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शनिवार, 13 सितंबर 2014

तुम्हें पाने और खोने के बीच


तुम्हें पाने और खोने के बीच 
तुम्हारे होने और न होने के बीच 
डूबती उतराती मेरे विचारों की नैया 
मेरा भ्रम नहीं तुम्हारा निर्विकल्प संदेश है 
जो मैने गुनगुनाया तब तुम्हें पाया ………ओ कृष्ण ! 

अखण्ड समाधिस्थ की स्थिति में स्थितप्रज्ञ से तुम 
हो जाते हो कभी कभी आत्मसात से 
तो कभी विलीन इतने दूर 
कि असमंजस की दिशायें 
कुलबुलाकर छोडने लगती हैं धैर्य के संबल 

निष्ठा श्रद्धा विश्वास और प्रेम के तराजू पर 
काँटे कभी समस्तर पर नही पहुँचते 
तुम्हारा ज्ञान हो जाता है धराशायी प्रेम के अवलंबन पर 
कहो तो कैसे तुममें से तुम्हें जुदा करूँ 
कैसे खुद को फ़ना करूँ 
जो निर्बाध गति हो जाए 
प्रेम प्रेम में समाहित हो जाए .......कहो तो ओ कृष्ण !

7 टिप्‍पणियां:

रश्मि प्रभा... ने कहा…

http://bulletinofblog.blogspot.in/2014/09/blog-post_13.html

Vaanbhatt ने कहा…

बहुत खूब...सुन्दर...

अजय कुमार झा ने कहा…

कृष्ण प्रेम से सराबोर पंक्तियां ..सुंदर भावपूर्ण पंक्तियां

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (14-09-2014) को "मास सितम्बर-हिन्दी भाषा की याद" (चर्चा मंच 1736) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हिन्दी दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Preeti 'Agyaat' ने कहा…

Sundar..Premmayi rachna !

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

वाह...सुन्दर और सार्थक पोस्ट...
समस्त ब्लॉगर मित्रों को हिन्दी दिवस की शुभकामनाएं...
नयी पोस्ट@हिन्दी
और@जब भी सोचूँ अच्छा सोचूँ

सुरेन्द्र "मुल्हिद" ने कहा…

prem mein lipt rachna...


meri nayee post pe aapka swaagat hai..

http://raaz-o-niyaaz.blogspot.com/2014/09/blog-post.html