज़ भी पढ़ रहा हूँ....

दीपक 'मशाल' ने कहा…

बहुत ही रोचक होता जा रहा है ये लघुउपन्यास... कई सारे बातें बहुत अप्रत्याशित हुईं..खासकर ये याददाश्त वाला मोड़.. शैली अच्छी है..

के सी ने कहा…

उसके भागते ही मेरे भीतर का पाठक भी उत्सुक हो गया है
कहानी से अपेक्षाएं बढ़ गई है