चुप्पी खलनायिका सी सोच के कूपे में धरना दिए बैठी है . ..... कहने सुनने
को कुछ नहीं बचा , अगर है तो एक विरक्ति सी जहाँ जो है जैसा है ठीक है , जो
हो रहा है ठीक हो रहा है ..........सोचने समझने की फसल को मानो पाला पड़
गया हो और एक ठूंठ अकड़ा खड़ा हो मानो कहता हो कर लो जो तुमसे हो सके
........नहीं हिला सकते तुम मेरी अटल भक्ति को अपनी कोशिशों के पहाड़ से
..........
ये कोई वैराग्य नहीं है और न ही भक्ति की कोई अवस्था
......... न ही दीन हीनता उभरी है बस एक तटस्थता ने बो दिए हैं बीज अपने
........ कोई नहीं है जो ध्यान दे और मुझे चाहिए एक साथ जो अंतर्घट के
किवाड़ों को झकझोर डाले , खोल डाले भिड़े हुए कपाट और करा दे दुर्लभ देव
दर्शन .........शायद टूट जाये चुप्पी का कांच
खुद को समझना कभी कभी
कितना मुश्किल हो जाता है तो फिर व्यक्त करना कैसे संभव है ..........ऐसे
में करने चल देते हैं दूसरों का आकलन जबकि खुद को ही किसी भरोसे नहीं छोड़
सके , खुद के अस्तबल में ही हिनहिनाते चुप के घोड़ों से ही नहीं गुफ्तगू कर
सके ..........ऐसे में कैसे संभव है ' आखिर मैं चाहती / चाहता क्या हूँ '
की व्याख्या ?
एक घनघोर निराशा का समय नहीं तो और क्या है ये ? या
फिर ये सोच में पड़े कीड़ों के कुलबुलाने का समय है जो जब तक मरेंगे नहीं ,
नए जन्मेंगे नहीं ? या फिर हरे कृष्ण करे राम जपने का वक्त है ये ? या फिर
सब जिरहों से आँख मूँद खुद से संवाद करने का वक्त है ये ?
एक अकारण उपजी त्रासदी सी चुप के अंकुश से कुम्हलाई हुई है सारी बगिया फिर किसी एक फूल की फ़िक्र कौन करे ........
आओ के बतियाओ मुझसे
आओ के रो लो कुछ दुःख मुझसे
आओ के गुनगुना दो कुछ मुखड़े अपने गीतों के
कि शायद खिल जाए अमलतास वक्त से पहले
कि रूठी हुई नानी दादी की कहानी सा मिल जाए कोई शख्स मुझसे
और मैं अपने चुप के कोठार पर जला दूं एक दीप
उमंगों का , तम्मनाओं का , संभावनाओं का
कि शायद गणगौर के गीतों सी उभर सके इक आभा मुझमे ...