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सोमवार, 27 सितंबर 2010

हाँ , अपना शत्रु में आप बन गया हूँ

अपना शत्रु मैं
आप बन गया 
विषय भोगों 
में लिप्त हो
इन्द्रियों का
गुलाम मैं
खुद बन गया
तेरा बनकर भी
तेरा ना बन पाया
और अपना आप
मैं भूल गया
अब भटकता 
फिरता हूँ
मारा - मारा
मगर मिले ना
कोई किनारा
जन्म- जन्म की
मोहनिशा में सोया
अब ना जाग 
पाता हूँ
जाग- जाग कर भी
बार - बार
विषय भोगों के
आकर्षण में
डूब - डूब जाता हूँ
विषयासक्ति से 
ना मुक्त हो पाता हूँ
विषयों की दावाग्नि 
में जला जाता हूँ
मगर छूट 
नहीं पाता हूँ
हाँ , अपना शत्रु में
आप बन  गया हूँ

19 टिप्‍पणियां:

सुज्ञ ने कहा…

भावयुक्त रचना, बेहद गहन चिंतन

समय चक्र ने कहा…

विषयभोगों में लिप्त होकर आदमी इन्द्रियों का गुलाम हो जाता है ... रचना में बहुत ही सटीक बात कहीं हैं ..आभार

kshama ने कहा…

Kitna sach likha hai Jyoti...ham hee apne khud ke shatru ban jate hain..
Shreshth rachnaon me se ye ek hai tumhari!

निर्मला कपिला ने कहा…

सही बात है आदमी अपना दुश्मन आप ही होता है। अच्छी लगी आपकी रचना। शुभकामनायें

rashmi ravija ने कहा…

यथार्थ से परिचित करवाती..बहुत ही सटीक रचना

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अस्पष्टता में मन शत्रुवत हो जाता है।

virendra sharma ने कहा…

Md where is the said blog charchaa ?
veerubhai .
rchnaa ke liye badhaai .aise hi lkhte rhyegaa
veerubhai

शरद कोकास ने कहा…

ऐसा मनुष्य ही कर सकता है , कभी खुद का दोस्त बन जाता है कभी खुद का दुश्मन ।

Kusum Thakur ने कहा…

बहुत खूब ....सच कहा है मनुष्य अपना शत्रु खुद ही तो बन जाता है !

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

"जाग- जाग कर भी
बार - बार
विषय भोगों के
आकर्षण में
डूब - डूब जाता हूँ
विषयासक्ति से
ना मुक्त हो पाता हूँ
विषयों की दावाग्नि
में जला जाता हूँ
मगर छूट
नहीं पाता हूँ
हाँ , अपना शत्रु में
आप बन गया हूँ"... मानव जीवन ऐसा ही है.. एक आध्यत्मिक रचना जो विषय विकारों से दूर सात्विक जीवन की ओर प्रेरित करती है...

दिगम्बर नासवा ने कहा…

यही तो माया है .... इस माया से छूटना आसान नही है ... इंद्रियों को बस में करना आसान नही ... अच्छा लिखा है बहुत ही ....

Urmi ने कहा…

बहुत सुन्दर और सठिक बात कही है आपने! शानदार रचना!

SATYA ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति

यहाँ भी पधारें:-
ईदगाह कहानी समीक्षा

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

जाग- जाग कर भी
बार - बार
विषय भोगों के
आकर्षण में
डूब - डूब जाता हूँ
विषयासक्ति से
ना मुक्त हो पाता हूँ
--
सत्य से साक्षात्कार कराती रचना!

राजभाषा हिंदी ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
काव्य प्रयोजन (भाग-१०), मार्क्सवादी चिंतन, मनोज कुमार की प्रस्तुति, राजभाषा हिन्दी पर, पधारें

पूनम श्रीवास्तव ने कहा…

bilkul sateek avam bhav prvan rachna.
poonam

deepti sharma ने कहा…

bhavo se yukt rachna

blog par aane ka aabhar
yuhi margdarshan dete rahiye dhanyvad

दीपक 'मशाल' ने कहा…

मन तरसत हरि दर्शन कों आज....

vijay kumar sappatti ने कहा…

bahut hi philosphical paaroch to life.. sahi baat kahi ji